 
                                            महाराष्ट्र में नक्सल आंदोलन को बुधवार के दिन उस वक्त बड़ा झटका लगा, जब नक्सलियों के बड़े नेता भूपति समेत 61 नक्सलवादियों ने हथियार समेत गढचिरौली पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. इस मौके पर राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, पुलिस महानिदेशक रश्मी शुक्ला और अधीक्षक नीलोत्पल समेत तमाम आला अधिकारी मौजूद थे. हाल के वक्त में ये सबसे बड़ा नक्सली सरेंडर माना जा रहा है. जो महाराष्ट्र नक्सलवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में से एक माना जाता था वहां अब सिर्फ उंगलियों पर गिनी जाने वाली संख्या में नक्सलवादी रह गये हैं. इस आत्मसमर्पण के बाद माना जा रहा है कि जल्द ही सरकार नक्सल मुक्त महाराष्ट्र का ऐलान कर देगी. क्योंकि पुलिस को बचे-खुचे नक्सलियों के भी हौसले पस्त होने की उम्मीद है.
नक्सलवाद खत्म करने का लक्ष्य
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 2026 तक भारत से नक्सलवाद खत्म करने का जो लक्ष्य तय किया है, उसमें इस सरेंडर को एक अहम कडी माना रहा है. अब से 45 साल पहले 1980 में नक्सलवाद ने महाराष्ट्र में किस तरह से अपनी खूनी दस्तक दी थी, ये जानिये एनडीटीवी के कार्यकारी संपादक जीतेंद्र दीक्षित की किताब “ट्रबल शूटर” के इस अंश से: पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन ने भारत के अन्य हिस्सों में भी ऐसे कई आंदोलनों को जन्म दिया.
बिहार, मध्य प्रदेश, ओडिशा और आंध्र प्रदेश इसके प्रमुख प्रभावित इलाके थे, हालांकि कुछ अन्य राज्यों में भी इसकी मोजूदगी महसूस की गई थी. गढ़चिरौली इसी "लाल गलियारे" (Red Corridor) में आता था और इसकी सीमाएं मध्य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश दोनों से सटी थीं. नक्सलियों ने पाया कि गढ़चिरौली की सामाजिक-आर्थिक स्थितियां सशस्त्र संघर्ष के लिए अनुकूल थीं. यहां के निवासी, जो मुख्य रूप से आदिवासी थे और जंगल की उपज पर निर्भर थे, तेंदूपत्ता और बांस के ठेकेदारों तथा सरकारी अधिकारियों द्वारा सताए जाते थे. ठेकेदार उन्हें तेंदूपत्ता तोड़ने और बांस काटने के लिए मजदूरों के रूप में इस्तेमाल करते थे, लेकिन मजदूरी बेहद कम देते थे. वन विभाग भी विभिन्न कानूनों का हवाला देकर आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का उपयोग नहीं करने देता था.
ब्रिटिश शासन के दौरान एक नियम था कि आदिवासी जमीन केवल किसी आदिवासी को ही बेची जा सकती थी. हालांकि, आजादी के बाद, धनी ज़मींदारों और साहूकारों ने ज़मीन के बड़े हिस्से खरीद लिए. सरकारी अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त थे, और आदिवासी महिलाओं का अक्सर यौन शोषण होता था.
गढ़चिरौली में नक्सल आंदोलन की शुरुआत
आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वॉर ग्रुप (PWG) के गठन ने गढ़चिरौली में नक्सल आंदोलन की शुरुआत कर दी. वारंगल के एक हिंदी शिक्षक, कोंडपल्ली सीतारामैया, कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे और वे चारु मजूमदार की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) में शामिल हो गए. मजूमदार की मृत्यु के बाद पार्टी कमजोर पड़ी, तो सीतारामैया CPI (ML) से अलग होकर अप्रैल 1980 में PWG की स्थापना की. PWG ने चुनावी राजनीति को खारिज कर दिया और भारतीय राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू किया.
सीतारामैया ने 'दलम्' बनाए—पांच से दस युवाओं के छोटे समूह जो PWG के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए काम करते थे. दो महीने बाद, जून 1980 में, ऐसे सात दलम् महाराष्ट्र के वन क्षेत्रों में दाखिल हुए, जबकि अन्य को पड़ोसी मध्य प्रदेश में भेजा गया. गढ़चिरौली में प्रवेश करने वाले दलम् का नेतृत्व तेईस वर्षीय पेड्डिशंकर कर रहे थे. पेड्डिशंकर आंध्र प्रदेश के बेल्लमपल्ली जिले के थे. उन्होंने दसवीं पास करने के बाद बस क्लीनर का काम शुरू किया लेकिन पढ़ाई जारी रखी. स्कूल से स्नातक होने के बाद, वह रेडिकल स्टूडेंट्स यूनियन के सदस्य बन गए और विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में भाग लेने लगे.
