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रूस से तेल खरीदने पर भारत से सौतेला व्यवहार क्यों कर रहे हैं डोनाल्ड ट्रंप?

डॉ. समीर शेखर
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 08, 2025 18:21 pm IST
    • Published On अगस्त 08, 2025 18:16 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 08, 2025 18:21 pm IST
रूस से तेल खरीदने पर भारत से सौतेला व्यवहार क्यों कर रहे हैं डोनाल्ड ट्रंप?

21वीं सदी की वैश्विक राजनीति में ऊर्जा एक निर्णायक कारक बन चुकी है. तेल और गैस के भंडार, उत्पादन और व्यापार ने न केवल वैश्विक बाजार को प्रभावित किया है, बल्कि देशों के कूटनीतिक संबंधों को भी नया आकार दिया है. इस परिप्रेक्ष्य में भारत का रूस से तेल खरीद का निर्णय न केवल आर्थिक, बल्कि कूटनीतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया है. अमेरिका की इस मामले में प्रतिक्रिया और उसके पक्षपातपूर्ण रवैये ने भारत-अमेरिका संबंधों में असहजता पैदा कर दी है. तेल और पेट्रोलियम पदार्थों का व्यापार न केवल आर्थिक बल्कि भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है. वर्तमान समय में, जब अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अस्थिरताओं, युद्धों, प्रतिबंधों और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से जूझ रही है, ऊर्जा की आपूर्ति और व्यापार की रणनीति राष्ट्रों की कूटनीति का प्रमुख हिस्सा बन चुकी है. भारत, दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश है, वह अपनी कुल ऊर्जा जरूरतों का करीब 85 फीसदी तेल आयात के माध्यम से पूरा करता है. इस परिदृश्य में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि भारत की वैश्विक तेल बाजार में क्या भूमिका है, वह रूस से तेल क्यों खरीद रहा है, इस पर अमेरिका का क्या दृष्टिकोण है.इस पूरी परिस्थिति का वैश्विक तेल व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ सकता है.

तेल व्यापार में भारत की वर्तमान स्थिति

तेल खपत और आयात पर निर्भरता के संबंध में बात करें तो चीन और अमेरिका के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता है. भारत प्रतिदिन करीब पांच मिलियन बैरल तेल की खपत करता है. इसमें से केवल 15-20 फीसदी घरेलू उत्पादन से आता है, जबकि शेष 80-85 फीसदी आयात पर निर्भर करता है. तेल आपूर्ति के प्रमुख स्रोत की बात की जाए तो पारंपरिक रूप से भारत तेल के लिए पश्चिम एशिया (सउदी अरब, इराक, ईरान, यूएई) पर निर्भर रहा है. हाल के सालों में भारत ने रूस, अमेरिका, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की ओर अपने आपूर्ति स्रोतों का विस्तार किया है. 

भारत की रिफाइनिंग क्षमता और निर्यात

भारत में विश्व की कुछ सबसे बड़ी तेल रिफाइनिंग कंपनियां हैं (जैसे: रिलायंस, IOC). भारत न केवल कच्चे तेल का आयात करता है, बल्कि परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात भी करता है. भारत प्रतिवर्ष 230-240 मिलियन टन कच्चा तेल आयात करता है. यहां ध्यान देने योग्य बात है कि रूस 2022 से पहले भारत का प्रमुख आपूर्तिकर्ता नहीं था. ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत के शीर्ष तेल आपूर्तिकर्ताओं में इराक, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और नाइजीरिया शामिल थे. इन आपूर्तिकर्ताओं को उनकी भौगोलिक निकटता, दीर्घकालिक अनुबंधों और रसद संबंधी सुगमता के कारण प्राथमिकता दी गई थी. रूस, जो एक ऊर्जा महाशक्ति है, उच्च माल ढुलाई लागत और कनेक्टिविटी की कमी के कारण 2022 से पहले भारत का प्रमुख आपूर्तिकर्ता नहीं था, चूकि भारत के तेल आयात में दो फीसदी से भी कम कि हिस्सेदारी रखता था. लेकिन यूक्रेन युद्ध के बाद, जब पश्चिमी देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाए, तब रूस ने भारत को भारी छूट पर तेल देना शुरू किया. इस छूट ने भारत को वैश्विक बाजार में सस्ता और स्थिर ऊर्जा स्रोत प्रदान किया. इसके बाद से भारत को तेल निर्यात करने वाले देशों की हिस्सेदारी और समीकरण बदल गए जिसका प्रमाण ये आकड़े देते हैं, जो बताते हैं कि भारत वर्तमान में सर्वाधिक 33 फीसदी तेल का आयात रूस से करता है. भारत इसके अलावा इराक (18 फीसदी), सऊदी अरब (16 फीसदी), संयुक्त अरब अमिरात (आठ फीसदी) और अमेरिका (छह फीसदी) से तेल का आयात करता है.

जिस समय डोनाल्ड ट्रंप भारत पर टैरिफ बम फोड़ रहे थे, ठीक उसी समय भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल रूस की यात्रा पर थे.

