हम सोचते हैं कि मुल्क के बीच का हिस्सा सबसे सुरक्षित है। यहां पर दुश्मनों की पहुंच सबसे दुर्गम है। कोई हमें मार नहीं सकता है! विडंबना देखिए कि भले ही दुश्मन की गोली यहां तक सीधे-सीधे नहीं पहुंच रही, लेकिन अपनी ही परिस्थितियां यहां जानलेवा साबित हो रही हैं। खासकर शिशुओं के लिए यह इलाका सबसे बड़ी कब्रगाह साबित हो रहा है। यहां पर परिस्थितियां उन मुल्कों से भी बदतर हैं, जिन्हें हम दुनिया में स्वास्थ्य मानकों पर सबसे बुरा मानते हैं, मसलन इथोपिया, चाड आदि।
सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) के बुधवार को आए साल 2014 के आंकड़े फिर हमारी व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। इनमें सबसे हैरान करने वाली बात तो यह है कि इसके टॉप पर देश का हृदय स्थल कहे जाने वाला मध्य प्रदेश है। टॉप पांच राज्यों में उत्तरप्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़ शामिल हैं। केवल एक राज्य असम ही है, जिसे हम हाशिये का प्रदेश कहते हैं।
सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के आंकड़ों ने एक बार फिर बच्चों से संबंधित योजनाओं पर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह सर्वेक्षण खुद भारत सरकार का रजिस्ट्रार कार्यालय वर्ष 1969-70 से करवाता है। हर साल जारी होने वाल इसके आंकड़े मुख्यत: भारत में जन्म और मृत्यु की स्थितियों को दर्शाते हैं।
2014 के सर्वे बुलेटिन के मुताबिक साल 2014 में शिशु मृत्यु दर में मध्य प्रदेश फिर से शीर्ष पर आ गया है। यहां पर तमाम कोशिशों के बावजूद हर हजार जीवित जन्म पर एक साल तक के 52 शिशु मौत का शिकार हो रहे हैं। एक साल पहले जब 2013 की रिपोर्ट आई थी, उसमें असम और मध्य प्रदेश की स्थिति एक जैसी ही थी। दोनों ही राज्यों में हर हजार जीवित शिशुओं में से 54 शिशु अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना पा रहे थे। आश्चर्यजनक रूप से असम ने एक साल में अपनी शिशु मृत्यु दर में पांच बिंदुओं का सुधार करते हुए 49 तक ले आया है, जबकि मध्य प्रदेश में यह दर केवल 2 अंकों तक ही कम हो सकी। सिंहस्थ जैसी आयोजनों के जरिए पूरी दुनिया में डंका बजवाने वाली 'मामा की सरकार' में लाडले-लाडलियों की हालत आखिर ऐसी क्यों? क्या कारण है कि ऐसे महाआयोजनों में तो सरकार पूरी तत्परता दिखाती है, लेकिन बच्चों की मौतों का, कुपोषण जैसे हालात होने का कलंक उन्हें अपने माथे पर दिखाई नहीं देता है? आखिर क्या कारण है कि राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी बच्चों के मामलों में इतने फिसड्डी साबित हो रहे हैं?
क्या बच्चों के सवाल राजनीति के केंद्र में नहीं हैं, या फिर उन समस्याओं को दूर करने की इच्छाशक्ति ही नहीं है। इच्छाशक्ति होती तो इन आंकड़ों पर हमें हैरानी होती, अफसोस होता। हमारे देश के कम बोलने वाले पूर्व प्रधानमंत्री ने एक बार देश में बच्चों के कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म का विषय करार दिया था, लेकिन अबके प्रधानमंत्री के मन में तो यह बात आती भी नहीं कि आखिर हम जापान जैसी बुलेट ट्रेन का सपना तो संजो लेते हैं, लेकिन यह नहीं देखते कि जापान की शिशु मृत्यु दर भी केवल 2 है। जी हां, वहां हर 1000 शिशुओं में से 998 शिशु जीवित रहते हैं। जापान तो दूर भी चले गए, अपने बाजू में बसा बांग्लादेश ही 35 शिशु मृत्यु दर के साथ हमें ठेंगा दिखाता है, कि देखिए कुछ तो शर्म कीजिए!
सवाल यह है कि शिशु मरते क्यों हैं? परिवार मारता है, समाज मारता है, व्यवस्था मारती है, राजनीति मारती है या वह खुद ही मर जाते हैं? जवाब सभी को खोजना होगा। जीना हर बच्चे का हर शिशु का अधिकार है, कोई भी मौत उसके नैसर्गिक अधिकार का हनन है। लेकिन जब व्यवस्था की सड़ांध में हम बच्चों को किसी और के भरोसे छोड़ देते हैं तो इसके लिए पूरा समाज ही दोषी बन जाता है। यह एक दुष्चक्र है, जो केवल एक किसी कारण के ओर-छोर से नहीं जुड़ता। यह गर्भावस्था से लेकर शिशु के पूरे जीवन चक्र के एक-एक पक्ष से जाकर जुड़ता है। इसकी बुनियाद तो एक स्त्री के जीवन से ही शुरू हो जाती है, कमाबेश हमारा समाज ही स्त्रियों को इस तरह से तैयार नहीं करता कि वह एक बेहतर भविष्य की नींव रख सके। यह केवल सरकार का ही तो मसला नहीं है, देखने में तो यही आता है कि समाज भी इस भयावह अवस्था को सहजता से स्वीकार कर लेता है! यह स्वीकार्यता नियति में तब्दील हो जाती है।
भारत सरकार के हेल्थ मैनेजमेंट इंफोर्मेशन सिस्टम 2013-14 के मुताबिक मध्य प्रदेश में बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजह सेप्सिस, एसपेक्सिया और जन्म के समय उनका कम वजन होना है। पूरे देश में यही तीन कारण शिशुओं की मौत की सबसे बड़ी वजह बने हुए हैं। 20 प्रतिशत बच्चों की मौत जन्म के 24 घंटे से लेकर एक सप्ताह की अवधि में कम वजन होने की वजह से हो जाती है। 1 माह से लेकर 11 महीने तक की अवस्था में 19 प्रतिशत बच्चों की मौत का कारण निमोनिया, डायरिया, मीजल्स से संबंधित बुखार बनता है। यह पूरा मसला समाज के पोषण से भी जुड़ा है, जिस देश में लोगों की खाद्य सुरक्षा ही इतनी अनिश्चित और असंतुलित हो, वहां ऐसे कलंक तो होना ही है। इन कारणों का ही विश्लेषण कर लीजिए, साफ समझ आता है कि शिशुओं की इतनी बड़ी मौत के गुनाहगार तो सभी हैं।
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Jun 16, 2016
क्या इस राष्ट्रीय शर्म पर हम कभी शर्मिंदा होंगे?
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:जून 16, 2016 15:13 pm IST
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Published On जून 16, 2016 00:25 am IST
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Last Updated On जून 16, 2016 15:13 pm IST
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