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This Article is From Apr 25, 2015

सुशील महापात्रा की कलम से : अरविंद केजरीवाल के प्रिय : माफ़ी, फांसी और टीआरपी

Sushil Kumar Mohapatra, Vandana Verma
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  • Updated:
    अप्रैल 25, 2015 15:04 pm IST
    • Published On अप्रैल 25, 2015 14:53 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 25, 2015 15:04 pm IST
शुक्रवार को जब में दफ्तर बैठा था तब एक आवाज़ सुनाई दी, 'माफ़ी मांगता हूं ,जो भी दोषी हैं, उसे फांसी चढ़ा दो,।' मुझे यह आवाज़ जानी पहचानी-सी लग रही थी। यह आवाज़ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जी की थी। यह पहली बार नहीं था कि केजरीवाल "माफ़ी" और "फांसी" की बात कर रहे थे। जब से केजरीवाल राजनीति में आए हैं, तब से इन दोनों शब्दों के साथ उनका गहरा रिश्ता रहा है।

माफ़ी मांगना कोई गलत बात नहीं है। बहुत नेता ऐसे भी हैं, जो गलती करने के बावजूद भी माफी नहीं मांगते और ऐसे नेताओं को केजरीवाल जी से कुछ सीखना चाहिए,  लेकिन कभी-कभी केजरीवाल जी यह माफ़ी किस मकसद से मांगते हैं, यह समझना मुश्किल हो जाता है। क्या सच में उन्हें गलती का अहसास है? अगर ऐसा है तो बहुत अच्छी बात है। यह भी समझ नहीं आता कि केजरीवाल अगर माफी की बात करते हैं तो फांसी की जिक्र क्यों करते हैं। माफी और फांसी के बीच रिश्ता दूर- दूर तक नहीं है। ऐसा लगता हैं केजरीवाल महात्मा गांधी जी के साथ-साथ हिटलर को भी अपना आदर्श मानते हैं।

केजरीवाल आज जिस मुद्दे को लेकर माफी मांग रहे हैं, वह गंभीर मुद्दा है। जंतर-मंतर पर गजेंद्र सिंह की आत्महत्या काफी  दिल दहला देने वाली घटना थी। गजेंद्र सिंह की मौत का ज़िम्मेदार आम आदमी पार्टी या किसी और को ठहरना गलत होगा, लेकिन आम आदमी पार्टी के रवैये को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं जैसे कि क्या ऐसी दुर्घटना के बाद केजरीवाल या उनके दूसरे सदस्यों का मंच पर भाषण देना सही था?  क्या केजरीवाल या उनकी पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता को गजेन्द्र सिंह के साथ अस्पताल नहीं जाना चाहिए था? सवाल यह भी उठता है क्या संजय सिंह की जगह केजरीवाल जी को खुद गजेन्द्र सिंह के घर दौसा पहुंचाना नहीं चाहिए था।

माफी के साथ केजरीवाल जी का रिश्ता पुराना हैं। चाहे 49 दिन की सरकार छोड़ने के बाद दिल्ली की जनता से माफ़ी मांगने का बात करें या रेल भवन के सामने धरने पर बैठ जाने पर जनता को हुई असुविधा के लिए। माफ़ी को महान समझने वाले केजरीवाल शायद खुद दूसरे को माफ करने में विश्वास नहीं रखते हैं। अगर केजरीवाल चाहते तो अपने साथी योगेन्द्र यादव, आनंद कुमार और प्रशांत भूषण को भी माफ कर सकते थे, लेकिन केजरीवाल ने ऐसा नहीं किया।

चलिए अभी फांसी की बाद करते हैं। 2011 में अण्णा आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल की साथी किरण बेदी के ऊपर यात्रा बिल को लेकर जब सवाल उठ रहा था तब भी केजरीवाल ऐसे ही बोले थे। अगर हमने गलती की है तो हमें फांसी दे दीजिए, लेकिन लोकपाल बिल लाइए। अब तो केजरीवाल खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन लोकपाल का कोई नामोनिशान दिखाई नहीं दे रहा है। पिछले चुनाव के दौरान दो करोड़ के फंड ट्रांसफर को लेकर जब सवाल उठ रहे थे तब भी केजरीवाल का बयान था, जांच कीजिए अगर हम गलत हैं तो हमें सजा दीजिए।

