मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...
मोदी के गुजरात वाले विकास मॉडल की दो ही खासियतें हैं - एक, पर्यावरण को बेलगाम नुकसान, और दो, जनजातीय आबादी का बड़े पैमाने पर विस्थापन, ताकि बड़े-बड़े पूंजीपति अकल्पनीय मुनाफा कमा सकें, और फिर मोदी के बेहद महंगे चुनाव अभियानों को पैसा दे सकें।
इस ज़ुल्म का प्रतीक है दक्षिणी गुजरात का औद्योगिक शहर वापी, जो आज पूरे देश में सबसे ज़्यादा भयंकर रूप से प्रदूषित इलाका है। मोदी ने राज्य में सत्ता के अपने 12 सालों में वापी की सफाई के लिए कुछ नहीं किया, और अब पूरा देश इसी पर्यावरणीय तबाही का खतरा अपने सामने देख रहा है।
इससे भी बढ़कर, उनके मुख्यमंत्रित्व काल में इस तथाकथित विकास के नाम पर जो लोग विस्थापित किए गए, उनमें 76 प्रतिशत आदिवासी थे। गुजरात वाले विकास मॉडल में निहित निर्दयता और निष्ठुरता को समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि गुजरात में आदिवासियों की कुल आबादी कितनी है : सिर्फ आठ फीसदी... अब सोचिए, आबादी के सिर्फ आठ प्रतिशत हिस्से को विस्थापन का 76 फीसदी दंश सहना पड़ा। सबसे गरीब, और सबसे कम शक्तिवान लोगों को किनारे कर दिया गया, ताकि निजी क्षेत्र के दिग्गज जनसाधारण पर राज कर सकें। इसे 'पूंजीवाद' नहीं, उद्योग जगत का 'सामंतवाद' कहेंगे।
अब ऐसा ही माहौल पूरे देश में थोपने की तैयारी चल रही है। पर्यावरण राज्यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर पहले ही गर्व (!) के साथ घोषणा कर चुके हैं कि उन्होंने सिर्फ तीन महीने में 240 परियोजनाओं को मंजूरी दे दी है। पर्यावरण को बचाने और आदिवासियों को न्याय दिलवाने के लिए सोच-समझकर तैयार किए गए कानूनों, नियमों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखे बिना इतनी परियोजनाओं को मंजूरी देना कैसे मुमकिन है? उन्होंने वन्य विभाग की मंजूरी को राष्ट्रीय वन्य जीवन बोर्ड (National Board of Wild Life अथवा NBWL) की मंजूरियों से अलग कर दिया है। इसके अलावा उन्होंने न सिर्फ राष्ट्रीय वन्य जीवन बोर्ड की मंजूरी पाने के लिए वन्य रिजर्व के आसपास निर्माण की निश्चित सीमा को भी 10 किलोमीटर से घटाकर पांच किलोमीटर कर दिया है, बल्कि जाने-माने विशेषज्ञों तथा गैर-सरकारी संगठनों के स्थान पर रबरस्टांप जैसे लोगों को बिठाकर बोर्ड को भी एक तरह से बधिया कर दिया है। साथ ही उन्होंने वन्य संरक्षण अधिनियम (Forest Conservation Act) को लागू करने के नियमों में उन्हीं इलाकों - नक्सल-प्रभावित इलाके, वन्य क्षेत्रों में चल रहे लीनियर प्रोजेक्ट तथा पर्यावरण के लिहाज़ से संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे इलाके - में छूट दी है, जहां इस अधिनियम की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
सिर्फ यहीं नहीं, ऐसी छूट न सिर्फ कोयला खदानों से जुड़े मामलों में, और सिंचाई परियोजनाओं में भी दे दी गई हैं, बल्कि उन 43 'बेहद प्रदूषित इलाकों' में भी दी गईं, जो खुद उन्हीं के मंत्रालय ने तय की थीं।
ऐसा उन्होंने राष्ट्रीय हरित पंचाट को कमज़ोर करके और खनिज की संभावनाएं तलाशने की खातिर जंगल की जमीन लेने के लिए ग्रामसभा की मंज़ूरी की ज़रूरत ख़त्म करने पर विचार करके किया। अब मोदी सरकार उस अहम भूमि अधिग्रहण कानून को भी बेहद हल्का करने के संकेत दे रही है, जिसके लिए सिर्फ एक साल पहले ही उन्होंने खुद वोट दिया था, और पर्यावरण संरक्षण कानून, वन्यप्राणी संरक्षण कानून, वन संरक्षण कानून और जल और वायु प्रदूषण कानून जैसे पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े तमाम कानूनों को हल्का करने के इरादे से संशोधन की बात कर रही है, जबकि उन्होंने बेहद भेदभाव भरा वह औपनिवेशिक कानून ज्यों का त्यों बनाए रखा है, जो सारे वन कानूनों का जनक कहलाता है - भारतीय वन कानून, 1927...
