दविंदर सिंह के साथ साठगांठ में और क़ौन-कौन?

जो अफसर आतंक के आरोप में जेल में है, वो निलंबित रहे या बर्खास्त हो क्या फर्क पड़ता है? चार दिनों से एजेंसियां डीएसपी दविंदर सिंह से पूछताछ कर रही हैं. बेशक लोग यह जानना चाहते होंगे कि इस अफसर का नेटवर्क क्या था, किसके इशारे पर यह आतंकियों को लेकर दिल्ली जा रहा था, पुलिस के भीतर इसके किन लोगों के साथ संपर्क थे?

दविंदर सिंह के साथ साठगांठ में और क़ौन-कौन?

जम्मू कश्मीर पुलिस ने अपने डीएसपी दविंदर सिंह को बर्खास्त करने की सिफारिश की है. कड़ी कार्रवाई के नाम पर यही ब्रेक्रिंग न्यूज़ है. इसके पहले कड़ी कार्रवाई यह हुई थी कि गिरफ्तार डीएसपी को निलंबित किया गया था. क्या आप इसी सूचना का इंतज़ार कर रहे थे या आतंकियों के साथ गिरफ्तार डीएसपी के बारे में आप कुछ और जानना चाहते हैं? जो अफसर आतंक के आरोप में जेल में है, वो निलंबित रहे या बर्खास्त हो क्या फर्क पड़ता है? चार दिनों से एजेंसियां डीएसपी दविंदर सिंह से पूछताछ कर रही हैं. बेशक लोग यह जानना चाहते होंगे कि इस अफसर का नेटवर्क क्या था, किसके इशारे पर यह आतंकियों को लेकर दिल्ली जा रहा था, पुलिस के भीतर इसके किन लोगों के साथ संपर्क थे? आप इन सवालों के जवाब जानना चाहते होंगे न कि कुर्की और निलंबन की. इसलिए जब आज जम्मू कश्मीर पुलिस के प्रमुख प्रेस के सामने आए तो उनके पास हर प्रमुख सवाल के यही जवाब थे कि जांच चल रही है. समय-समय पर जानकारी साझा की जाएगी. पुलिस का डीएसपी तीन आतंकियों को लेकर दिल्ली आ रहा था, इतनी गंभीर खबर की प्रेस कांफ्रेंस का बड़ा हिस्सा हम आपको सुनाना चाहते हैं.

यह सवाल कंपाने वाला है कि अगर दविंदर अपनी योजना में कामयाब होता और तीन आतंकी दिल्ली आकर किसी वारदात को अंजाम देते तो उसकी जगह पर किस बेगुनाह को उठाकर आतंकी की तरह मीडिया में पेश किया जाता. याद कीजिए ऐसे मामले में किस तरह आतंकवादी को हथियारों के साथ पेश कर दिया जाता है, जिनमें से कई बीस साल बाद सबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं. ख़बरें चुप्पी की चादर ओढ़ कर किसी तहखाने में बैठी हैं. डीएसपी दविंदर सिंह की खबर उनकी बर्खास्तगी और कुर्की की खबर नहीं है. क्या कोई है जो इस खबर को जल्दी तहखाने में दफ्न कर देना चाहता है? कुछ भी दावे से नहीं कह सकते. दिल्ली में चर्चा जरूर है कि क्या खुफिया तंत्र में कोई किसी को चुनौती दे रहा है, जिस कारण से दविंदर को पकड़ा गया है, अगर यह थ्योरी सही है तो फिर सवाल तीर की तरह अंधेरे में अपना निशाना ढूंढेंगे ही.

नागरिकता संशोधन कानून का भूगोल टीवी चैनलों में बहुत छोटा दिख रहा है. लेकिन अगर आप देश भर मे होने वाले प्रदर्शनों की जानकारी सर्च करेंगे तो पता चलेगा कि कोई ऐसा कोना नहीं है जहां हर दिन इस कानून का विरोध एक नया रंग ले लेता है. जब से यह कानून पास हुआ है, असम में प्रधानमंत्री का दो-दो बार दौरा रद्द हो गया है. मुख्यमंत्री सोनेवाल तो असम में ही हैं मगर बाहर निकलते ही उन्हें कई मौकों पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा है. आज मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनेवाल अपने गृह ज़िले डिब्रूगढ़ में थे. जैसे ही एयरपोर्ट से डिब्रूगढ़ शहर के लिए निकले ऑल असम स्टुडेंट यूनियन (आसू) के कार्यकर्ताओं ने काफिले को काला झंडा दिखाया. कार्यकर्ता सुरक्षा घेरे को तोड़ कर कार के करीब गए और काला कपड़ा दिखा दिया. शायद मुख्यमंत्री बिहू मनाने अपने पैतृक निवास जा रहे थे. इसके पहले भी एक बार आसू के कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री का रास्ता इस तरह से रोका था कि उन्हें हेलिकॉप्टर से जाना पड़ गया. पहली जनवरी को जब मुख्यमंत्री बारपेटा के सारथीबाड़ी की तरफ जा रहे थे तब उनके काफिले को नारेबाज़ी का सामना करना पड़ा. नलबाड़ी में भी आसू ने मुख्यमंत्री के खिलाफ प्रदर्शन किया. यहां तक कि गुवाहाटी में बिहू के मौके पर भी बुज़ुर्ग घरों से निकले हैं और नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में नारेबाज़ी की है. कई जगहों पर मेजूस यानी अलाव में नागरिकता संशोधन कानून की प्रतियों को जलाया गया है.

