अपनी विदेशी फंडिंग पर पाबंदी लगने के बाद एनजीओ ग्रीनपीस ने सरकार पर सीधा हमला करते हुए कहा है कि केंद्र सरकार बदले की भावना से काम कर रही है।
ग्रीन पीस की दिव्या रघुनंदन ने शुक्रवार को केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा, 'हमें कठिन सवाल पूछने की सज़ा भुगतनी पड़ रही है। ये हमला ग्रीनपीस पर ही नहीं, उन सारे संगठनों पर है, जो जंगलों, आदिवासियों और दलितों को बचाने के लिए आवाज़ बुलंद कर रहे हैं।'
गौरतलब है कि पिछले महीने ही हाइकोर्ट ने ग्रीनपीस कार्यकर्ता प्रिया पिल्लई के विदेश जाने पर लगी पाबंदी को असंवैधानिक बताते हुए सरकार के आदेश को रद्द कर दिया था। उसके बाद सरकार का ग्रीनपीस की विदेशी फंडिंग पर रोक लगाने का आदेश एक प्रतिक्रियावादी कदम के तौर पर देखा जा रहा है।
लेकिन सवाल ये भी है कि क्या इस देश में गैर सरकारी संगठनों के पेशेवर, स्वतंत्र और पारदर्शी तरीके से काम करने के लिए कानूनी फ्रेमवर्क मौजूद है? एनजीओ संगठनों को परामर्श देने वाले ग्रुप वानी के हर्ष जेटली कहते हैं, 'एनजीओ और सरकार के बीच आज वही रिश्ता है, जो बीस साल पहले सरकार और उद्योगों के बीच था। एक अविश्वास का। एनजीओ को लगता है सरकार उसके पीछे है और सरकार को लगता है कि एनजीओ उसके पीछे है।'
आज की सच्चाई यह है कि एनजीओ संगठनों के लिए कोई कानून या नियम नहीं हैं, जो पारदर्शी हों और जो उन्हें पेशेवर तरीके से चलने के लिए बाध्य करें। सच्चाई ये है कि एनजीओ के पंजीकरण का कानून ही कोई डेढ़ सौ साल पुराना है। आज आयकर नियम एनजीओ को मिलने वाले पैसे पर लागू नहीं होते। यानी इन गैर सरकारी संगठनों को अपने मुनाफे पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। जानकार कहते हैं कि जहां कॉरपोरेट जगत पर फंडिंग और आयकर के नियम साफ हैं, वहीं एनजीओ को लेकर कुछ भी साफ नहीं है।
मिसाल के तौर पर उद्योग जगत के लिए विदेशी फंडिंग पर लागू होने वाला कानून 'फेरा' बदलकर और सुधारकर 'फेमा' कर दिया गया, लेकिन एनजीओ को नियंत्रित करने वाला सत्तर के दशक में बना कानून एफसीआरए मूल रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा कानून है और अभी तक चला आ रहा है। हालांकि इसमें बीच-बीच में बदलाव हुए हैं, लेकिन इसे एक संपूर्ण और स्वस्थ कानून बनाने के लिए इसमें बदलाव की काफी गुंजाइश है।
कॉरपोरेट जगत के लिए वित्तमंत्रालय के साथ-साथ सिर्फ उद्योगों के ही मामले देखने के लिए खास कॉरपोरेट मामलों का मंत्रालय है, लेकिन सारे एनजीओ अभी भी गृह मंत्रालय के ही अधीन हैं। कॉरपोरेट क्षेत्र के नियम कानून के लिए कई कानूनी सुधार हुए हैं, जबकि एनजीओ क्षेत्र के लिए कोई रिफॉर्म नहीं किया गया।
हर्ष जेटली कहते हैं कि हमने गृह मंत्रालय को कई प्रजेन्टेशन दिए हैं और कई वर्कशॉप लगातार कर रहे हैं, ताकि सरकार को हमारी दिक्कतों का पता चले और एनजीओ के लोगों को नियम कानून की जानकारी हो। जेटली कहते हैं, 'अब आप देखिए कि सरकार ने एनजीओ के लिए हर पांच साल में फिर से रजिस्टर कराने का नियम बना लिया, लेकिन कई एनजीओ को इस बारे में पता ही नहीं है, क्योंकि सरकार ने कोई नोटिफिकेशन इस बारे में जारी नहीं किया है।'
असल में एनजीओ का नेटवर्क काफी फैला हुआ और पेचीदा है। राजनेताओं और एनजीओ सेक्टर का रिश्ता भी काफी गहरा है। पर्यावरण मामलों के जानकार और वकील ऋत्विक दत्ता काफी आक्रामक हैं और एनजीओ सेक्टर में साफ नियम न होने के लिए सरकार को दोषी ठहराते हैं।
'सरकार उन्हीं एनजीओ के खिलाफ आवाज़ उठा रही है, जो जल, जंगल औऱ ज़मीन को बचाने में लगे हैं। क्या फिक्की, सीआईआई और आरएसएस एनजीओ नहीं हैं? क्या कई सारे नेता एनजीओ नहीं चलाते?’ दत्ता पूछते हैं। वह कहते हैं, '99 फीसदी एनजीओ के पास विदेशी फंडिंग नहीं हैं और जिनके पास विदेशी पैसा आ रहा है वह बहुत कम है। उसके बावजूद सरकार किसी भी आवाज़ को दबाने में लगी है। विदेशी कंपनियां बाहर से आकर अगर माइनिंग कर सकती हैं तो फिर विदेशी पैसे से हम अपने जंगलों को बचाने में मदद क्यों नहीं ले सकते।'
जेटली कहते हैं, 'देश में कितने एनजीओ हैं किसी को पता नहीं। कोई डेढ़ करोड़ कह देता है और कोई ढाई करोड़ और जब आप सच्चाई का पता लगाओ को कुछ और ही पता चलता है। एनजीओ को रेग्युलेट न करने की वजह से चाहे जो कॉरपोरेट अस्पताल हैं, चाहे वो बड़े स्कूल हों या फिर क्लब, सब एनजीओ में आ गए हैं। इसलिए हम कहते हैं कि एनजीओ के कानून पुराने हो चुके हैं औऱ हमने सरकार को कई बार लिखा है, लेकिन कुछ होता नहीं है।'
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