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This Article is From Apr 08, 2016

शनि मंदिर : इजाजत से बहस की नई फाइल खुली

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 08, 2016 20:29 pm IST
    • Published On अप्रैल 08, 2016 19:34 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 08, 2016 20:29 pm IST
शनि मंदिर में महिलाओं को तेल चढ़ाने की मनाही थी। इस पाबंदी के खिलाफ मुकदमा अदालत गया। अदालती फैसला आया कि लिंग के आधार पर यह भेदभाव गलत है। पाबंदी हटाने का फैसला हुआ। इसी बीच परंपरावादियों ने हरचंद कोशिश की कि यह परंपरा बनी रहे। यहां तक कि मंदिर के ट्रस्ट ने एक नया नियम बना लिया था कि महिला हो या पुरुष कोई भी तेल नहीं चढ़ाएगा। सिर्फ पुजारी ही तेल चढ़ाएंगे। मंदिर ट्रस्ट की तरफ से इस तरह भेदभाव का मुद्दा संभालने की कोशिश हुई। लेकिन इस बात से पुरुष नाराज हो गए।

आखिर में आज यह दिन भी आ गया कि पुरुष धार्मिकों ने ताबड़तोड़ ढंग से मंदिर ट्रस्ट की सारी रोकों को फांदकर शनि की मूर्ति पर तेल चढ़ा दिया। यानी पुरुषों ने ट्रस्ट का नियम मानने से इनकार करके सनसनी फैला दी। धर्म का मामला है। आस्था और घार्मिक मामलों में ज्यादा सोच विचार की बातों की गुंजाइश बची नहीं है। हां, सीधे ही भौतिक क्रिया का पूरा  माहौल जरूर है। इसी क्रिया ने धार्मिक परंपरा में सुधार या उन्हें बनाए रखने के विवाद को खड़ा कर दिया है।  

क्या यह अजीब बात नहीं है कि सोचने-विचारने और कहने पर अघोषित पाबंदी का माहौल है लेकिन कार्रवाई में कोई हिचक नहीं। बहरहाल मंदिर की सनसनीखेज घटनाओं की खबरें शुरू हो गई हैं। हालांकि ये खबरें वहां के मौजूदा सूरत-ए-हाल के बयान से ज्यादा आगे कुछ नहीं बता पातीं। फिर भी छह महीने से चर्चा में आए शनि मंदिर कांड में सनसनी का तत्व तो है ही। और आस्था और भक्ति के क्षेत्र की घटना में सनसनी का तत्व भी शामिल हो तो बात तो निकलकर बहुत आगे बढ़ेगी ही। इस स्थिति में कोई आश्चर्य नहीं कि प्राचीन शास्त्रार्थों की तरह विद्वानों में बहस होने लगे।

धर्म की व्याख्या का मौका है
शनि मंदिर कांड के बहाने एक जरूरी बात की जा सकती है। मसलन मानव की विकास यात्रा में जो बहुत सारे काम अधूरे पड़े हैं उनमें एक काम धर्म की व्याख्या का है। मसला चूंकि आस्था और भक्ति का है, सो यह काम आसान कभी नहीं रहा। उस काल में यानी जब 2100 साल पहले विमर्श यानी शास्त्रार्थ का स्वर्णकाल था तब भी मत मतांतरों पर सर्वसम्मत न्याय हो नहीं पाया।

इस बीच धार्मिक नेताओं ने अपने अपने मत, अपनी अपनी भक्ति की स्वतंत्रता हासिल कर ली। खुद को सही मानकर दूसरे को भी सही करने की जिद का भी विकास कर लिया। फिर भी समय समय पर धर्म को परिभाषित करने की नाकाम कोशिशें जरूर होती रहीं। यहां नाकाम से हमारा मतलब सर्व स्वीकार्य परिभाषा बना पाने की नाकामी है। लेकिन ऐसा भी नहीं हैं कि हमारे आधुनिक विद्वानों ने कम विवाद वाली परिभाषा प्रस्तुत न कर पाई हो। यह काल दूसरे की बात को पहली नजर में गलत मानकर चलने का दुष्काल है। सो इसके प्रस्तोता या प्रवक्ता आचार्य का नाम लेने से बच कर चलेंगे। उनकी बात को गणितीय समीकरण में रखने की कोशिश करेंगे।

