सीबीएसई के परिणामों के बाद आई एक ख़बर थोड़ा चौंकाती है। थोड़ा सकून भी देती है। ख़बर ये है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने निजी स्कूलों की तुलना में अच्छा प्रदर्शन किया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह ख़बर उस अवधारणा को तोड़ती है जिसमें सरकारी का दूसरा नाम 'घटिया' हो गया है। अब साधारणतया लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहते। मेरे अपार्टमेंट के लिएकपड़े प्रेस करने का काम करने वाले परिवारों के बच्चे भी निजी स्कूल में पढ़ते हैं। हालांकि वे निजी स्कूल भी बहुत ख़राब हैं। लेकिन उन परिवारों को लगता है कि वे सरकारी से फिर भी अच्छे हैं। उनकी बात बहुत ग़लत भी नहीं है।
शिक्षा के इतने बुरे हाल...
उनकी बात स्वयंसेवी संस्था प्रथम की रिपोर्ट से भी साबित होती है। प्रथम की पिछली रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी स्कूलों में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक चौथाई यानी 25 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें तक ठीक से पढ़ नहीं पाते जबकि पांचवीं कक्षा के आधे बच्चे दूसरी कक्षा की किताब ठीक से नहीं पढ़ पाते। इस रिपोर्ट के अनुसार दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले उन बच्चों का प्रतिशत साल दर साल बढ़ रहा है जो एक से नौ तक की संख्या तक नहीं पहचान पाते।
स्कूल शिक्षकों के सामान्य ज्ञान का स्तर
अलग-अलग लोगों की ओर से रिकॉर्ड किए गए वीडियो भी यूट्यूब पर उपलब्ध हैं जिसमें दिखता है कि सरकारी स्कूल के शिक्षक का भी सामान्य ज्ञान कितना ख़राब है। हालांकि यह कहना कठिन है कि निजी स्कूलों में शिक्षकों का स्तर कैसा है। ख़ासकर उन निजी स्कूलों का, जो छोटे शहरों और क़स्बों में खुल रहे हैं लेकिन जो तस्वीर सामने है वह सरकारी स्कूल के नाम से डर पैदा करती है। और यह डर अस्वाभाविक भी नहीं है। आख़िर ये उस भारत के बच्चे हैं जिस भारत के राजनेता जनता को आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना बेच रहे हैं।
क्या कहते हैं नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कुछ महीनों पहले इसी डर को रेखांकित किया था। लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स की पत्रिका से बात करते हुए उन्होंने कहा था, "भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है जो अशिक्षित और अस्वस्थ कामगारों के साथ वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनने की कोशिश कर रहा है। ऐसा न पहले कभी ऐसा हुआ है और न ही भविष्य में ऐसा संभव होगा।" उनका तर्क है कि अगर यूरोप और अमेरिका ने सार्वभौमिक शिक्षा की ओर ध्यान देने का फ़ैसला किया तो इसकी एक ठोस वजह थी। अमर्त्य सेन ने शिक्षा को लेकर जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान, हांगकांग, सिंगापुर और चीन का भी उदाहरण दिया है।
आर्थिक विकास में अहम भूमिका है शिक्षा-स्वास्थ्य नीति की
अमर्त्य सेन उदाहरण देकर समझाते हैं कि सार्वभौमिक शिक्षा और स्वास्थ्य की नीति किस तरह से आर्थिक विकास में भूमिका निभाती है। वे बताते हैं कि 60 के दशक में केरल में वामपंथी सरकार ने जब शिक्षा और स्वास्थ्य पर पैसा खर्च करने का फ़ैसला किया तो उसका विरोध हुआ। लोगों ने कहा कि जो प्रदेश देश का तीसरे नंबर का ग़रीब प्रदेश है वह अपना पैसा शिक्षा और स्वास्थ्य पर क्यों खर्च कर रहा है। और जैसा कि अमर्त्य सेन कहते हैं, "आज केरल की प्रतिव्यक्ति आय देश में सबसे अधिक है।"
सर्वे बताता है देश के 41.5 करोड़ लोग स्कूल ही नहीं गए
तो इसके दो पहलू हैं- एक शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य। स्वास्थ्य पर चर्चा फिर कभी. फिलहाल शिक्षा की चर्चा करते हैं। जब भारत सरकार को नीतियां बनानी थीं तो उसके सामने यूरोप, अमेरिका से लेकर जापान, कोरिया और चीन तक के उदाहरण थे लेकिन फिर भी हमारी नीतियों में शिक्षा को प्राथमिकता कभी नहीं मिल सकी। जो पीढ़ी पढ़ नहीं सकी थी उसके लिए 'साक्षरता मिशन' तो ठीक था लेकिन नई पीढ़ी के लिए शिक्षा कोई मिशन ही नहीं बन पा रहा है। 'इंडिया स्पेंड' का जनगणना पर आधारित एक सर्वेक्षण कहता है कि भारत में अभी भी 41.5 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्होंने कभी किसी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। यह आबादी रूस की आबादी का तीन गुना है। 1988 में शुरू हुए साक्षरता मिशन के बाद का ये आंकड़ा बताता है कि हम साक्षरता मिशन तो चलाते रहे लेकिन शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
क्या शिक्षा को अधिकार बना देना ही पर्याप्त है?
