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This Article is From Jan 21, 2017

बजट पर सबसे कम ध्यान रहा इस साल - भाग एक

Sudhir Jain
  • बजट ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 21, 2017 19:13 pm IST
    • Published On जनवरी 21, 2017 18:39 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 21, 2017 19:13 pm IST
आमतौर पर देश के सालाना बजट पर सोचने विचारने का काम डेढ़ दो महीने पहले से शुरू हो जाता था. लेकिन इस साल नोटबंदी ने देश को इस कदर उलझाए रखा कि यह काम रह ही गया. वैसे नवंबर के दूसरे हफ्ते में नोटबंदी करते समय सरकार के सामने इस साल का बजट ही रहा होगा. सबको पता है कि पिछले साल बजट बनाने में सरकार कितनी मुश्किल में पड़ गई थी. उस समय सरकार के कार्यकाल को दो साल पूरे होने जा रहे थे और तब तक हो कुछ भी नहीं पाया था. पिछले साल तक सरकार अपने वायदों और अनगिनत ऐलानों के कारण लगभग बदहवासी की हालत में थी. उसके बाद सन 2016-17 का यह वही वित्तीय वर्ष है जिसके मई महीने में सूखे से छह लाख करोड़ के नुकसान का आकलन एसोचैम ने किया था. यह वही साल है जब सूखे से मची तबाही के बाद हर महीने एक लाख करोड़ रुपये की राहत देने की सिफारिश हुई थी. लेकिन धन की कमी के कारण कुछ भी नहीं हो पाया था.

क्या-क्या रह गया था पिछले बजट में
पिछले वित्तीय वर्ष में किसानों की बदहाली और बढ़ती बेरोजगारी को छुपाने के लिए सरकार को कोई बहाना तक नहीं मिल रहा था. खुशफहमी के ताबड़तोड़ प्रचार के जरिए जैसे तैसे बजट की रस्म पूरी हो पाई थी. यानी पिछले बजट में रह गए जरूरी कामों को सन 2017-18 के बजट के लिए छोड़ा गया था. इसी वित्तीय वर्ष में वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होनी थी. कुछ ही सिफारिशें लागू करने के बावजूद सरकारी कर्मचारियों की तनखाह बढ़ाने पर एक लाख करोड़ का खर्चा इसी साल से बढ़ा है. जबकि किसान पहले से ही बहुत परेशान थे. उन्हें अपने कर्ज माफ होने की उम्मीद थी. लेकिन इस काम पर खर्च के लिए एक लाख करोड़ का इंतजाम सरकार नहीं कर पाई थी. गांव और किसानों के लिए हर साल होने वाली चालू योजनाओं को ही नए प्रावधान की तरह दिखा दिया गया था.

पूरा का पूरा छूट गया था बेरोजगारी पर काम
पिछले बजट के पहले देश में बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ने लगी थी. उसे काबू में करने के लिए रोजगार के मौके बढ़ाना जरूरी था. यानी नए काम धंधे शुरू करवाना जरूरी था. हालांकि इसी काम के लिए मेक इन इंडिया की बातें चलवाई गई थीं. लेकिन पिछले साल का बजट पेश होने तक मेक इन इंडिया सिरे नहीं चढ़ पाया था. अपने ही जरियों से बेरोजगारी मिटाने के लिए कम से कम पांच लाख करोड़ के खर्चे की दरकार थी. इतनी रकम कहीं से भी नहीं निकल पाई. हालांकि बेरोजगारों को एक बार फिर दिलासा देने के लिए स्टार्ट अप की बातें कर दी गई थीं. इस काम के लिए भी एकमुश्त कम से कम एक लाख करोड़ की जरूरत थी. सो पिछले साल वह काम भी रह गया था. सिर्फ दस हजार करोड़ का ही ऐलान किया गया था. वह भी चार साल में विभाजित कर दिया गया. यानी कम से कम पांच करोड़ पूर्ण बेरोजगार युवकों को रोजगार के मौके देने के लिए एक साल में ढाई हजार करोड़ से होना जाना ही क्या था. सो गुजरे साल में कुछ भी होता नहीं दिख पाया.

अचानक कैसे और बढ़ी बेरोजगारी
दरअसल इस सरकार के ढाई साल निकलने के वक्त अपने ढेरों पुराने वायदे सरकार के गले पड़े हुए हैं. ऊपर से इस साल के बजट का समय आते आते बेरोजगारों की फौज दो करोड़ और बढ़ गई है. इस तरह पहले से पांच करोड़ पूरी तौर पर बेरोजगारों की संख्या बढ़कर सात करोड़ हो चुकी है. गांवों में रोजगार के लिए मनरेगा से भी इस साल कोई राहत होती हुई नहीं दिखी. क्योंकि पिछले बजट में मनरेगा की रकम जरूरत के मुताबिक दुगनी करने की दरकार थी. लेकिन उसे बड़ी मुश्किल से पहले की तरह उतनी ही रखा गया था. बहरहाल इस साल के बजट में सात करोड़ बेरोजगारों के लिए काम धंधों का इंतजाम करने के लिए कम से कम तीन से चार लाख करोड़ रुपये का फौरी इंतजाम करने की जरूरत पड़ेगी. गांव में बेरोजगारी की हालत को काबू दिखाना हो तो मनरेगा की रकम तीन गुनी बढ़ाकर कम से कम सवा लाख करोड़ करनी पड़ेगी. फौरी तौर पर कम से कम ढाई तीन लाख करोड रुपये शहरी बेरोजगारी से निपटने में खर्च होंगे.

किसानों की हालत और बुरी
पिछले साल किसान सिंचाई के पानी की कमी से बदहाल थे. लेकिन पिछले बजट के फौरन बाद सरकारी प्रचार से अच्छी बारिश के अनुमान का प्रचार करवाया गया था. लेकिन पता चला कि बारिश सामान्य से भी कम हुई. मीडिया की लापरवाही के कारण इसकी चर्चा हो नहीं पाई कि सरकारी अनुमान सामान्य से नौ फीसद ज्यादा बारिश का बैठाया गया था लेकिन बारिश सामान्य से पांच फीसद कम हुई. देश में औसत से कम बारिश के बावजूद कई जगह बाढ़ ने किसानों का नुकसान कर दिया. वास्तविक स्थिति का आकलन करें तो किसान इस साल भी उसी हालत में हैं. बल्कि नोटबंदी की मार ने उन्हें और बदतर हालत में ला दिया है.

छोटे उद्योग पहले से ही भूखे प्यासे बैठे हैं
इस वर्ग के लोग पिछले बजट में बहुत मायूस हुए थे. इस साल ये लोग अपने काम धंधे में सरकारी सहूलियत बढ़ने का इंतजार करते रहे. सहूलियतें तो दूर दो महीने पहले नोटबंदी ने उनकी कमर तोड़ कर रख दी. दो महीनों में देश की अर्थव्यवस्था को कितने लाख करोड़ का नुकसान हुआ इसका तो अभी हिसाब तक नहीं लगा. फिर भी गैर सरकारी अनुमान है कि चार से पांच लाख करोड़ का नुकसान अब तक हो चुका है. वैश्विक मंदी की मार पहले से ही थी. मौजूदा हालात बता रहे हैं कि अगर इस बजट में छोटे और मझोले उद्योग व्यापारों लिए अलग से कुछ नहीं सोचा गया तो उनका काम काज पटरी पर आना लगभग नामुमकिन है. यानी बेरोजगार युवाओं और बदहाल किसानों के बाद छोटे उद्योगों और व्यापारों को बचाने पर ही सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत पड़ेगी.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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