सुप्रीम कोर्ट से आ रहे बेंच के फैसलों में असहमति के स्वर को कब इतनी प्रमुखता मिली थी. फैसला बेंच की बहुमत का ही माना जाएगा मगर असहमति ज़ाहिर करने वाले जजों की टिप्पणियां भी उस फैसले के समानांतर खड़ी हो गई है. सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को असमहति के इन तर्कों के ज़रिए देखने का यह अच्छा मौका है. जस्टिस डी वाई चंदचूड़ ने आधार और भीमा कोरेगांव में असहमति की टिप्पणी लिखते हुए जो बातें कही हैं वो कानून के जानकारों को लंबे समय तक बेचैन करती रहेंगी. जस्टिस अब्दुल नज़ीर ने अयोध्या मामले में तीन जजों की बेंच में असहमति की टिप्पणी दर्ज की. जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने सबरीमला मंदिर मामले में असहमति की टिप्पणी दर्ज की है. पहले हम अलग अलग केस में और अलग अलग बेंच में जस्टिस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की असहमति की टिप्पणियों पर ग़ौर करेंगे.
27 सितंबर को अयोध्या मामले में तीन जजों की बेंच ने 1994 के फैसले को सही माना कि मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य या अभिन्न हिस्सा नहीं है. नमाज़ कही भी पढ़ी जा सकती है और इसे पांच जजों की बेंच में भेजने के लिए कोई ज़रूरत नहीं है. इस बेंच में असहमति ज़ाहिर करते हुए जस्टिस अब्दुल नज़ीर ने कहा कि इस मसले के संवैधानिक महत्व और प्रासंगिकता को देखते हुए बड़ी बेंच के पास भेजा जाना चाहिए. यह देखने के लिए कि श्रीरुर मठ और अन्य ऐसे मुकदमों की रौशनी में आस्था के विस्तृत परीक्षण के बिना क्या कुछ धार्मिक प्रथाओं की जांच की सकती है? कोई प्रथा किसी मज़हब का अनिवार्य हिस्सा है या नहीं, इसके लिए जो टेस्ट है वो ज़रूरी है भी या नहीं? क्या आर्टिकल 15, 25 और 26 जिसे आर्टिकल 14 के साथ पढ़ा जाना चाहिए, आस्थाओं के तुलनात्मक महत्व की अनुमति देता है? अब 28 सितंबर को सबरीमला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की औरतों के प्रवेश की अनुमति दी तब उस बेंच की सदस्या जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने असहमति जताई.
बहुमत का फैसला यही रहा कि उम्र को लेकर जो पाबंदी लगाई गई है कि वह धार्मिक प्रथा का अनिवार्य या अभिन्न अंग नहीं है. कोई भी रीति रिवाज संविधान से हासिल मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकता है. जस्टिस चंदचूड़ ने कहा कि माहवारी के समय औरतों को पूजा से रोकना उनके साथ अछूत जैसा बर्ताव करना है. पांच जजों की बेंच में जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने असहमति जताई है. क्या जस्टिस इंदु मल्होत्रा वही बात नहीं कह रही हैं जो जस्टिस नज़ीर ने कही. जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा कि यह मामला न सिर्फ सबरीमाला बल्कि इबादत की दूसरी जगहों पर भी असर डालेगा. धार्मिक प्रथाओं को आर्टिकल 14 के पैमाने पर नहीं परखा जा सकता. किसी धार्मिक समुदाय को ही तय करना चाहिए कि उसके भीतर अनिवार्य या अभिन्न धार्मिक प्रथाएं क्या हैं. हमें एक तरफ धार्मि मान्यताओं के बीच संतुलन कायम करना है और दूसरी तरफ संविधान के तहत किसी से भेदभाव न करने के सिद्धांतों को भी लागू करना है.
वहीं जस्टिस चंदचूड़ ने भी किस धर्म के अनिवार्य पहलू की जांच के मामले में जस्टिस इंदु मल्होत्रा के जैसी ही बात कही है. इस तरह से आप देखें तो कोई प्रथा किसी धर्म का अनिवार्य हिस्सा है या नहीं इसे लेकर तीन जजों की राय एक जैसी है. इस्माइल फारूकी वाले फैसले पर प्राइम टाइम में संविधान विशेषज्ञ फैज़ान मुस्तफा ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को धार्मिक अनिवार्यता के आधार पर किसी मसले को तय नहीं करना चाहिए. फैज़ान मुस्तफ़ा यह कहना चाहते है कि इस्लाम का क्या हिस्सा है यह तय करने के बजाए अदालत सीधा कह सकती थी कि सरकार को किसी मंदिर और मस्जिद के अधिग्रहण का पर्याप्त कानूनी अधिकार है. हमने फैज़ान मुस्तफा से पूछा कि क्या अलग अलग मामलों में असहमतियों को लेकर मेरा सोचना ठीक है. अब सुप्रीम कोर्ट के एक दूसरे बड़े फैसले पर आते हैं. जस्टिस दीपक मिश्र, जस्टिस ए एम खण्विलकर और जस्टिस चंचूड़ की बेंच ने दो एक के बहुमत से फैसला देते हुए भीमा कोरेगांव मामले में गिरप्तार एक्टविस्ट और वकीलों की जांच के लिए एस आई टी बनाने से इंकार कर दिया. जस्टिस खाण्विलकर ने अपने फैसले में कहा कि चार हफ्ते और ये एक्टविस्ट नज़रबंद रहेंगे.