असम मे जब नागरिकता रजिस्टर का काम शुरू हुआ तो बड़ी संख्या में डेटा ऑपरेटर ठेके पर रखे गए. कई डेटा ऑपरेटर ने हमें पत्र लिखा है कि उन्हें कभी पूरी सैलरी नहीं दी गई और किसी की पांच महीने की सैलरी बाकी है तो किसी की दो महीने की. बहुतों को प्रोविडेंट फंड का नंबर तक नहीं दिया गया. पत्र लिखने वालों ने यही कहा कि वे अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं कर सकते हैं. बहरहाल यह सूचना दे रहा हूं ताकि राज्य सरकार इसकी जांच कर सके. आप जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नागरिकता रजिस्टर का काम चला. 50,000 से अधिक सरकारी कर्मचारी लगाए गए. इसके बाद भी असम की सरकार को नागरिकता रजिस्टर पर भरोसा नहीं है. 13 जनवरी को मुख्यमंत्री सोनेवाल विधानसभा में कहते हैं कि अगर राज्य सरकार की निगरानी में एनआरसी होती तो कोई गलती नहीं होती. इसी दिन मुख्यमंत्री एक बात कहते हैं जिसका संबंध हमारी आगे की स्टोरी से है.

13 जनवरी को मुख्यमंत्री सोनवाल कहते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून के नियम बनने का इंतज़ार कीजिए. जब नियम बन जाएंगे तो उसके हिसाब से आवेदन आएंगे. उन आवेदनों की जांच की जाएगी. यह धारणा सही नहीं है कि असम को ही सारे विदेशियों का बोझ उठाना होगा. जो संख्या बताई जा रही है वो काल्पनिक है. असम सरकार ने नियमों के लिए केंद्र को सुझाव दिए हैं. अब इसी दिन यानी 13 जनवरी को यूपी सरकार के मंत्री श्रीकांत शर्मा बयान देते हैं कि राज्य के 21 ज़िलों में 32,000 शरणार्थियों की पहचान हो गई है. यह प्रक्रिया अन्य ज़िलों में चल रही है और शरणार्थियों की संख्या बढ़ भी सकती है.

असम और यूपी दोनों बीजेपी के राज्य हैं. असम के मुख्यमंत्री जिस दिन कह रहे हैं कि रूल्स यानी नियम नहीं बने हैं कि किस नियम के तहत शरणार्थी की पहचान होगी. उसी दिन यूपी के मंत्री कह रहे हैं कि हमने 32000 शरणार्थियों की पहचान कर ली, लेकिन तथ्य यह है कि नागरिकता संशोधन कानून का नोटिफिकेशन ही 10 जनवरी को जारी हुआ, जबकि सूत्र कहते हैं कि यह कवायद दिसंबर के महीने से चल रही है. नियम तय होने से पहले यह प्रक्रिया कैसे शुरू हो गई, इतनी जल्जदबाज़ी क्यों हैं? हमारी सहयोगी मरियम इसकी जांच के लिए पीलीभीत गईं तो उन्हें ऐसा ही कुछ मिला. 

अगर कोई नियम बन गया है जिसके तहत शरणार्थियों की पहचान होगी तो ज़ाहिर है वो अकेले यूपी के लिए नहीं बना होगा. अगर नियम ही नहीं बने हैं तो कैसे पहचान की गई. अगर बन गए हैं तो यूपी सरकार असम सरकार को भी सूचना दे दे. तो ग्राउंड रिपोर्ट बता रही है कि नागरिकता जैसे गंभीर मामले में किस तरह मनमाने ढंग से कार्रवाई हो रही है. इन्हीं सब बयानों और कार्रवाइयों के कारण नागरिकता कानून को लेकर सरकार की सफाई लोगों में विश्वास नहीं जगा पा रही है. यही कारण है कि एक महीना हो गया इस कानून को आए, लेकिन विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला थमा नहीं है.