नैतिकता, अध्यात्म और कर्मकांड का योग बताया था धर्म को
उस विमर्श में प्रस्ताव रखा गया था कि धर्म के तीन तत्व मान लिए जाएं। इन तीन तत्वों में पहला तत्व नैतिकता यानी जिसके पास सही गलत बातों की संहिता हो, दूसरा अध्यात्म यानी उसके पास भावना का तत्व हो और तीसरा कर्मकांड यानी उपासना। इसी दौरान यह बात रखी गई कि जितने भी धर्म या मत या पंथ हैं उनकी नैतिक संहिताओं में कोई ज्यादा अंतर नहीं दिखता। भावना बिल्कुल ही निजी मामला है और निजता के कारण ज्यादा विवाद की गुंजाइश नहीं छोड़ता। बचा कर्मकांड या उपासना सो सब अलग-अलग तरीके से उपासना करें तो तब तक कोई विवाद नहीं होना चाहिए जब तक दूसरे की उपासना पद्धति पर कोई ऐतराज नहीं करता। यहां यह बताया गया था कि अगर किसी के धर्म को समझना हो तो उसे नैतिकता के तत्व से समझा या चिन्हित किया जा सकता है। लेकिन आज दिखता यह है कि नैतिकता और अध्यात्म तत्व को छोड़कर धर्म सिर्फ कर्मकांड के ही रूप में बढ़ता चला जा रहा है।

नैतिक पक्ष पर गौर किया होगा अदालत ने
नैतिकता की जो परिभाषा हम सभी विद्यार्थियों को निर्विवाद रूप से पढा रहे हैं। वह परिभाषा बताती है कि सही वह है जो मानव समाज के लिए सही है। यहीं पर हम नस्ल, जाति, लिंग, रंग, क्षेत्र धर्म, मत मतातंरों को लेकर भेदभाव न करने पर सहमत हुए हैं। शनि मंदिर का मसला लिंग के आधार पर उपासना में भेदभाव नहीं करने का सीधा साधा मसला है। न्याय करने का और कोई तरीका हमने छोड़ा नहीं है सो मौजूदा न्यायालयी व्यवस्था पर आस्था के अलावा कोई चारा हमारे पास है नहीं। इसी आधार पर शनि मंदिर मामले में अदालती फैसला हुआ है कि महिलाएं भी शनि मंदिर में तेल चढ़ा सकती हैं।

दिक्कत कहां आ रही थी
मंदिर के ट्रस्ट ने एक कदम उठा लिया था कि मंदिर के चबूतरे पर पुरुष और महिलाओं, दोनों के जाने पर पाबंदी लगा दी। इससे लिंग भेद का मसला ही खत्म करने की कोशिश हुई। यानी कहने को ये तर्क कि किसी को भी तेल नहीं चढ़ाने दिया जाएगा। तेल चढ़ाने का काम सिर्फ पुजारी करेंगे, लेकिन यह उपाय काम नहीं आया। मामले की एक दूर अंदेशी बात पर भी गौर करते चलना चाहिए कि अदालती आदेश महिलाओं को वहां जाने के लिए प्रोत्साहित करने और वहां जाने पर पाबंदी, दोनों का विरोध कर रहा है। इस लिहाज से अदालत का फैसला सिर्फ लिंग के आधार पर भेदभाव के खिलाफ ही समझ में आता है।

इससे यह भी पता लग रहा है कि धर्म के मामलों और खासतौर पर धार्मिक कर्मकांड के मामले कितने जटिल हैं? और यह कौन नहीं जानता कि हमारे वैधानिक जनतंत्र की भी एक सीमा है। हमेशा से अपने वैधानिक जनतंत्र में ऐसे मामलों में अदालतें सबसे पहले यही चाहती हैं कि धर्म के मामलों में लोग आपस में मिल-बैठकर ही तय करें। कुछ भी तय करने के लिए सब तरह की बातचीत करनी पड़ती है। लेकिन तार्किक  ढंग से बातचीत का माहौल तो दिन पर दिन खत्म ही होता चला जा रहा है। ऐसे में अगर हम सामाजिक स्तर पर तय करने के काबिल नहीं बचे तो अदालत के अलावा चारा ही क्या बचता है। फिर भी इतना तो तय है कि अब तरह-तरह की ऐसी विसंगतियों को सामने लाने का सिलसिला चल पड़ेगा। कम से कम इस बात को तो शनि मंदिर कांड का शुक्ल पक्ष माना जाना चाहिए।

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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