जिस समय डोनाल्ड ट्रंप भारत पर टैरिफ बम फोड़ रहे थे, ठीक उसी समय भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल रूस की यात्रा पर थे.

भारत ने रूस से क्यों खरीदा तेल 

फरवरी 2022 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तो पश्चिमी देशों (विशेषकर अमेरिका और यूरोपीय संघ) ने रूस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए, जिसमें तेल और गैस का आयात बंद करना भी शामिल था. इससे वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति प्रणाली पर दबाव बढ़ गया था. प्रतिबंधों के चलते रूस को अपने तेल को वैकल्पिक बाजारों में बेचना पड़ा. भारत और चीन जैसे देशों को रूस ने भारी छूट (20-30 फीसदी तक) पर तेल बेचना शुरू किया. भारत ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी ऊर्जा सुरक्षा और विदेशी मुद्रा भंडार की रक्षा हेतु रूस से तेल आयात बढ़ा दिया. रूसी तेल पर छूट ने  भारत को तेल आयात को बनाये रखने का एक अवसर दिया.रूसी तेल पर पश्चिम के दृष्टिकोण पर गौर करें, वे रूस से तेल आयात प्रतिबंध के पक्ष में तो थे लेकिन ऊर्जा की आवश्यकता की वजह से वो आंशिक रूप से ही इस विचार पर अमल कर पाए, हालांकि वे भारत जैसे देशों को छूट प्रदान करने के पक्ष में दिखाई दिए थे. जब अमेरिका ने रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, तो तेल की वैश्विक कीमतें बढ़ने लगीं. इस स्थिति में अगर रूस का तेल बिल्कुल बाज़ार से गायब हो जाता, तो वैश्विक तेल की कीमतें नियंत्रण से बाहर चली जातीं, इससे अमेरिका, यूरोप और अन्य अर्थव्यवस्थाओं को गंभीर आर्थिक नुकसान हो सकता था. इसलिए अमेरिका ने 'प्राइस कैप कोलिशन' के तहत यह रणनीति अपनाई कि रूसी तेल बाजार में बना रहे, लेकिन वह सीमित मूल्य (प्राइस कैप) पर ही बेचा जाए, इससे रूस की आमदनी कम होगी, लेकिन वैश्विक आपूर्ति बाधित नहीं होगी. प्राइस कैप कोलिशन विमर्श के तहत भारत ने रूसी तेल को उस प्राइस कैप या उससे कम कीमत पर खरीदा जो अमेरिका की यह रणनीति के अनुरूप ही थी. अमेरिका ने इसे मौन समर्थन ही नहीं, बल्कि परोक्ष प्रोत्साहन भी दिया. और अब जब अमेरिका भारत की नैतिक या राजनीतिक आलोचना कर रहा है, तो भारतीय विदेश मंत्रालय गार्सटी, जो भारत में अमेरिका के पिछले राजदूत थे उनका दस्तावेजी और आधिकारिक बयान लेकर सामने आया है. इसमें उन्होंने कहा था कि भारत ने रूस से तेल खरीदा है, क्योंकि अमेरिका स्वयं चाहता था कि कोई निश्चित मूल्य सीमा पर रूसी तेल खरीदे चूंकि अमेरिका स्वयं नहीं चाहता था कि तेल की कीमतें बढ़ें. यह स्पष्ट करता है कि भारत ने विश्व समुदाय के विपक्ष में खड़े होने वाला कोई कार्य नहीं किया, बल्कि एक संतुलित और बुद्धिमत्तापूर्ण ऊर्जा कूटनीति का पालन किया. भारत ने रूस से तेल खरीद कर अपनी ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित की, जो कहीं न कहीं वैश्विक ऊर्जा (तेल) मूल्य स्थिरता में महत्वपूर्ण योगदान के रूप में  देखा जा सकता है.

रूसी तेल का एशिया की ओर पुन: मार्गीकरण (री-रूटिंग) होने से यूरोप में तेल की कीमतें बढ़ीं, वहीं रूस से प्राप्त आपूर्ति के कारण भारत और चीन को सस्ता तेल उपलब्ध होने लगा. यह कई कारणों से आतंरिक अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मजबूती प्रदान करेगा. इससे तेल और पेट्रोलियम आपूर्तिकर्ता देशों का समूह OPEC पर आपूर्ति रणनीति पर दबाव पड़ा है कि वे अपने मूल्य निर्धारण और अंतरराष्ट्रीय बाजार में आपूर्ति रणनीति पर फिर से विचार करें. भविष्य में यदि रूस पर प्रतिबंध जारी रहते हैं, तो भारत-रूस के बीच दीर्घकालिक ऊर्जा साझेदारी और मजबूत हो सकती है. भारत इसके बदले में रक्षा, फर्टिलाइज़र और व्यापार संबंधों में लाभ पा सकता है. वहीं पश्चिमी देशों की ऊर्जा रणनीति अस्थिर नजर आती है, चूंकि यूरोप अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए वैकल्पिक स्रोतों (जैसे अमेरिकी LNG) पर निर्भर हो गया है, जो महंगा है और दीर्घकालिक रूप से टिकाऊ नहीं है. इससे यूरोप की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ सकता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत द्वारा रूस से तेल खरीदे जाने को लेकर नाराज हैं. इसी नाराजगी में वो टैरिफ बढ़ा रहे हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत द्वारा रूस से तेल खरीदे जाने को लेकर नाराज हैं. इसी नाराजगी में वो टैरिफ बढ़ा रहे हैं.

