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This Article is From Sep 06, 2022

"66A के तहत कोई जांच या ट्रायल न चले" : IT एक्‍ट की 'खास धारा' के तहत FIR दर्ज करने को लेकर SC की दो टूक

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कहा कि वो राज्यों के चीफ सेकेट्री से संपर्क करे और सुनिश्चित करें कि 66A के तहत कोई जांच या ट्रायल न चले. मामले में तीन हफ्ते में रिपोर्ट मांगी गई है.

"66A के तहत कोई जांच या ट्रायल न चले" : IT एक्‍ट की 'खास धारा' के तहत FIR दर्ज करने को लेकर SC की दो टूक
प्रतीकात्‍मक फोटो
नई दिल्‍ली:

रद्द करने के बावजूद IT एक्ट की धारा 66A के तहत FIR दर्ज करने का मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई है. SC ने कहा कि ये चिंता का विषय है कि आदेशों के बावजूद इस धारा में केस दर्ज किए जा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कहा कि वो राज्यों के चीफ सेकेट्री से संपर्क करे और सुनिश्चित करें कि 66A के तहत कोई जांच या ट्रायल न चले. मामले में तीन हफ्ते में रिपोर्ट मांगी गई है. याचिकाकर्ता की ओर से संजय पारिख ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि 
बिहार ने तो अपने यहां दर्ज मुकदमों की सही जानकारी ही नहीं दी है लेकिन 66A के तहत मुकदमे दर्ज होने की बात स्वीकारी है. छत्तीसगढ़ में 71 मामले दर्ज किए जिनमें से 48 लंबित हैं. कुछ ही निपटाए जा सके हैं. जम्मू-कश्मीर में श्रेया सिंघल मामले में फैसला आने के बाद 16 मामले में FIR दर्ज की गई लेकिन निपटारा एक का भी नहीं हुआ है. झारखंड में 40 केस दर्ज किए गए जिनमें सारे लंबित हैं. मध्यप्रदेश में श्रेया सिंघल मामले के बाद दर्ज 145 मामलों में से 113 लंबित हैं, वहीं यूपी, मेघालय, सिक्किम, ओडिशा व दिल्ली आदि की ओर से बताया गया कि उनके राज्य में अब कोई केस नहीं है.

CJI यू यू ललित और जस्टिस एस रवींद्र भट की बेंच ने कहा, 'ये एक गंभीर चिंता का विषय है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद कुछ राज्यों में इस धारा में FIR दर्ज हो रही हैं या मुकदमा लंबित है. ऐसे में केंद्र सरकार राज्यों के चीफ सेकेट्री से संपर्क करें और इस मामले में जानकारी लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन कराएं." गौरतलब है कि 1 अगस्त 2021 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर कहा था कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा-66 ए प्रावधान को रद्द करने के बाद इसके तहत दर्ज मामलों को बंद करना राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का प्राथमिक कर्तव्य है. राज्य सरकारों के तहत कानून का पालन करने वाली एजेंसियों को सुनिश्चित करने के लिए कहा गया है कि आईटी एक्ट की धारा-66ए के तहत कोई नया मामला दर्ज न हो.  

सुप्रीम कोर्ट में केंद्र द्वारा दायर हलफनामे में कहा गया है कि पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था भारत के संविधान के अनुसार राज्य के विषय हैं, और अपराधों का पता लगाकर इसकी रोकथाम, जांच व अभियोजन और पुलिसकर्मियों की क्षमता निर्माण मुख्य रूप से राज्यों की जिम्मेदारी है.केंद्र सरकार ने यह हलफनामा गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) पीयूसीएल की उस याचिका पर दिया है, जिसमें यह कहा गया है कि धारा-66ए को रद्द किए जाने के बावजूद इसके तहत मामले दर्ज किए जा रहे हैं. निरस्त किए जाने के वक्त इस कानून के तहत 11 राज्यों में 229 मामले लंबित थे लेकिन इसके बाद भी इन राज्यों में इस प्रावधान के तहत 1307 नए मुकदमे दर्ज किए गए. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर केंद्र से जवाब मांगा था.

 फिर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और सभी हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ( PUCL ) द्वारा दायर याचिका में नोटिस जारी किया था. इसमें श्रेया सिंघल मामले के फैसले के तहत धारा 66 ए के प्रावधान के तहत FIR  के खिलाफ विभिन्न दिशा-निर्देश और गाइडलाइन मांगी गई हैं. सुनवाई के दौरान पीठ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील संजय पारिख से राज्यों को भी पक्ष बनाने के लिए कहा ताकि अदालत एक व्यापक उचित आदेश दे सके क्योंकि अंततः पुलिस राज्य का विषय है.याचिकाकर्ता की ओर से पेश संजय पारिख ने कहा कि जहां एक स्थिति पुलिस के बारे में है, वहीं दूसरी न्यायपालिका की है. सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2021 को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 ए के तहत पुलिस द्वारा FIR  दर्ज करने की प्रथा पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए नोटिस जारी किया था. इसे शीर्ष अदालत ने 2015 के फैसले में श्रेया सिंघल मामले में खारिज कर दिया था. कोर्ट के आदेश के जवाब में, केंद्र ने अपने जवाबी हलफनामे में कहा था कि पुलिस और सार्वजनिक आदेश राज्य के विषय हैं, श्रेया सिंघल के फैसले को लागू करने के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी, जिसने आईटी अधिनियम की धारा 66 ए को हटा दिया था, राज्य के पास है. इसके अलावा, कानून प्रवर्तन एजेंसियां ​​भी फैसले को लागू करने के लिए समान जिम्मेदारी साझा करती हैं 

बता दें, वर्ष 2015 में श्रेया सिंघल  मामले में जस्टिस  जे चेलामेश्वर और जस्टिस आरएफ नरीमन की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 (1) (ए) के उल्लंघन के रूप में धारा 66 ए को रद्द कर दिया था. जस्टिस नरीमन द्वारा लिखे गए फैसले ने प्रावधान को अस्पष्ट और अतिशयोक्तिपूर्ण बताया था. जस्टिस नरीमन ने फैसले में कहा था कि यह स्पष्ट है कि धारा 66 ए मनमाने ढंग से, अत्यधिक और अनुपातहीन रूप से बोलने के अधिकार पर आक्रमण करती है और इस तरह के अधिकार और उचित प्रतिबंधों के बीच संतुलन को बिगाड़ देती है. यह धारा इस आधार पर भी असंवैधानिक है कि यह  व्यापक संरक्षित बोलने और अभिव्यक्ति के भीतर चली जाती है जो प्रकृति में निर्दोष है और  इसका बोलने की आजादी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और इसलिए इसे  रद्द किया जाता है. 

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