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This Article is From Feb 17, 2017

भारत रंग महोत्सव : अक्करमाशी, दलित शोषण के चरम को उघाड़ती नाट्य प्रस्तुति

भारत रंग महोत्सव : अक्करमाशी, दलित शोषण के चरम को उघाड़ती नाट्य प्रस्तुति
भारत रंग महोत्सव में प्रस्तुत नाटक अक्करमाशी का एक दृश्य.
नई दिल्ली: जब भी जाति का प्रश्न आता है तो कुछ लोग इसको सिरे से नकारने के लिए खड़े हो जाते हैं. वैसे शहरों में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्होंने जाति का अनुभव उस तरह से नहीं किया, लेकिन इनकी संख्या नगण्य है. जाति और इससे जुड़ी घटनाओं की सच्चाई से इनकार करना वैसा ही है जैसे घर के पीछे की तरफ नाला है तो खिड़की को ही बंद कर लेना. जबकि बजबजाता हुआ नाला बदस्तूर बहता रहता है. इस बजबजाहट की सबसे कारुणिक और रोष भरी अभिव्यक्तियां हमें उन आत्मकथाओं में मिलती हैं जिन्हें जातिगत व्यवस्था में हाशिये पर धकेल दिए गए लोगों ने इसकी भीषणता का सामना करते हुए दर्ज किया है. इसे हम दलित साहित्य के नाम से जानते हैं.

भारत रंग महोत्सव में पटना की रागा संस्था के अभिनेताओं ने अपने ऊर्जावान और संवेदनशील अभिनय से मंच पर भारतीय सामाजिक जीवन की ऐसी गाथा पेश की जो अविश्वसनीय सी लग सकती है लेकिन उसका यथार्थ भोग चुके लोग हमारे बीच ही होते हैं. इन अभिनेताओं ने दलितों के जीवन, उत्पीड़न के साथ-साथ उनके साहस और आकांक्षाओं को भी दर्शकों के सामने रखा. मंच पर वर्षों की दबी हुई चुप्पी कई बार चीख में भी बदली लेकिन हमें स्वीकारना होगा कि कुछ सच्चाईयों को जोर से ही कहना पड़ता है.

दलितों की पीड़ा और शोषण का आख्यान एकहरा नहीं है इसकी कई परते हैं. दलितों के भीतर भी श्रेणियां हैं. कई तो ऐसी हैं कि इस जाति व्यवस्था से ही बाहर हैं. उनके शोषण के अलग आयाम हैं. रणधीर निर्देशित रंग प्रस्तुति ‘आउटकास्ट’ उत्पीड़न के सामाजिक सत्य की कई परतों को  शरण कुमार लिंबाले की चर्चित आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ के जरिए उघाड़कर दर्शकों के सामने पेश करता है. ‘अक्करमाशी’ में लिम्बाले के जीवन के कई प्रसंगों का विस्तार से वर्णन है जहां वे जाति व्यवस्था को झेलते हैं. वे बार-बार पूछते हैं कि इस व्यवस्था में उनकी जगह कहां है? वे कौन हैं?

अक्करमाशी एक जारज संतान के संघर्ष की सच्ची कथा है. अक्करमाशी यानि उसे अपने पिता के बारे ठीक-ठीक नहीं पता. अब चूंकि पिता नहीं है तो उपनाम नहीं है और जाति  नहीं है. इससे जूझते हुए सबसे दयनीय स्थिति लिंबाले की मां की है, जिसे बालक लिंबाले अपनी आंखों से देखता भी है और पूछता है ‘किसी ने अपनी मां को भी सम्भोग करते हुए देखा है क्या?'  यहां पहचान की समस्या कई स्तरों पर है. अक्करमाशी, महार जैसी दलित जाति से भी सामाजिक हायरार्की में नीचे हैं. इन्हें न पानी पीने का हक है न प्रेम करने का. कठिन संघर्ष से शिक्षा और आरक्षण से नौकरी हासिल करने के बाद भी इन्हें सामान्य नागरिक के हक हासिल नहीं हो पाते. नौकरी करते हुए भी लिंबाले को श्मशान में रहने पड़ता है. वे बताते हैं कि असल लड़ाई समाज में सम्मानजनक जगह पाने की है. आजादी के बाद भारतीय संविधान से इन्हें आरक्षण और कुछ अन्य अधिकार मिले लेकिन सम्मानजनक जगह आज तक नहीं मिली. और आज आरक्षण और दलितों को सरंक्षित करने वाले कानून के विरोध में महाराष्ट्र में ही आंदोलन शुरू हो गया है. प्रस्तुति आरक्षण के संदर्भ में मजबूती से अपना पक्ष रखती है. प्रस्तुति में अभिनेता कहते हैं 'आरक्षण खत्म करो लेकिन पहले हमारे जैसा जीवन जीकर तो दिखाओ.'  
 
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कहानी को रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए आख्यान को कई स्तर दिए गए हैं. एक पर कथानक चलता है जिसे बारी-बारी से सभी पात्र कहते हैं. कहानी कहते हुए उनकी गतिविधियों से उनके उत्पीड़न का प्रसंग भी मंच पर घटित होता रहता है. संगीत से और अभिनेताओ की गतियों से कथा की संवेदना को और गाढ़ा किया गया है. मराठी के साथ-साथ, भोजपुरी के लोकगीतों का अच्छा इस्तेमाल किया गया है. वीडियो के सहारे प्रस्तुति को ऐतिहासिक और सामयिक परिप्रेक्ष्य दिया गया है. इन दृश्यों में दलितों की उत्पत्ति की ब्राह्मणवादी व्याख्या है. जेएनयू की छात्रा का बयान है, जिसे इस संस्थान में भी जातिगत पहचान को झेलना पड़ा है और बाबा साहब आम्बेडकर का भाषण है. वीडियो दृश्यों के जरिए कुछ और भी समसामायिक घटनाएं जोड़ी जा सकती थीं.

लेखक दलित और प्रस्तुति के निर्देशक सवर्ण हैं, तो यह भी जिज्ञासा थी कि क्या जातिगत पहचान का कोई भी अंश ऐसा आता है जिसमें सवर्ण पहचान मुखर है? लेकिन निर्देशकों ने पूरी तरह अपनी प्रतिबद्धता दलित संघर्ष और कथ्य के साथ बनाए रखी है. प्रस्तुति के दौरान मौजूद लिंबाले भी इसकी सराहना करते हैं. आज जब दलित ही दलित की बात करेंगे वाला मुद्दा जेरे बहस है तो इस प्रस्तुति को देखना चाहिए कि मुक्ति का एक साझा लक्ष्य भी है जिसे वर्ण और वर्ग के विभेद को तोड़कर ही पाया जा सकता है. यह जरूर है कि इसमें उनको सबसे अधिक त्याग करना होगा जिनके कारण यह व्यवस्था है.

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