उन्होंने कोयला मजदूरों का मुद्दा उठाया और अस्थायी कर्मचारियों के लिए स्थायी नौकरी की मांग को लेकर अठारह दिनों की लंबी हड़ताल का नेतृत्व किया. 1977 में, उन्होंने क्राउड फंडिंग के जरिए अपने इलाके में एक पुस्तकालय खोला और चोरी के बढ़ते मामलों से निपटने के लिए युवाओं का एक निगरानी समूह (vigilante group) भी बनाया.
1978 में, एक कोयला खदान अधिकारी द्वारा राजेश्वरी नाम की एक महिला का बलात्कार और हत्या कर दी गई. पेड्डिशंकर ने स्थानीय पुलिस स्टेशन को घेरकर एक आंदोलन आयोजित किया. उग्र भीड़ को तितर-बितर करने के लिए, पुलिस ने गोलियां चलाईं, जिसमें दो लोग मारे गए। पेड्डिशंकर के खिलाफ डकैती, आगजनी और पुलिस हथियार छीनने का मामला दर्ज किया गया। इसके बाद, वह भूमिगत हो गए.
इस दौरान, पेड्डिशंकर ने नक्सलियों के साथ सहयोग करना शुरू कर दिया और तेईस साल की उम्र तक, उन्हें महाराष्ट्र में नक्सल आंदोलन का प्रभारी बना दिया गया. 2 नवंबर 1980 को, वह चार साथियों के साथ महाराष्ट्र-आंध्र प्रदेश सीमा के पास स्थित मोइनबिनपेत्रा गांव में शरण लेने पहुंचे. उस समय, महाराष्ट्र सरकार को खुफिया जानकारी मिली थी कि नक्सल आंदोलन चंद्रपुर जिले (जिसका गढ़चिरौली उस समय हिस्सा था) में जड़ें जमा चुका है.
इसलिए, राज्य रिजर्व पुलिस (SRP) की दो कंपनियां क्षेत्र में तैनात की गई थीं. एक साहूकार के नौकर को गाँव में पेड्डिशंकर की उपस्थिति का पता चला और उसने तुरंत गश्त कर रही SRP टीम को सूचना दी. सूचना मिलते ही SRP टीम हरकत में आई और कुछ ही मिनटों में पेड्डिशंकर और उनके साथियों को घेर लिया. पुलिस के अनुसार, समूह को आत्मसमर्पण करने को कहा गया, लेकिन वे गांव के बाहरी इलाके में ज्वार के खेतों में छिप गए और पुलिस दस्ते पर गोलीबारी की. जवाबी कार्रवाई में पेड्डिशंकर मारा गया, जबकि उसके चार साथी पास बह रही प्राणहिता नदी की ओर भागकर बच निकले. पुलिस ने 12 बोर की बंदूक, फर्स्ट एड किट और राशन किट के साथ-साथ नक्सल साहित्य बरामद करने का दावा किया, जिसमें पुलिस को उनके संघर्ष का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया था. 'पीपुल्स वॉर' नामक एक पत्रिका भी मिली.
इस मुठभेड़ पर जबरदस्त हंगामा हुआ. कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने मुठभेड़ की जांच के लिए अपनी तथ्य-खोज समिति (fact-finding committee) का गठन किया. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पेड्डिशंकर गोलीबारी के आदान-प्रदान में नहीं, बल्कि हत्या का शिकार हुए थे. उन्हें एक खुले मैदान में गोली मारी गई थी, जहां छिपने की कोई गुंजाइश नहीं थी. किसी ग्रामीण ने पेड्डिशंकर को पुलिस पर गोली चलाते नहीं देखा था, और मुठभेड़ के बारे में पुलिस की विभिन्न रिपोर्टों में विसंगतियां थीं. यह घटना महाराष्ट्र के इतिहास में नक्सलियों और पुलिस के बीच पहली मुठभेड़ मानी जाती है. पेड्डिशंकर की कहानी भले ही समाप्त हो गई हो, लेकिन इसने एक ऐसे युग की शुरुआत कर दी जिसने हरे-भरे दंडकारण्य जंगल को लाल रंग से रंग दिया.
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