अमर सिंह (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट बुधवार को तय करेगा कि कोई निष्कासित सदस्य यदि पार्टी व्हिप का उल्लंघन करता है तो क्या उसे दलबदल कानून के तहत सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराया जा सकता है? दरअसल 2 फरवरी 2010 को समाजवादी पार्टी (सपा) के तत्कालीन सांसद अमर सिंह और जया प्रदा को पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने की स्थिति में दलबदल कानून के तहत अयोग्य ठहराया गया था.
अमर सिंह और जया प्रदा उस संभावित कदम के खिलाफ रोक के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में गए थे जो मतदान के दौरान महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में वोट डालने की स्थिति में उनके खिलाफ उठाया जा सकता था. सपा इस विधेयक का पुरजोर विरोध कर रही थी. नवंबर 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों को राहत देते हुए कोई भी कार्रवाई करने से रोक लगा दी थी.
दोनों सांसदों के वकीलों की दलील थी कि यदि पार्टी में रहते हुए कोई दलबदल करता है या पार्टी व्हिप का उल्लंघन करता है तभी उनके खिलाफ दलबदल कानून लगाया जा सकता है. इन वकीलों का कहना था कि इस मामले में सांसदों ने पार्टी से दलबदल नहीं किया है बल्कि उन्हें निष्कासित कर दिया गया है. ऐसे में बतौर असंबद्ध सदस्य उनके लिए पार्टी व्हिप मानना जरूरी नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने सिंह और जया प्रदा की याचिका पर इससे पहले अटॉर्नी जनरल की राय मांगी थी. दोनों नेताओं ने मांग की थी कि सपा से निष्कासन के बाद उन्हें सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जाना चाहिए. उन्हें डर था कि शीर्ष अदालत के 1996 के फैसले को आधार बनाकर पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने पर उनकी संसद की सदस्यता जा सकती है.
वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई दल बदल कानून की व्याख्या के अनुसार किसी राजनीतिक दल के नाम पर निर्वाचित या नामित सदस्य बर्खास्तगी के बाद भी पार्टी के नियंत्रण में रहता है. लेकिन दोनों नेताओं के अनुसार संविधान की दसवीं सूची की सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या निष्कासित सदस्यों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करती है, जिसमें अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 के तहत समानता, स्वतंत्र भाषण एवं अभिव्यक्ति और जीवन का अधिकार भी शामिल है.
अमर सिंह और जया प्रदा उस संभावित कदम के खिलाफ रोक के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में गए थे जो मतदान के दौरान महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में वोट डालने की स्थिति में उनके खिलाफ उठाया जा सकता था. सपा इस विधेयक का पुरजोर विरोध कर रही थी. नवंबर 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों को राहत देते हुए कोई भी कार्रवाई करने से रोक लगा दी थी.
दोनों सांसदों के वकीलों की दलील थी कि यदि पार्टी में रहते हुए कोई दलबदल करता है या पार्टी व्हिप का उल्लंघन करता है तभी उनके खिलाफ दलबदल कानून लगाया जा सकता है. इन वकीलों का कहना था कि इस मामले में सांसदों ने पार्टी से दलबदल नहीं किया है बल्कि उन्हें निष्कासित कर दिया गया है. ऐसे में बतौर असंबद्ध सदस्य उनके लिए पार्टी व्हिप मानना जरूरी नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने सिंह और जया प्रदा की याचिका पर इससे पहले अटॉर्नी जनरल की राय मांगी थी. दोनों नेताओं ने मांग की थी कि सपा से निष्कासन के बाद उन्हें सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जाना चाहिए. उन्हें डर था कि शीर्ष अदालत के 1996 के फैसले को आधार बनाकर पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने पर उनकी संसद की सदस्यता जा सकती है.
वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई दल बदल कानून की व्याख्या के अनुसार किसी राजनीतिक दल के नाम पर निर्वाचित या नामित सदस्य बर्खास्तगी के बाद भी पार्टी के नियंत्रण में रहता है. लेकिन दोनों नेताओं के अनुसार संविधान की दसवीं सूची की सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या निष्कासित सदस्यों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करती है, जिसमें अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 के तहत समानता, स्वतंत्र भाषण एवं अभिव्यक्ति और जीवन का अधिकार भी शामिल है.
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