मेरे द्वारा इस आलेख के लिखे जाने में आशीष कोठारी का बहुत बड़ा हाथ है, जिन्होंने इस विकास मॉडल के उन खतरों के बारे में बताया है, जो देश के सामने झूल रहे हैं - "संगठित क्षेत्र में नौकरियां न के बराबर बढ़ी हैं... अल्पपोषण और कुपोषण सर्वोच्च स्तर पर हैं... विभिन्न प्रकार के सामाजिक मानकों के लिहाज़ से भारत सबसे नीचे लटक रहा है... अमीर और गरीब के बीच असमानताएं खतरनाक ढंग से बढ़ रही हैं... तथा पर्यावरणीय असंतुलन शुरू हो चुका है..."
उफ... ये कहां आ गए हम...!
अब जो आदिवासियों के साथ किया जा रहा है, वह उससे भी बुरा है। नक्सलवाद के फैलाव की जड़ में आदिवासियों में व्याप्त असंतोष ही है। आज़ादी के बाद से अब तक साढ़े छह करोड़ आदिवासियों को विस्थापित किया जा चुका है, जिनमें से अधिकतर का अब तक पुनर्वास या पुनरुद्धार नहीं हुआ है। उनके लिए तो 'आज़ादी' आई ही नहीं है। वे विकास को 'इच्छित' या 'वांछित' की तरह नहीं, 'बाधक' की तरह देखते हैं। जिस नौकरशाही तथा पुलिस का उन्हें सामना करना पड़ता है, वह अविश्वसनीय रूप से दमनकारी हैं (जैसा कि वर्ष 2007 में आई बंधोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है)
दमनकारी फॉरेस्ट गार्ड, अत्याचारी थानेदार और शोषण करने वाला पटवारी ही सरकार के वे पुर्ज़े हैं, जिनका उन्हें सामना करना पड़ता है, इसीलिए कोई हैरानी नहीं होती, जब वे क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की बातें करने वाले नक्सलियों की बातों में आ जाते हैं।
हम अपने आदिवासियों को राष्ट्र-निर्माण की मुख्यधारा में तभी रखे रह पाएंगे, जब हम उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा बनाएंगे। इसका अर्थ यह है कि उन्हें इतना सशक्त बनाया जाए, ताकि वे अपनी ज़िन्दगियों पर नियंत्रण रख सकें, और अपनी इच्छाओं, नियमों और परंपराओं के हिसाब से जीवन जी सकें, किसी बाहरी व्यवस्था द्वारा थोपी गई शर्तों पर नहीं। नक्सली उनके बीच रहते हैं, उन्हीं के साथ खाते हैं, साथ ही रहते हैं, और उन्हीं जैसा जीवन जीते हैं। सरकार उन पर सिर्फ दांत पैनाए बैठी रहती है, और इसीलिए आदिवासियों का विद्रोह, गृहमंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, देश की पूरी चौड़ाई - ओडिशा से गुजरात तक - में उसके एक-तिहाई से ज़्यादा बड़े हिस्से को चपेट में ले चुका है।
अब मोदी ने अपने गृहराज्य में आदिवासियों के विद्रोह को कुचलने के लिए आदिवासियों को ही कुचलना शुरू कर दिया है। प्रतिक्रिया के रूप में उनमें से तीन-चौथाई से भी ज़्यादा ने मोदी लहर के चरम पर होने के बावजूद मोदी को वोट नहीं दिया। लेकिन कुल आबादी का 10 फीसदी से भी कम हिस्सा होने के कारण गुजरात में उनकी आवाज़ सुनी ही नहीं जा सकी। लेकिन जैसे-जैसे हम पूर्व की तरफ बढ़ते हैं, आदिवासी आवाज़ मजबूत होती जाती है। उसे सुनना ही पड़ेगा। इंदिरा और राजीव गांधी इसे सबसे पहले सुनने वालों में शामिल रहे हैं, लेकिन स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण आदिवासियों का पक्षधर कानून - पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (The Provisions of The Panchayats (Extension to Scheduled Areas) Act, 1996) - पारित करवाने का श्रेय देवेगौड़ा सरकार को देना होगा। वैसे, इस अधिनियम को पेसा (PESA) के नाम से बेहतर जाना जाता है।
यह एकमात्र कानून है, जो पूरी तरह हमारे संविधान के अनुरूप है। एक कांग्रेस नेता तथा पूर्व पंचायती राज मंत्री की हैसियत से मैं पेसा का संपूर्ण अनुपालन सुनिश्चित करने में असफल रहने को यूपीए के शासनकाल के 10 सालों की सबसे बड़ी असफलता मानता हूं, लेकिन अब जो होने जा रहा है, वह उससे भी बुरा है - मोदी सरकार द्वारा पेसा को लगभग 'खत्म' कर दिया जाना।
हमें इसका विरोध करना ही होगा। हम इसका विरोध करेंगे। लोकसभा में मोदी के पास कितना भी शानदार बहुमत आ गया हो, राज्यसभा में वह अल्पमत में हैं। वहां, हम प्रतिक्रियावादी संशोधनों को जहां तक हो सकेगा, रोकेंगे।
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