सिद्धारमैया: बिना मोबाइल फोन के नेता, जो अब कर्नाटक में कांग्रेस की शानदार वापसी का हैं चेहरा

यह सिद्धारमैया ही थे, जिन्होंने 2013-18 के बीच कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में पांच साल के सफल कार्यकाल का नेतृत्व किया. ये कर्नाटक में अपने आप में एक मील का पत्थर है, क्योंकि कर्नाटक ऐसे राज्य के रूप में भी जाना जाता है, जहां ज्यादातर मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाते हैं.

सिद्धारमैया: बिना मोबाइल फोन के नेता, जो अब कर्नाटक में कांग्रेस की शानदार वापसी का हैं चेहरा

सिद्धारमैया पहली बार 1983 में लोकदल पार्टी के टिकट पर चामुंडेश्वरी से विधायक बने.

नई दिल्ली:

कर्नाटक में पिछले साल विधानसभा चुनाव 2023 (Karnataka Assembly Elections Result) को लेकर कांग्रेस (Congress) पार्टी के अभियान पर कोई स्पष्टता नहीं थी. उसी साल अगस्त में सिद्धारमैया (Siddaramaiah) ने मध्य कर्नाटक के दावणगेरे में अपना 75वां जन्मदिन मनाया. इसे सिद्धमहोत्सव (Siddamahotsav) नाम दिया गया. इस कार्यक्रम में 6 लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए. इनमें से कम से कम 100 लोग अपनी सीट घेरने के लिए कार्यक्रम शुरू होने के पहले रातभर खुले मैदान में सोते रहे. राहुल गांधी ने विशेष रूप से इस कार्यक्रम में शामिल होने की बात कही थी, लेकिन शहर भर में भीड़ के कारण उन्हें भी कार्यक्रम स्थल पर पहुंचने के लिए घंटों इंतजार करना पड़ा. 

चुनावी मौसम में सिद्धारमैया का यह पहला शक्ति प्रदर्शन था. इससे पार्टी नेतृत्व को एक रिमाइंडर मिला कि सिद्धारमैया क्या या कौन हैं? वह जनता के नेता यानी जननेता थे, जिन्होंने ये ताकत अपने समर्थकों से प्राप्त की. आज तक सिद्धारमैया के पास कोई फोन नहीं है. कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं सहित दुनिया उनके निजी सहायक (पर्सनल असिस्टेंट) के जरिए उनसे संपर्क करती हैं.

अगर कांग्रेस ने महिलाओं, बेरोजगार युवाओं के लिए अपनी '5 गांरटी' वादे के दम पर कर्नाटक में जीत हासिल की है, तो यह सिद्धारमैया का चेहरा ही था, जिसने पार्टी को मतदाताओं को समझाने और पार्टी को आगे ले जाने के लिए जरूरी विश्वसनीयता दी. चुनाव में कांग्रेस ने 135 सीटों की ऐतिहासिक जीत हासिल की है. पार्टी को दावणगेरे की एक सीट को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर भी जीत मिली है.

यह सिद्धारमैया ही थे, जिन्होंने 2013-18 के बीच कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में पांच साल के सफल कार्यकाल का नेतृत्व किया. ये कर्नाटक में अपने आप में एक मील का पत्थर है, क्योंकि कर्नाटक ऐसे राज्य के रूप में भी जाना जाता है, जहां ज्यादातर मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाते हैं. सिद्धारमैया कांग्रेस पार्टी की 'अन्न भाग्य योजना' का भी चेहरा थे, जिसने गरीब तबके के लोगों को हर महीने 7 किलो मुफ्त चावल दिया. सिद्धारमैया पहले मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया, एक चुनाव हारे और फिर मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता में वापसी की.

कांग्रेस ने उन्हें क्यों चुना?
कर्नाटक में कौन मुख्यमंत्री होगा? चुनाव जीतने के बाद से पांच दिन तक कांग्रेस पार्टी में इसी सवाल पर मंथन चलता रहा. गुरुवार को आखिरकार फैसला हो गया. सिद्धारमैया ने सीएम पद के लिए डीके शिवकुमार को पछाड़ दिया. डीके शिवकुमार डिप्टी बनाए जा रहे हैं.

सिद्धारमैया कुरुबा समुदाय से आते हैं, जो कर्नाटक की तीसरी सबसे बड़ी जाति है. उनकी शक्तिशाली AHINDA  (अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों और दलितों के लिए कन्नड़ में संक्षिप्त नाम) रणनीति कर्नाटक में कांग्रेस की चुनावी रणनीति का मुख्य आधार रही है. सीएम के रूप में सिद्धारमैया की नियुक्ति से कांग्रेस को इस क्षेत्र में बढ़ावा मिलने की उम्मीद है. क्योंकि कांग्रेस ओबीसी गणना और आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 75 प्रतिशत करने की मांग के साथ बीजेपी को ओबीसी के मुद्दे पर घेरने की तैयारी कर रही है.

