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This Article is From Jan 14, 2017

जमाने में हम : दिल्ली का साहित्य जगत और निर्मला जैन के संघर्ष की कथा

Suryakant Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 14, 2017 17:36 pm IST
    • Published On जनवरी 14, 2017 17:36 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 14, 2017 17:36 pm IST
दिल्ली का हिन्दी साहित्य जगत और राजधानी के विश्वविद्यालयों का हिन्दी शिक्षण जगत बीती सदी के उत्तरार्ध्द में कैसे बदलता गया, साहित्य जगत में किस तरह की राजनीति चलती रही और इसके समानांतर किस तरह रचनाकर्म, शोध जैसे कार्य होते रहे...यह सब गहराई से समझने के लिए निर्मला जैन की कृति 'जमाने में हम' बड़ी उपयोगी है. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित यह कृति निर्मला जैन की आत्मकथा है.

निर्मला जैन ने अपने इस जीवन वृत्तांत के जरिए पचास वर्षों का ऐसा लेखाजोखा पेश किया है जो उनके जीवन संघर्ष को तो बयां करता ही है, साथ में इस दौरान बदली दिल्ली, यहां की संस्कृति, कला और साहित्य से भी रूबरू कराता है. निर्मला जैन सन 1956 से लेकर 1984 तक लेडी श्रीराम कॉलेज और दिल्ली विश्वविद्यालय में व्याख्याता, प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष रही हैं. इस दौरान उन्हें मिले अनुभव इस पुस्तक में समाहित हैं.

सन 1932 में एक पारंपरिक व्यापारी परिवार में जन्म लेने से लेकर शिक्षित होने और अपने पैरों पर खड़े होने तक के संघर्ष की कहानी निर्मला जैन ने बहुत ईमानदारी से लिखी है. वे ऐसे परिवार में जन्मीं जिसमें पढ़ने-लिखने की कोई पंरपरा नहीं थी लेकिन उनके पिता अपने बच्चों को उच्च शिक्षित और समाज में प्रतिष्ठित देखना चाहते थे. उन्होंने न सिर्फ उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए बेहतर मौके उपलब्ध कराए बल्कि उनमें कलात्मक अभिरुचि विकसित करने के लिए भी माहौल और साधन दिए. निर्मला जैन ने शिक्षा के साथ-साथ शास्त्रीय नृत्य और सरोद वादन का हुनर भी सीखा. पारिवारिक कलह और जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच उन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया.

जिस परिवार में कोई स्नातक तक नहीं हो सका था उसी परिवार की निर्मला जी ने डी लिट किया और फिर लेडी श्रीराम कॉलेज में व्याख्याता से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के साउथ कैम्पस के हिन्दी विभाग में अध्यक्ष तक के पद पर पहुंचीं. इस संघर्ष यात्रा में उनके पति सदा उनके मददगार रहे.  

निर्मला जैन ने 'जमाने में हम' में अपनी उन तमाम छोटी-बड़ी अनुभूतियों को साझा किया है जो उनके जीवन में अहमियत रखती हैं. उन्होंने उन तमाम कवियों, लेखकों के साथ उनके संबंधों का उल्लेख किया है जो उनकी जीवनयात्रा में या तो उनके मददगार रहे या जिनकी प्रतिद्वंदिता का उन्हें सामना करना पड़ा. उन्होंने उन समकालीन प्राध्यापकों का भी जिक्र किया है जो पद के लिए दौड़ में उनके प्रतिस्पर्धी रहे या फिर सहयोगी रहे. अपने गुरुजन और कुछ निरपेक्ष भाव से मदद करने वालों का भी उन्होंने बड़ी संजीदगी से उल्लेख किया है. डॉ नागेंद्र, नामवर सिंह, भारतभूषण अग्रवाल, राजेंद्र यादव, अजीत कुमार, मन्नू भंडारी, नरेंद्र शर्मा जैसे न जाने कितने मूर्धन्य साहित्यकार हैं जिनका सानिध्य निर्मला जी को मिला. इन सबसे संबंधों में उतार-चढ़ाव और समय के साथ बदलते हालात का विश्लेषण भी निर्मला जी की आत्मकथा में है.

वास्तव में 'जमाने में हम' एक ऐसी रचना है जो हिन्दी साहित्य और हिन्दी की उच्च शिक्षा में रुचि रखने वालों के अलावा आम सुधिजन के लिए भी रुचिकर होगी.


सूर्यकांत पाठक Khabar.ndtv.com के डिप्टी एडिटर हैं.

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