भारत और यूरोप के लिए डोनाल्ड ट्रंप का दोहरा रवैया

रूस से भारत की तेल खरीद पर ट्रंप का रुख अक्सर नकारात्मक और आलोचनात्मक रहा है, जबकि यूरोप की रूस-निर्भरता पर उन्होंने कोई खास आपत्ति नहीं जताई है. यह स्थिति अमेरिकी नीतियों में स्पष्ट पक्षपात और दोहरे मानकों को उजागर करती है. खासकर जर्मनी को रूस से गैस खरीद (नॉर्ड स्ट्रीम 2) पर कुछ कूटनीतिक विरोध जरूर जताया था, लेकिन व्यापारिक स्तर पर कोई कठोर कदम नहीं उठाए गए. हालांकि अमेरिका ने यूरोपीय देशों पर आरोप लगाया कि वे नाटो की सुरक्षा ढांचे का मुफ्त में लाभ उठा रहे हैं और जब रूस के खिलाफ ऊर्जा प्रतिबंध लगाने की बात आई, तब भी उन्होंने रूसी गैस पर निर्भरता के चलते कड़ा कदम नहीं उठाया. उन्होंने यूरोप की रूस-निर्भरता को लेकर कई बार 'नाटो फ्रीलॉडर्स' कहा, लेकिन गंभीर ऊर्जा प्रतिबंध नहीं लगाए. वहीं ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में 2017 में CAATSA कानून के तहत भारत को चेतावनी दी थी. इसके बाद भारत ने रूस से S-400 रक्षा प्रणाली और फिर रियायती तेल खरीदने की योजना बनाई. CAATSA एक अमेरिकी कानून है जो अमेरिका के विरोधियों (खासकर रूस, ईरान, उत्तर कोरिया) पर प्रतिबंध लगाकर दबाव बनाता है. दूसरे कार्यकाल में भी ट्रंप ने भारत के प्रति यही नाराजगी दिखाई है कि जहां वह रूस को कूटनीतिक व रणनीतिक रूप से अलग-थलग करने का हरसंभव प्रयास कर रहा है, वहीं भारत रूस से तेल व रक्षा सौदे में कटौती क्यों नहीं कर रहा है. ट्रंप का रूस-भारत तेल व्यापार पर आक्रामक रुख और दोहरा मापदंड इस बात का संकेत है कि उनके नेतृत्व में अमेरिका कूटनीति से अधिक व्यापार पर केंद्रित रहेगा. परंतु भारत ने अब तक जो रणनीतिक स्वायत्तता दिखाई है, वह दर्शाती है कि वह किसी के दबाव में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय हितों और दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा को केंद्र में रखकर फैसले करता है. भारत ने रूस से सस्ते तेल की खरीद कर न केवल अपने आर्थिक हितों की रक्षा की, बल्कि वैश्विक मंच पर अपनी रणनीतिक स्वायत्तता भी प्रदर्शित की है. अमेरिका का दोहरा रवैया स्पष्ट करता है कि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा नीति कहीं न कहीं रणनीतिक और राजनीतिक हितों से संचालित होती है, न कि नैतिक सिद्धांतों से. भारत को आगे भी संतुलन साधते हुए एक ओर अमेरिका जैसे रणनीतिक साझेदारों से संबंध बनाए रखना होगा, वहीं दूसरी ओर रूस जैसे ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं के साथ व्यावहारिक और राष्ट्रीय हित आधारित सहयोग को भी बनाए रखना होगा. वैश्विक तेल बाजार पर मूल्य स्थिरता, आपूर्ति शृंखला के पुनर्गठन, और ऊर्जा भू-राजनीति के नए समीकरणों के रूप में इसका प्रभाव दीर्घकालिक होगा.

दुनिया भर में राजनीतिक और रणनीतिक उथल-पुथल में अमेरिका के बढ़ते हस्तक्षेप के बीच भारत की ऊर्जा नीति में संभावित बदलाव की मजबूत संभावनाएं नजर आती हैं. इसके तहत भारत के लिए ऊर्जा स्रोतों का बहुविकल्पीकरण (डायवर्सिफिकेशन) का विकल्प उपलब्ध है. भारत अब ईरान, वेनेजुएला जैसे प्रतिबंधित देशों के साथ भी तेल व्यापार को पुनर्जीवित करने की दिशा में सोचा जा सकता है, लेकिन यह भारत कि मजबूत विदेश नीति और संप्रभुत्तानिष्ठ निर्णय से ही संभव हो पाएगा.

अस्वीकरण: लेखक ओडिशा के भुबनेश्वर स्थित कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी में अंतरराष्ट्रीय व्यापार और विपणन पढ़ाते हैं.  इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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