पहली अप्रैल 2010 के बाद से अब शिक्षा हर नागरिक का अधिकार है यानी सरकार की ओर से हर किसी को प्राथमिक स्कूलों में दाखिला दिलाने की व्यवस्था की जाएगी। शिक्षा को अधिकार बना देने मात्र से क्या बात बन जाएगी? शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किस तरह से आएगा? क्या लोग अपने बच्चे को उन्हीं स्कूलों में भेजेंगे जहां आठवीं में पहुंचकर भी बच्चा दूसरी कक्षा की किताबें नहीं पढ़ पाएगा? सच तो यह है कि हमारे स्कूल बच्चों को शिक्षित तो नहीं ही कर रहे, वे उन्हें ठीक तरह से साक्षर भी नहीं बना पा रहे हैं। वैसे हमारे कॉलेज भी कम नहीं हैं जहां मैकेनिकल इंजीनियरिंग का छात्र नहीं जानता कि टू स्ट्रोक इंजन से फ़ोर स्ट्रोक इंजन किस तरह से अलग होता है और भूगोल में एमए कर चुका छात्र नहीं जानता कि राजस्थान और पंजाब की सीमाएं आपस में मिलती हैं या नहीं।
आखिरकार किसी को जवाबदारी तो लेनी होगी
क्या यह पैसे का दुरुपयोग नहीं है कि कागज़ों पर आंकड़े भरे जाते रहें और स्लेटें खाली रहें? क्यों हम ऐसे स्कूल चला रहे हैं जहां खानापूर्ति के लिए कक्षाएं चल रही हैं और शिक्षकों को तनख़्वाह मिल रही है। क्यों इसकी जवाबदारी कोई नहीं ले रहा है? जिन प्रदेशों में ऐसे बच्चे मिलें जो अपनी कक्षा की किताबें न पढ़ सकें वहां तो थोक में बर्खास्तगी होनी चाहिए। शिक्षकों से लेकर आईएएस और शिक्षा मंत्री तक...।
शिक्षा को लेकर पिछले दो बजट के आंकड़े चिंताजनक
और ऐसे समय में, जब अमर्त्य सेन चिंता कर रहे हैं कि हमें अपने कामगारों को शिक्षित करना चाहिए, हमारी सरकार शिक्षा के बजट में कटौती कर रही है। वित्तमंत्री अरुण जेटली के पिछले दो बजट के आंकड़े चिंता पैदा करते हैं। शायद सरकारें चाहती है कि धीरे-धीरे शिक्षा को पूरी तरह से निजी हाथों में सौंप दिया जाए। इसीलिए पिछले तीन-चार दशकों में सरकारी शिक्षा व्यवस्था को लगातार कमज़ोर किया गया है। कम से कम गुणवत्ता के मामले में तो किया ही गया है।
अमेरिका का उदाहरण सामने है...
अमेरिका को निजीकरण का सबसे बड़ा हिमायती देश माना जाता है लेकिन सच यह है कि प्राथमिक शिक्षा का पूरा जिम्मा वहां सरकार उठाती है। यहां तक कि स्कूल तक लाने-ले जाने का भी। लेकिन हमारी सरकारें पता नहीं क्यों अपनी जनता के साथ ऐसा षडयंत्र कर रही हैं जो अपराध की तरह दिखता है..।
-विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।
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This Article is From May 23, 2016
शिक्षा की ऐसी उपेक्षा किसी अपराध से कम नहीं..
vinod verma
- ब्लॉग,
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Updated:मई 23, 2016 15:26 pm IST
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Published On मई 23, 2016 14:20 pm IST
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Last Updated On मई 23, 2016 15:26 pm IST
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