मैं यह नहीं कहता कि दूसरी पार्टी के नेता ऐसे बयान नहीं देते। 2012  में गुजरात दंगे को लेकर नरेंद्र मोदी जी ने भी बयान दिया था कि अगर में दोषी हूं तो मुझे फांसी दे दीजिए। जयंती नटराजन ने जब कांग्रेस से इस्तीफा दिया था तब उन्होंने भी इस तरह का बयान पेश किया था, लेकिन केजरीवाल की सबके साथ तुलना करना सही नहीं है, क्योंकि दूसरी पार्टी के विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी का गठन हुआ है।

एक तीसरा शब्द भी, जो केजरीवाल जी के दिल के करीब है, वह है "टीआरपी"। जब मीडिया केजरीवाल या उनकी पार्टी पर सवाल उठाती है तो वह मीडिया पर भड़क जाते हैं और आरोप लगाते हैं कि मीडिया टीआरपी के लिए ऐसी खबर को आगे बढ़ा रही है।

शुक्रवार को भी केजरीवाल मीडिया के ऊपर ऐसी सवाल उठाये थे, लेकिन केजरीवाल जी को पता होना चाहिए कि उनकी पार्टी के हर अच्छे काम के लिए मीडिया ने उनका साथ दिया। नकारात्मक से ज्यादा मीडिया ने आम आदमी पार्टी की सकारात्मक खबरों को दिखाया। शुरुआती दौर में केजरीवाल जब जंतर-मंतर पर बैठे थे, तब मीडिया लगातार कवरेज कर रहा था। अगर केजरीवाल बिजली बिल कम करते हैं तो मीडिया दिखाता है, केजरीवाल जब फ्री पानी की बात करते हैं तब मीडिया दिखाता है, यह भी सच है कि जब केजरीवाल बिजली की तार काटने के लिए खंबे पर चढ़ जाते हैं तो मीडिया इसे खबर बना देता है। केजरीवाल जी के अच्छे काम को अगर मीडिया विशेष ने ध्यान नहीं दिया होता तो शायद केजरीवाल आज जितने लोकप्रिय हैं, नहीं होते। तब केजरीवाल क्यों नहीं कह रहे थे कि मीडिया सिर्फ टीआरपी के लिए काम करती है।

मैं मीडिया का पक्ष नहीं ले रहा हूं। मीडिया पर भी बहुत गंभीर सवाल उठ रहा है, जिसके ऊपर मंथन होना जरूरी है। चाहे हम पेड मीडिया की बात करें या टीआरपी की। कहीं न कहीं मीडिया टीआरपी के चक्कर में तमाशा जरूर दिखाती है, लेकिन इसके लिए सभी पर सवाल उठाना गलत है। मीडिया अच्छा काम भी करती है। जंतर-मंतर पर जो कुछ हुआ वह मीडिया के कैमरा में कैद है। मीडिया के ऊपर भी यह सवाल उठता है कि अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को समझते हुए पत्रकारों को  गजेंद्र सिंह के पास पहुंचना चाहिए था और समझा-बुझाकर पड़े से नीचे उतारने की कोशिश करनी चाहिए थी। मीडिया की ज़िम्मेदारी को लेकर पहले भी सवाल उठ चुके हैं। निर्भया कांड के प्रोटेस्ट के दौरान जब पुलिसकर्मी सुभाष तोमर की मौत हुई थी तब भी मीडिया की सामाजिक ज़िम्मेदारियों को लेकर सवाल उठा था।  जब सुभाष तोमर बेहोशी के हाल में नीचे पड़े हुए थे तब कुछ पत्रकार उनकी फोटो ले रहे थे जबकि पत्रकारों का यह फर्ज बन रहा था कि उन्हें पहले अस्पताल पहुंचाया जाए।

लेकिन कभी-कभी परिस्थिति मीडिया के साथ नहीं होती। बहुत बार लोग मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए ऐसी हरकत करते रहते हैं, तब यह जांचना नामुमकिन हो जाता है कि क्या सच है क्या झूठ?

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