अदालत ने पुलिस को चेतावनी भी दी कि आरोपी एक्टिविस्टों के खिलाफ मनगढ़ंत और नकली सबूत जमा करसे बचे. अगर सबूत मनगढ़ंत पाए गए तो अदालत इन छापेमारियों की जांच के लिए एस आई टी बना देगी. तो एक तरह से अदालत ने एस आई टी की बात नहीं मानी लेकिन यह भी कह दिया कि फज़च्वाड़ा होगा तो एस आई टी बना भी देंगे. जस्टिस चंदचूड़ की असहमति ने कहा कि असहमति के नाम पर विपक्ष की आवाज़ को नहीं कुचला जा सकता है. अभी आज़ादी कुचली जाएगी तो उसकी भरपाई बाद में नहीं हो सकती है. महाराष्ट्र पुलिस के बर्ताव से निष्पक्ष जांच को लेकर सवाल उठते हैं. महाराष्ट्र पुलिस ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि जिनकी गिरफ्तारी हुई है उनका संबंध प्रतिबंधित आतंकी संगठन से था और ये बड़ी साज़िश का हिस्सा थे. सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनते हुए कहा कि किसी की आज़ादी अनुमानों के आधार पर नहीं कुचली जा सकती है. हम इस मामले में अपनी निगाह रखेंगे.
आप जानते हैं कि गिरफ्तार एक्टिविस्ट सुधा भारद्वार, वरवरा राव, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा, वेरनॉन गोज़ाल्विस की तरफ से प्रोफेसर रोमिला थापर,देवकी जैन, प्रभात पटनायक सतीश देशपांडे और मजा दारूवाला ने याचिका दायर की थी. इन्होंने प्रेस कांफ्रेंस करते हुए जस्टिस चंदचूड़ की टिप्पणी को ही प्रमुखता से उभारा जिसमें उन्होंने कहा है कि वे सरकारी पक्ष की इस बात से सहमत नहीं है कि थर्ड पाटी याचिकाकर्ताओं की इस केस में कोई दखल नहीं बनती है. जब संवैधानिक अधिकारों को हनन हो रहा हो, स्वतंत्रता पर आघात पहुंचाया जा रहा हो तो इंसाफ के रास्ते में टेक्निकल बातें रोड़ा नहीं बन सकती हैं. याचिकाकर्ताओं ने अदालत के फैसले के बाद प्रेस क्लब में अपनी बात रखी. इसके अलावा जस्टिस चंदचूड़ की टिप्पणी की काफी चर्चा है. जस्टिस चंदचूड़ ने कहा है कि दो झूठ के बीच संतुलन का यही तरीका है कि जांच निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीके से हो. लेकिन मैं सिद्धांत रूप से अपने दो साथी जजों से सहमत नहीं हूं.
जस्टिस डी वाई चंदचूड़ ने एस आई टी से जांच कराने के पक्ष में कई उदाहरण दिए मगर फैसले में इसे स्वीकार नहीं किया गया. महाराष्ट्र पुलिस की भूमिका पर जस्टिस चंदचूड़ ने गंभीर टिप्पणी की है औ कहा है कि 29 अगस्त 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार और अन्य को नोटिस जारी किया. फैसले के चंद घंटे के भीतर पुणे में ज्वाइंट कमिश्नर शिवारीराव भोडके ने प्रेस कांफ्रेंस कर दी जिसमें दावा किया कि पुणे पुलिस के पास पर्याप्त सबूत हैं. जबकि कोर्ट ने इन पांच लोगों के ट्रांजिट पर रोक लगा दी थी. घर में नज़रबंद किया था. पुलिस का यह व्यवहार अनुचित था. ऐसा लगा कि पुलिस कोर्ट के नोटिस का जवाब इलेक्ट्रानिक मीडिया के ज़रिए दे रही है. 31 अगस्त 2018 को एडीजी कानून व व्यवस्था श्री परमवीर सिंह ए डी जी ने भी प्रेस कांफ्रेंस किया और कई पत्र दिखाएं जिनकी फोरेंसिक जांच तक नहीं हुई थी. ।8 जून को कोर्ट की कार्यवाही शुरू होने से पहले मीडिया को सुधा का एक पत्र जारी किया गया.
आरोप था कि गिरफ्तार लोग प्रधानमंत्री पर हमला करना चाहते हैं. इस पत्र को टीवी पर दिखाया गया. जबकि इन पत्रों को कोर्ट के सामने नहीं रखा गया. न ही ट्रांजिट डिमांड के आवेदन का हिस्सा बनाया गया. यह काफी गंभीर मामला है. इससे जांच की निष्पक्षता पर संदेह होता है. पुलिस जज नहीं है. राजनीति अलग तरीके से व्याख्या कर रही है और कानून के जानकार अलग तरीके से व्याख्या कर रहे हैं. इन बड़ी बड़ी बातों के बीच बिहार के 80,000 छात्र परेशान हैं कि 1 अक्तूबर के पहले एडमिट कार्ड नहीं आया तो उनके जीवन का एक साल बर्बाद हो जाएगा. उधर यूपी के शिक्षक परेशान हैं कि जिन्होंने परीक्षा नहीं दी वो कैसे कंपटीशन में पास कर गए.
This Article is From Sep 29, 2018
समानांतर खड़े होते असहमति के स्वर
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
-
Updated:सितंबर 29, 2018 02:25 am IST
-
Published On सितंबर 29, 2018 02:25 am IST
-
Last Updated On सितंबर 29, 2018 02:25 am IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं