सामाजिक अशांति का कारण बन सकता है आरक्षण का ‘गुजरात मॉडल’

सामाजिक अशांति का कारण बन सकता है आरक्षण का ‘गुजरात मॉडल’

गुजरात की आनंदीबेन पटेल सरकार ने अगड़ी जाति को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की घोषणा की है।

गुजरात के स्थापना दिवस पर आर्थिक रूप से पिछड़े, अगड़ी जाति के लोगों को 10 फीसदी आरक्षण के लिए भाजपा सरकार ने 'गुजरात अनारक्षित आर्थिक पिछड़ा वर्ग अध्यादेश 2016' जारी किया है जो देशव्यापी सामाजिक अशांति का कारण बन सकता है।

सरकार द्वारा पारित गैरकानूनी आदेशों से अदालत का बढ़ता बोझ
संविधान के मुताबिक सिर्फ आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था गैर-कानूनी है और सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में 50 फीसदी आरक्षण की सीमा भी निर्धारित की है। इन दोनों के उल्लंघन पर जब गुजरात भाजपा अध्यक्ष विजय रूपाणी से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि जरूरत पड़ने पर सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी। पूरा देश अदालतों में लंबित मामलों से परेशान है जिसके लिए चीफ जस्टिस भी प्रधानमंत्री के सामने अपना क्षोभ व्यक्त कर चुके हैं। ऐसा असंवैधानिक कानून बनाने से पहले ही गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की सहमति क्यों नहीं ली?

गुजरात मॉडल के आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट लगा सकती है रोक
गुजरात सरकार द्वारा नई आरक्षण नीति की घोषणा के समय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की उपस्थिति आगामी चुनावों की दृष्टि से  महत्वपूर्ण थी। भाजपा शासित हरियाणा में जाटों को, राजस्थान में गुर्जरों को और महाराष्ट्र में मराठों को आरक्षण देने के बाद गरीब सवर्णों को आरक्षण का 'गुजरात मॉडल' क्या देश का मॉडल बन पाएगा? हार्दिक पटेल द्वारा इसे लॉलीपॉप बताकर अस्वीकार कर दिया गया है। कांग्रेसी सांसद हनुमंत राव ने इसके विरोध में ओबीसी समुदाय के आंदोलन की घोषणा भी कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर यदि रोक लगा दी तो फिर राजनीतिक अशांति के साथ कानूनी संकट भी पैदा हो सकता है।  

भाजपा द्वारा संघ के राष्ट्रवाद पर पलीता
नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की घोषणा की थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था। गुजरात में इसके पहले भी कांग्रेस ने प्राइवेट बिल को विधानसभा में पेश कर गरीब सवर्णों के लिए 20 फीसदी कोटे की मांग की थी जिसे अब भाजपा द्वारा 10 फीसदी से लागू किया जा रहा है। मोहन भागवत के  बयानों से यह स्पष्ट है कि भाजपा का पितृ संगठन आरएसएस जातीय आधार पर आरक्षण के खिलाफ है। इसके बावजूद भाजपा द्वारा आरक्षण का सभी जातियों में विस्तार का राजनीतिक प्रयोग, क्या संघ के राष्ट्रवाद को पलीता लगा सकता है?

अब 99 फीसदी आबादी आरक्षण के दायरे में
संविधान में अनुसूचित जाति (अजा) एवं अनुसूचित जनजाति (अजजा) के लिए 22.5 फीसदी आरक्षण का प्रावधान था। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह द्वारा पिछड़े वर्ग को मंडल कमीशन की रिपोर्ट से 27 फीसदी आरक्षण का लाभ दिया गया। गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की नई नीति का लाभ उन सभी को मिलेगा जिनकी सालाना आय 6 लाख से कम है। मोदी सरकार द्वारा जनसंख्या के सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया है। परंतु इनकम टैक्स विभाग द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 1.3 करोड़ लोग ही टैक्स देते हैं। इस तरह से आबादी का 1 फीसदी हिस्सा ही आर्थिक आरक्षण के दायरे से बाहर रहेगा। देश की 99 फीसदी आबादी को आरक्षण देने की बजाए क्या 1 फीसदी आबादी को आरक्षण देकर समाज का जातीय विघटन रोका जा सकता है? 'कांग्रेस मुक्त भारत' के लिए अड़ी भाजपा क्या जातीय ध्रुवीकरण की कांग्रेसी नीति से मुक्त हो पाएगी?   

मुस्लिमों को आरक्षण की मांग अब हो सकती है जायज
महाराष्ट्र में मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने के सरकारी निर्णय को अदालत ने गैर-कानूनी ठहराया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई व्याख्या के अनुसार सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है,  जिसमें जाति को एक महत्वपूर्ण कड़ी माना गया है। जाति व्यवस्था को सिर्फ हिंदू धर्म का हिस्सा माना गया है जिस आधार पर मुस्लिम व अन्य धर्मावलंबियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। अब आर्थिक आधार पर अन्य धर्मों को आरक्षण देने की मांग को गैर-कानूनी ठहराना मुश्किल हो सकता है।

एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का मर्सिया
 एक रिपोर्ट के अनुसार गुजरात में इस साल लगभग 5152 सरकारी नौकरियों में भर्ती हुई जिसमें 10 फीसदी आरक्षण अगर लागू भी किया जाए तो 515 लोगों को ही नौकरी मिलेगी। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 'मेक इन इंडिया' के आर्थिक मॉडल से युवाओं को रोजगार देने का वादा करके श्रेष्ठ भारत के निर्माण का विजन दिया गया था। 'मिनिमम गवर्मेंट' के दौर में घटती सरकारी नौकरी के लिए आरक्षण की परिधि का विस्तार क्या 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' विजन का मर्सिया है?

विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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