जिस मंगलुरु में 19 दिसंबर के भारत बंद के दौरान हुए प्रदर्शन के बाद दो लोगों की पुलिस फायरिंग में मौत हो गई थी, उसी मंगलुरु के पास शाह गार्डन मैदान का यह नज़ारा देखिए. आईएएस की नौकरी छोड़ने वाले हर्ष मंदर और कन्नन गोपीनाथन ने भी इस सभा में हिस्सा लिया. लोगों के इस हुजूम में सभी धर्मों के लोग शामिल हैं. मंच पर श्रीश्री ज्ञान प्रकाश स्वामी हैं तो मंगलुरु के बिशप रेवरेंड पीटर पॉल सल्दाना भी थे. बंगलुरु में ईसाई समुदाय के आर्कबिशप ने प्रधानमंत्री को ज्ञापन देकर कहा है कि धर्म के आधार पर नागिरकता भेदभाव के अलावा कुछ और नहीं है. ईसाई धर्मगुरुओं ने उन समुदायों के प्रति सहानुभूति जताई है जो इस कानून के कारण खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे हैं. नागरिकता संशोधन कानून में तीन देशों से आने वाले ईसाई धर्म के लोगों को भी नागरिकता देने की बात है इसके बाद भी ईसाई समुदाय इस कानून को भेदभाव से भरा मानता है. इसका आयोजन द मुस्लिम सेंट्रल कमेटी ने किया था. प्रेसिडेंट ऑफ कैथलिक सभा ने भी हिस्सा लिया है. इसकी सुरक्षा का इंतज़ाम बताता है कि पुलिस को कितने लोगों को आने का अंदाज़ा रहा होगा. इस प्रदर्शन की सुरक्षा के लिए 500 सब इंस्पेक्टर, 300 पुलिस इंस्पेक्टर, 100 डीएसपी, 18 एएसपी और 11 एसपी और एक डीजीपी और तीन एडीजीपी स्तर के अधिकारी तैनात किए गए थे.

भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आज़ाद को ज़मानत मिल गई है. कोर्ट ने आजाद से कहा है कि उन्हें चार हफ्ते तक दिल्ली से बाहर रहना पड़ेगा. आज़ाद को शाहीन बाग जाने पर भी रोक लगाई गई है. जेल से रिहा होने के बाद आज़द को दिल्ली पुलिस सहारनपुर छोड़ेगी. अगर आज़ाद सहारनपुर जाने से पहले रविदास मंदिर या जामा मस्जिद जाना चाहे तो दिल्ली पुलिस नहीं रोकेगी. अगर सहारनपुर से एम्स आना पड़े तो डीसीपी क्राइम को सूचना देनी होगी जो उन्हें एस्कॉर्ट उपलब्ध कराएंगे. चार हफ्ते तक शनिवार को आज़ाद को स्थानीय थाने में हाज़िरी लगानी होगी. नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में होने वाली रैलियों में सिर्फ कानून का विरोध नहीं है. इस विरोध ने उस मासूम सपने को फिर से ज़िंदा कर दिया है जिसे सियासत ने अपने पांवों तले रौंद दिया है.

किसने सोचा था कि कोलतार की सड़क पर काग़ज़ की किश्ती बनाकर रखी जाएगी. हर किश्ती पर शेर ओ शायरी लिखी होगी. हर एक नाव पर फैज़ की नज़्म हम देखेंगे लिखी है. करीब 200 नावें मिलकर बड़े दिल का आकार ले चुकी हैं. इसके सामने एक छोटा सा टैंक रखा है. मतलब है कि टैंक को भी मोहब्बत से हरा देंगे. 12 जनवरी की सुबह से नावें बनाने का सिलसिला शुरू हुआ और शाम तक कागज़ की किश्ती बनती रही. छात्रों से साथ स्थानीय लोगों ने भी बनाया. आर्टिस्ट ऑफ राइज़ फॉर इंडिया की यह कल्पना है. क़ौसर जहां इसकी प्रमुख हैं. हम बता दें कि इन नावों पर सिर्फ फैज़ हैं मगर जामिया से लेकर शाहीन बाग़ में कई शायरों को गाया जा रहा है. इक़बाल, हबीब जालिब, कैफ़ी आज़मी, जॉन एलिया, हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी, अली सरदार जाफ़री, मजाज़ लखनवी. राहत इंदोरी, दुष्यंत गोरख पांडे, बल्ली सिंह चीमा, धूमिल, शैलेंद, साहिर लुधियानवी, मुक्तिबोध, पाश, जैसे कई शायरों के शेर नारों में बदल गए हैं. कविताएं परचम बन गई हैं.

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नए कवियों में वरुण ग्रोवर की कागज़ नहीं दिखाएंगे और पुनीत शर्मा की तू कौन हे बे काफी लोकप्रिय हो चुकी है. इन सभी को अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद कर गाया जा रहा है. यही नहीं जिन्होंने कभी कुछ नहीं लिखा वो भी लिख रहे हैं. कवि हो रहे हैं. शायर हो रहे हैं. उनके लिए यह मौक़ा उस खाई पर पुल बनाने का भी है, जिसे चैनलों के हिन्दू मुस्लिम डिबेट और सियासत ने चौड़ी कर दी है. आपने पिछली बार हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, हम सब हैं भाई-भाई वाला पोस्टर कब देखा था. कई लोगों के लिए यह पोस्टर बीते जमाने की बात हो गई थी, लेकिन अब फिर से इसकी वापसी हो गई है. कलर सिनेप्लस की फिल्म पत्रकार अतिका अहमद फारुक़ी ने भी इस मौके पर एक नज़्म लिखी है.