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This Article is From Dec 09, 2016

फिल्म रिव्यू : 'बेफिक्रे' में नहीं नयापन! रणवीर सिंह और वाणी कपूर आ सकते हैं युवाओं को पसंद

फिल्म रिव्यू : 'बेफिक्रे' में नहीं नयापन! रणवीर सिंह और वाणी कपूर आ सकते हैं युवाओं को पसंद
फिल्म 'बेफिक्रे' का पोस्टर
मुंबई: इस फिल्मी फ्राइडे रिलीज हुई है आदित्य चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म 'बेफिक्रे' और इस फिल्म में रणवीर सिंह और वाणी कपूर मुख्य भूमिकाओं में हैं. इस फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले भी आदित्य चोपड़ा ने ही लिखे हैं. फिल्म की कहानी की बात करें तो इसमें धरम यानी रणवीर सिंह काम की तलाश में दिल्ली से पेरिस पहुंचते हैं और वहां उनकी मुलाकात श्रेया यानी वाणी से होती है और ये दोनों निर्णय लेते हैं कि ये एक दूसरे के साथ इश्क में नहीं पड़ेंगे और अच्छे दोस्त की तरह रहेंगे, लेकिन फिल्म के क्लाइमेक्स तक जाते-जाते क्या होता है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है.

अब बात करते हैं फिल्म की खूबियों और खामियों की. सबसे पहले खामियां. 'बेफिक्रे' की कहानी और इसका खाका बहुत हद तक वैसा है जो आप 'तमाशा', 'ये जवानी है दीवानी', 'कॉकटेल' और 'लव आजकल' जैसी फिल्मों में देख चुके हैं. यानी आजकल के युवाओं की उलझनें और रिश्तों में खुलेपन की कहानी जिसमें कोई नयापन नजर नहीं आता, क्योंकि ये दर्शकों को बहुत बार परोसा जा चुका है. ये फिल्म कई बार फ्लैशबैक में आगे-पीछे जाती है. उसके अलावा दूसरे भाग के कुछ गाने फिल्म पर ब्रेक लगाते हैं, जिससे दर्शकों में बेचैनी बढ़ सकती है.

फिल्म में कई जगह कॉमेडी शो के स्टेज पर रणवीर के मोनोलॉग्स हैं जो फिल्म के मिजाज के साथ नहीं जाते. वहीं, मुझे लगता है कि वाणी को बतौर अभिनेत्री अपनी भाषा पर मेहनत करने की जरूरत है. इन खामियों के बीच फिल्म में कई खूबियां भी हैं. रणवीर सिंह ऊर्जा से भरपूर अपनी एक्टिंग से आपकी रूचि बनाए रखेंगे. वो सीन या गाने जो फिल्म को सिर्फ लंबा कर रहे हैं, उन्हें भी रणवीर सिंह के अभिनय की वजह से पर्दे से बिना नजर हटाए दर्शक देख सकेंगे. ये कहानी शायद मुझ जैसे कइयों को पसंद न आए, पर मुझे लगता है कि आज कल की युवा पीढ़ी इसे पसंद करे और फिल्म के कई लम्हों से इत्तेफाक रखे.

फिल्म के दो गाने 'नशे सी चढ़ गई' और टाइटल ट्रैक 'बेफिक्रे' पहले से हिट हैं. 'लबों का कारोबार' गाना भी अच्छा है पर उसका फिल्मांकन किसी और तरह से होता तो बेहतर था. आज के शहरी समाज में युवा के रिश्तों को हम अलग-अलग चश्मे से देखते हैं. कभी हम इन्हें अपरिपक्व मानते हैं या बचपना कहते हैं. एक तबका कहता है कि ये बदलते रिश्ते की मांग है, परिपक्वता है. तो फिल्म देखते वक्त आपको आजकल के रिश्तों के रंग भी देखने मिलेंगे और नजरिया भी, पर अंत परंपरागत.

ऊपर जिन फिल्मों का जिक्र किया है उनसे आगे कहीं ये फिल्म नहीं ले जाती घूम-फिर कर वहीं खड़ी हो जाती है, जो हमारे सिनेमा की रिवायत सी रही है, पर हो सकता है इन सब के बावजूद युवाओं को फिल्म अच्छी लगे और उन्हें देखते हुए मेरी ओर से फिल्म को 2.5 स्टार्स.

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