
- भोपाल में एक कार्यक्रम में दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जुगलबंदी चर्चा का विषय बन गई.
- राघोगढ़ और ग्वालियर घरानों के बीच संबंध 1802 में ग्वालियर की जीत के बाद से विवादों-टकरावों से जुड़े रहे हैं.
- सिंधिया और दिग्विजय के बीच सार्वजनिक मंचों पर कटाक्ष और आरोप-प्रत्यारोप के बावजूद एक प्रोटोकॉल दिखता है.
भोपाल की अगस्त की दोपहरी में एक वीडियो जैसे किसी पुराने किस्सागो की जीती-जागती तस्वीर बनकर सामने आया. केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, भीड़ के बीच से रास्ता बनाते हुए, दिग्विजय सिंह का हाथ थामकर उन्हें मंच पर ले जाते दिखाई दिए. मौका था भोपाल में रातीबड़ इलाके में एक स्कूल के उद्घाटन का, लेकिन इसने प्रदेश की सियासत में फुसफुसाहटें फिर से तेज कर दीं- क्या रिश्तों की बर्फ पिघल रही है? लेकिन इस एक क्षण के पीछे सदियों की तलवारबाज़ी, राजसी गर्व और राजनीतिक शतरंज की बिसात बिछी है.
दिग्विजय सिंह का हाथ पकड़कर मंच पर ले गए ज्योतिरादित्य सिंधिया #DigvijayaSingh pic.twitter.com/yu1rfT2Vmh
— NDTV India (@ndtvindia) August 8, 2025
राजघरानों का ‘अनकहा हिसाब'
जिस मिट्टी में यह मेल हुआ, वह इतिहास से भरी है. यह कहानी सिर्फ़ दो नेताओं की नहीं, बल्कि दो राजघरानों की है- राघोगढ़ और ग्वालियर. जिनके रिश्ते 1802 से विरोधाभासों के धागों में उलझे हुए हैं. उस साल ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ के सातवें राजा जय सिंह को हराया था और राघोगढ़ ग्वालियर रियासत के अधीन आ गया. तब से एक तरह का ‘अनकहा हिसाब' चला आ रहा है. विडंबना यह कि दोनों नेता भोपाल में पड़ोसी हैं, लेकिन राजनीति में वक्त-वक्त पर शब्दों के शूल चलाते रहे हैं. इस एक दृश्य के पीछे सदियों की कहानियां, रियासतों की अदावत और सत्ता की अनंत परिक्रमा छिपी है.
तलवारों और समझौतों का सिलसिला
राघोगढ़, जिसे 1677 में लाल सिंह खिंची ने बसाया था. और ग्वालियर, जिसकी सत्ता 18वीं सदी में सिंधियाओं के हाथ में आई. दोनों की ठनक 1780 में महादजी सिंधिया द्वारा राघोगढ़ के राजा बलवंत सिंह और जय सिंह की गिरफ्तारी से शुरू हुई. 1818 तक तलवारों और समझौतों का सिलसिला चलता रहा. अंग्रेजों की मध्यस्थता से अस्थायी सुलह हुई, लेकिन दिलों में कड़वाहट बची रही. 1802 में ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ को अधीन किया, और तब से यह ‘अनकहा हिसाब' राजनीति में भी अपनी छाया डालता रहा.
'गद्दार' और 'ओसामा'
कुछ साल पहले चुनावी बयार में राघोगढ़ की रैली में दिग्विजय का बयान गूंजा, “कांग्रेस का फायदा उठाकर भाजपा में चले गए… इतिहास गद्दारों को माफ नहीं करेगा.” सिंधिया ने पलटवार किया, “मैं उस स्तर पर नहीं गिरना चाहता, ये जनता तय करेगी कि गद्दार कौन है.” साथ ही तंज कसा, “जो ओसामा को ‘ओसामा जी' कहते थे…”
मीठे व्यंग्य के बीच प्रोटोकॉल
राज्यसभा में जब दोनों मिले तो दिग्विजय ने मीठे व्यंग्य में कहा, “आप किसी भी पार्टी में रहें, हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.” इसके आगे जोड़ा, “वो हीरा हैं, और हमने तराशा है.” हाल ही में उन्होंने सिंधिया को “बच्चा” कहकर याद दिलाया कि “माधवराव को कांग्रेस में मैं ही लेकर आया था.” लेकिन इन कटाक्षों के बीच भी एक प्रोटोकॉल कायम है- सभा में हाथ मिलाना, सदन में मुस्कुराना और चुनावी मैदान में तलवारें खींच लेना.
कई मौके पर हालांकि ऐसा भी लगा कि 200 साल पुरानी कहानी अभी खत्म नहीं हुई है. 1818 के समझौते से लेकर 2020 के सत्ता परिवर्तन तक, हर मोड़ पर यह रिश्ते तलवार की धार पर चले हैं. एक तरफ महाराजा, दूसरी तरफ राजा और बीच में मध्य प्रदेश की राजनीति, जिसमें दुश्मनी और शिष्टाचार साथ-साथ चलते हैं.
युद्धभूमि से राजनीतिक बिसात तक
कहानी का पहला अंक कोई चुनावी मंच नहीं बल्कि युद्धभूमि है. सन 1802 में ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ रियासत के सातवें राजा जय सिंह को पराजित किया. राघोगढ़, ग्वालियर रियासत के अधीन हो गया. यह अधीनता तलवारों के संग चली, लेकिन मन के भीतर बीज किसी अनकहे वैमनस्य का पड़ा रहा. 200 साल बाद, यह बीज राजनीति के खेत में उगकर नई फसल देने लगा.
आजादी के बाद पहले राघोगढ़ राजनीति में उतरा. 1951 में दिग्विजय के पिता बलभद्र सिंह विधायक बने. ग्वालियर राजघराना 1957 में विजयाराजे सिंधिया के रूप में आया, जो जनसंघ की प्रखर नेता बनीं. 1971 में दिग्विजय और माधवराव सिंधिया, दोनों ने अपने-अपने मोर्चे से राजनीति में कदम रखा एक कांग्रेस के जरिए, तो दूसरा कांग्रेस में रहकर, लेकिन दिल में पुराने हिसाब-किताब लिए.
मुख्यमंत्री पद का मलाल विरासत में
1993 में कांग्रेस सत्ता में लौटी. मुख्यमंत्री पद की दौड़ में माधवराव सिंधिया भी थे, लेकिन बाजी दिग्विजय सिंह ने मार ली. कहा गया कि यह राघोगढ़ का ग्वालियर पर राजनीतिक पलटवार था. माधवराव को यह मलाल रहा. यही मलाल विरासत की तरह उनके पुत्र ज्योतिरादित्य तक पहुंचा.
रिश्ते का आखिरी पन्ना बाकी है...
दोनों का रिश्ता ऐसा है, जिसमें तलवार और फूल दोनों साथ चलते हैं. सदन में हंसी-मजाक, सभाओं में कटाक्ष, निजी मुलाकात में हाथ मिलाना... यही इसका अद्भुत संतुलन है. भोपाल में पड़ोसी होने के बावजूद, राजनीतिक मंच पर वे एक-दूसरे के ध्रुव हैं... और लगता है इस रिश्ते का अंतिम पन्ना अभी लिखा जाना बाकी है.
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