दूसरे दलों से भी मिलता है उचित सम्मान
कांग्रेस के दो अन्य राजनीतिक रूप से शक्तिशाली मुख्यमंत्री भी हैं. एक- राजस्थान में अशोक गहलोत और दूसरे, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल. दोनों ओबीसी समुदाय से आते हैं. ग्रामीण जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले एक राजनेता और ग्रामीण, कृषि संबंधी मुद्दों के लिए एक जानकार के रूप में सिद्धारमैया को अन्य दलों में भी उचित सम्मान दिया जाता है. 

कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष साख को दर्शाते हैं सिद्धारमैया
सिद्धारमैया कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष साख को भी दर्शाते हैं. चुनावों से चार महीने पहले बीजेपी नेताओं ने उन्हें सिद्धारमुल्ला खान के रूप में संदर्भित करना शुरू किया. उन पर मुसलमानों को खुश करने का आरोप लगाया. सिद्धारमैया पर टीपू जयंती समारोह आयोजित करने को लेकर भी आरोप लगे. शादी भाग्य योजना को लेकर उनकी आलोचना हुई. पीएफआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामलों को वापस लेने से भी उनपर जुबानी हमले हुए. हिजाब मामले को लेकर भी बयानबाजी हुई. सिद्धारमैया ने इन आरोपों का जवाब बखूबी दिया. 

मुझे सिद्धरामुल्ला कहलाने में खुशी है. यह मेरे द्वारा मुसलमानों के लिए किए गए कामों की पहचान है. मुझे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. अन्न (भोजन) रमैया, रायता (किसान) रमैया, कन्नड़ रमैया, दलित रमैया और अन्य. अगर वे मुझे सिद्दामुल्ला खान कह रहे हैं, तो अच्छा ही है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि समुदाय मुझे मेरे काम के लिए प्यार करता है. मैं मुसलमानों की सांप्रदायिकता का उसी प्रतिबद्धता के साथ विरोध करता रहा हूं, जैसे मैं हिंदू सांप्रदायिकता का विरोध करता आया हूं.

सिद्धारमैया

कांग्रेस नेता

कैसी है सिद्धारमैया की राजनीति?
समाजवादी झुकाव वाले एक जन नेता के रूप में देखे जाने वाले सिद्धारमैया अपनी धर्मनिरपेक्ष साख से समझौता नहीं करते हैं. कर्नाटक में कांग्रेस की शानदार वापसी के चेहरे के रूप में सिद्धारमैया के व्यक्तित्व के कई पहलू हैं. वह एक ऐसा नेता हैं, जो अपने साथ एक मोबाइल फोन तक नहीं रखते हैं. चाहे बड़े से बड़ा कोई भी नेता क्यों न हो, अगर किसी को सिद्धारमैया से बात करनी है, तो उनके पीए के माध्यम से संपर्क करना होगा. वह गरीबों को अपनी राजनीति के केंद्र में रखते हैं. सिद्धारमैया एक बेटे की मौत का शोक मना रहे पिता भी हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह एक चतुर राजनेता हैं, जो जनता की ताकत को जानते हैं और समझते भी हैं. 

सिद्धारमैया ने अक्सर एक अलग राज्य ध्वज की वकालत की है. उन्होंने व्यक्तिगत रूप से आदेश दिया है कि सिटी सबवे पर हिंदी में संकेतों को हटा दिया जाए. इन संकेतों को कन्नड़ में बदल दिया जाए. सिद्धारमैया ने कांग्रेस को एक मजबूत क्षेत्रीय पहचान दी, जो बीजेपी-आरएसएस को वैचारिक मोर्चे और जाति के मुद्दों पर भी टक्कर दे सके.

सिद्धारमैया की शख्सियत इस बात से भी समझी जा सकती है कि साल 2013 में उन्होंने मल्लिकार्जुन खरगे को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया था. खरगे अब ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष हैं. इस बार उन्होंने डीके शिवकुमार पर जीत हासिल की, जिन्हें वोक्कालिगा समुदाय को मजबूत करने, पार्टी के लिए संसाधन जुटाने और कर्नाटक में इस जीत के अहम कारक माना जाता है. इस जीत ने 2024 के चुनाव से पहले कांग्रेस में एक नई ऊर्जा का संचार किया है. 

हालांकि, नए सीएम के तौर पर सिद्धारमैया के सामने कई चुनौतियां हैं. उन्हें पार्टी द्वारा किए गए वादों को पूरा करने और पार्टी में अन्य नेताओं की आकांक्षाओं को पूरा करने की जरूरत है. कांग्रेस पार्टी के लिए बड़ी संख्या में मतदान करने वाले ग्रामीण जनता के कल्याण के लिए कार्यक्रम चलाने के अलावा, उन्हें उद्योग के विकास को संतुलित करने, बेंगलुरु और राज्य के बढ़ते शहरीकरण के लिए एक खाका भी तैयार करना होगा.

सिद्धारमैया बीजेपी और आरएसएस के तीखे आलोचक भी रहे हैं. वह अपने मन की बात कहने के लिए जाने जाते हैं. यही वजह है कि उन्होंने हमेशा सीएम बनने की अपनी महत्वाकांक्षा के बारे में बात की है. वित्त मंत्री के रूप में 13 राज्यों के बजट पेश करने वाले उनके करीबी कहते हैं कि प्रशासन के अलावा वित्त ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है. सिद्धारमैया पहली बार 1983 में लोकदल पार्टी के टिकट पर चामुंडेश्वरी से विधायक बने. इस निर्वाचन क्षेत्र से वह पांच बार जीते और तीन बार हार चुके हैं. उन्होंने चामुंडेश्वरी सीट पर वापस जाने से पहले अपने छोटे बेटे के लिए 2008 में बनाए गए वरुणा सीट को खाली कर दिया था. इस बार उन्होंने वरुणा सीट से जीत हासिल की.

क्या वह पक्के आरएसएस विरोधी हैं?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी के समान ही सिद्धारमैया आरएसएस-बीजेपी के वैचारिक रुख के गहरे आलोचक रहे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि लिंगायत समुदाय को "धार्मिक अल्पसंख्यक" का दर्जा देने के सिद्धारमैया सरकार के फैसले के परिणामस्वरूप 2018 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को चुनावी नुकसान हुआ. फिर भी पार्टी ने 2023 में बीजेपी से बेहतर प्रदर्शन किया. यह दर्शाता है कि गरीब तबकों के बीच सिद्धारमैया की लोकप्रियता कैसी है. पार्टी के एक कार्यकर्ता ने कहा, "उन्हें किसी की नहीं बल्कि अपनी राजनीति की परवाह है. वह किसी बड़े, वैश्विक सीईओ की बजाय गरीब किसानों के एक समूह से मिलना पसंद करेंगे. लोगों के हित भी उनके लिए पार्टी से ऊपर हैं. उनकी दृढ़ मान्यताएं हैं."

सिद्धारमैया को करीब से जानने वाले एक अन्य कार्यकर्ता कहते हैं, "वह तमिलनाडु के समाज सुधारक पेरियार ईवी रामासामी नायकर की तरह हैं, जो एक लोकतांत्रिक बढ़त के साथ सामाजिक संरचनाओं को चुनौती देने में दृढ़ता से विश्वास करते हैं. इसीलिए वह आरएसएस को निशाने पर लेते हैं. उनका मानना ​​है कि यह हिंदुत्व विचारधारा है, जो विभाजन की ओर ले जाती है. वह कर्मकांड आदि में विश्वास नहीं करते हैं."

भ्रष्टाचार विरोधी छवि
सिद्धारमैया अपनी साफ-सुथरी छवि के लिए जाने जाते हैं. हालांकि, उन्हें फिर भी कुछ विवादों का सामना करना पड़ा. राजनीतिक विरोधियों ने सिद्धारमैया की 70 लाख रुपये की हब्लोट घड़ी को लेकर उनसे सवाल किए थे. सिद्धारमैया ने तब कहा था कि यह घड़ी मिडिल ईस्ट में काम करने वाले उनके एक डॉक्टर दोस्त ने गिफ्ट की थी. सिद्धारमैया ने इस घड़ी की तारीफ की थी, जिसके बाद डॉक्टर दोस्त ने उन्हें ये घड़ी तोहफे में दे दी थी. हालांकि, बीजेपी ने लोकपाल को कमजोर करने और भ्रष्टों को बढ़ावा देने के लिए उनकी आलोचना की. हालांकि, सिद्धारमैया पर कभी भी व्यक्तिगत लाभ के लिए भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगाया गया है.

एक दुखी पिता
एक पिता के रूप में सिद्धारमैया के दुख को उनके कई करीबी सहयोगी दिल से याद करते हैं. 2016 में सिद्धारमैया के सबसे बड़े बेटे राकेश सिद्धारमैया का बेल्जियम विश्वविद्यालय के अस्पताल में निधन हो गया था. राकेश को सिद्धारमैया के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाता था. पार्टी के एक कार्यकर्ता ने कहा, "यह पहली बार था जब हमने उन्हें बेहद भावुक देखा. क्योंकि उन्हें बेटे का शव लाने के लिए ब्रसेल्स जाना पड़ा. राकेश की मौत के बाद छोटे बेटे यतींद्र को राजनीति में लाया गया. हालांकि, उनकी पत्नी ने कभी राजनीति में दिलचस्पी नहीं ली. सिद्धारमैया ने कभी लोगों को आने और उनसे मिलने से नहीं रोका."

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