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This Article is From Nov 22, 2016

नोटबंदी के माहौल में एकता के अनोखे रंग...

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    November 22, 2016 16:04 IST
    • Published On November 22, 2016 16:04 IST
    • Last Updated On November 22, 2016 16:04 IST
पूरे देश में एकता की बयार चल रही है. लोग नोट बदलने के लिए एक हो रहे हैं, लाइन लगने के लिए एक हो रहे हैं, नोट बंदी का समर्थन करने के लिए एक हो रहे हैं, नोट बंदी और विशेष तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करने के लिए एक हो रहे हैं.

किसी भी प्रदेश में कोई भी चुनाव आने वाले हों, वहां के दल भारतीय जनता पार्टी को हराने की कोशिश के लिए एक हो रहे हैं. प्रसिद्ध परिवारों के सदस्य एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगाने के बाद भी ‘सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम’ (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) की नीति के अंतर्गत एक हो रहे हैं, एक दूसरे से सामाजिक और राजनीतिक शिष्टाचार न निभाने वाले लोग भी किसी न किसी मुद्दे पर एक हो रहे हैं.

दिल्ली में कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल बैंक एटीएम की लाइनों में बार-बार जा रहे हैं और आम लोगों के साथ खड़े हो रहे हैं, उनसे बात भी कर रहे हैं. मुंबई से मिले चित्रों में फिल्म अभिनेता और छोटे व्यापारी एक साथ नोट निकालने की लाइन में खड़े दिख रहे हैं. ऐसी एकता के दृश्य अभी तक भारत में दुर्लभ ही रहे हैं.

लखनऊ के पास उन्नाव जिले में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनवाई गई लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे के लोकार्पण के मौके पर मुलायम सिंह यादव के अलावा उनके बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, भाई शिवपाल यादव और राम गोपाल यादव बड़े दिनों बाद मंच पर हंसते-मुस्कराते दिखाई दिए. यही नहीं, निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार राम गोपाल ने शिवपाल के पैर छूकर आशीर्वाद भी मांगा. पिछले दिनों इन दोनों के बीच हुए आक्रामक पत्र-युद्ध से ऐसा लगता था कि शायद अब यह दोनों एक-दूसरे के साथ कभी नहीं दिखेंगे. क्या ऐसा लग रहा था कि एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार, व्यभिचार और परिवार/पार्टी को तोड़ने की साजिश के आरोप लगाने वाले यह नेता कुछ ही दिनों के बाद एक ही मंच पर हंसते हुए और गले मिलते या पैर छूते दिख जाएंगे? लेकिन एकता के इस महापर्व में यह भी देखने को मिला. इसमें अधिक संशय नहीं है कि विधानसभा चुनाव के नजदीक आने की वजह से अब अखिलेश के पीछे पूरी समाजवादी पार्टी भी एक दिखेगी.

क्या कोई सोच सकता था कि बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व उनकी पार्टी किसी भी मुद्दे पर अपने धुर विरोधी वाम दलों के साथ एक साथ दिखना भी पसंद करेगी? लेकिन यह भी हुआ, नोट बंदी के निर्णय से उपजी विपक्ष-एकता क्रांति में यह भी संभव हुआ है, और आने वाले दिनों में इस एकता के नए रंग भी देखने को मिलेंगे. संसद के भीतर और संसद के बाहर ऐसी एकता के नए पहलू देखने को मिल सकते हैं.

लेकिन राजनीतिक विवशता से जनित एकता के इस माहौल में कुछ ऐसे भी दृश्य दिखे जहां तमाम प्रयास के बावजूद एकता स्थापित न हो पाई. नोटबंदी के निर्णय पर अखिल भारतीय स्तर पर विपक्षी (गैर-भाजपा) दलों के बीच एक राय बनाने की मुहिम में जदयू अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रुख बिलकुल अलग है. इसलिए इस मुद्दे पर विपक्षी एकता सही मायने में हो न पाई. ममता द्वारा विपक्षी नेतृत्व हासिल करने के प्रयास के बीच उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी नोटबंदी पर आक्रामकता दिखने की कोशिश की, लेकिन किसी और दल का साथ न मिलने के कारण उनकी यह मंशा पूरी न हो पाई.

उत्तर प्रदेश में कुछ महीनों के बाद चुनाव होने हैं, गैर-भाजपा दल चाहते हैं कि वे सभी मिलकर चुनाव लड़ें, लेकिन इस प्रकार यदि चुनाव जीत लिया गया तो नेता कौन बने यह पहले ही तय हो जाए. कांग्रेस की ओर से बड़ी कोशिश की गई कि यह पार्टी समाजवादी पार्टी के साथ कोई चुनावी समझौता कर ले, लेकिन यह न हो पाया. गैर सपा और गैर कांग्रेस दलों ने बड़ी कोशिश की कि ऐसा कोई मोर्चा बन जाए, लेकिन बहुजन समाज पार्टी द्वारा ऐसी किसी भी कोशिश का हिस्सा बनने से साफ इनकार करने के बाद ऐसा न हो पाया.

बिहार में सत्ता में भागीदार जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने कोशिश की कि ऐसा ही महागठबंधन उत्तर प्रदेश में बन जाए, लेकिन लालू प्रसाद के राजद ने साफ मना कर दिया कि उनकी पार्टी रिश्तेदार मुलायम सिंह यादव के लिए कोई मुसीबत खड़ी करने में भागीदार नहीं बनेगी, इसलिए ऐसा गठबंधन साकार न हो पाया.

जनता दल यूनाइटेड के कुछ नेताओं ने कोशिश की कि वे, राष्ट्रीय लोक दल के अजित सिंह और पूर्व बसपा नेता आरके चौधरी के मोर्चे के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में एक नया मोर्चा खड़ा करें, लेकिन ऐसी किसी भी साझेदारी में जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार की रुचि न होने के कारण ऐसे मोर्चे के भविष्य पर सवालिया निशान उठ रहे हैं.

यह बात अलग है कि एकता होने, और एकता स्थापित न होने के कारण अधिकतर राजनीतिक ही हैं. कितना अच्छा होता कि गैर-राजनीतिक कारणों पर भी एकता के ऐसे दृश्य देखने को मिलते. लेकिन शायद ऐसा होने के लिए हम लोगों का और परिपक्व होना बाकी है.

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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