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This Article is From Feb 09, 2017

पत्थरों की रिसती धूल से सांसों में जमती मौत

Prashant Kumar Dubey
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 09, 2017 17:18 pm IST
    • Published On फ़रवरी 09, 2017 00:16 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 09, 2017 17:18 pm IST
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के कलेक्ट्रेट परिसर में जन सुनवाई में आसींद तहसील के रघुनाथपुरा गांव के गोपी (64 वर्ष), जो कि बोल और सुन नहीं सकते हैं, और उनका एक हाथ भी नहीं है, अपनी व्यथा कहने आए हैं. उन्हें विकलांग पेंशन मिलती हैं लेकिन पिछले पांच माह से वह भी नहीं मिली है. उनकी पत्नी टीबी की बीमारी से चल बसी. घर में एक लड़का और एक लड़की है. लड़की, मां की मौत के बाद से सदमे में है, लिहाजा बहुत ही गुमसुम रहती है. वह सिर्फ सभी की खाना-खुराक पूरी कर देती है. सवाल यह है कि घर खर्च कैसे चले. तो क्या गोपी मजदूरी भी नहीं कर सकते हैं? इसका जवाब भी है - नहीं.

भरी जवानी में गोपी ने आसपास की आरोली पत्थर खदानों में काम करना शुरू किया था. पत्थरों को तोड़ना इनका शगल था, पर अब इन्हें सिलिकोसिस बीमारी हो गई है. तीन बीघा खेती है, लेकिन पत्नी की बीमारी में कर्ज के चलते गिरवी रखा गई. हालंकि गोपी बोल नहीं सकते लेकिन हर आती-जाती सांस के साथ उनके फूलते नथूने और उनकी कराह उनके हाल बया करं देती है.

रघुनाथपुरा में केवल गोपी नहीं, बल्कि 56 और लोग हैं जो अब सिलिकोसिस की जद में हैं. ऐसा नहीं कि यह कहानी केवल रघुनाथपुरा की है, बल्कि भीलवाड़ा की बनेड़ा तहसील के सालरिया पंचायत के श्री जी के खेड़ा गांव की पीड़ा तो और भी भयावह है. इस गांव में 60 घरों में 70 से अधिक विधवा महिलाएं रहती है, लेकिन इन विधवाओं को जिला प्रशासन से आज तक राहत नहीं मिली है, जबकि इन्हें खुद भी सिलिकोसिस है. इसी गांव के शंकर (42 वर्ष) की मौत पिछले माह ही हुई है. वह सिलिकोसिस का बोझ ज्यादा दिन अपने कंधे पर ढो न सका.

सवाल यह है कि जब लोगों को पता चल गया कि ये बीमारी जानलेवा और लाईलाज है तो फिर इन खदानों में काम ही क्यों करना..! क्योंकि यहां पर मनरेगा का काम खुलता नहीं है. काम मांगने और न देने पर कानूनन मजदूरी भत्ता मिलता नहीं है. ऐसे में ले देकर यही विकल्प बचता है और इसमें भी मजदूरी बाहर की अपेक्षा ज्यादा मिलती है. यह साल भर मिलने वाला काम है. बस यही मजबूरी इन मजदूरों को जिंदगी से मोह करते हुए भी मोह भंग करा देती है. सवाल यह भी है कि जब स्थिति इतनी भयावह है तो फिर सरकार क्या कर रही है.

अव्वल तो सरकार ने पहले यह माना ही नहीं कि सिलिकोसिस नामक कोई रोग भी है. सरकारी नुमाइंदे मजदूरों को टीबी जानकर उनका इलाज करते रहे, जब स्थिति काबू के बाहर होने लगी तो उच्चतम न्यायालय को संज्ञान लेना पड़ा. इसके बाद भी प्रशासन ने न तो सिलिकोसिस की जांच में तत्परता दिखाई और न ही प्रमाणपत्र के बाद मिलने वाले मुआवजे को देने में. पूरे जिले में अभी केवल 1050 लोगों को ही चिन्हित कर प्रमाणपत्र वितरित किए गए हैं, जबकि इन खदानों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या 20,000 के करीब है. ज्ञात हो कि सिलिकोसिस से पीड़ित व्यक्ति को राहत के रूप में एक लाख और मृत्यु पर तीन लाख का मुआवजा दिया जाता है.

किन मजदूरों को सिलिकोसिस हुआ है, उसकी पहचान भी बड़ी टेढ़ी खीर है. महीने में एक बार न्यूमोकोनोसिस बोर्ड जिला मुख्यालय पर बैठता है और जांच करता है. यह जांच भी एक्सरे के माध्यम से ही की जाती है, जिससे कई मरीज तो पकड़ में ही नहीं आ पाते हैं. राजस्थान में कहीं पर भी ILO Plate नहीं है जिस पर आसानी से सिलिकोसिस के लक्षण पढ़े जा सकते हैं. इसके अलावा UNGSYSP भी राजस्थान में अभी नहीं है. यह खतरे वाला काम भी है, क्योंकि इसमें सुई को फेफड़ों में घुसाकर वहां से नमूना लिया जाता है. हालांकि भीलवाड़ा में बने दबाव से अब यह बोर्ड माह में 2-3 बार बैठने लगा है. पहचान हो जाये तो भी मुआवजे की राशि मजदूरों के खातों तक पहुंचने में बड़ी दिक्कत है. कुछ मजदूरों का खाता तो जन-धन योजना के तहत खुला था, जिसमें 50,000 रुपये से ज्यादा की राशि जा नहीं सकती थी, इसलिये उनका चेक वापस आ गया.

मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के निखिल डे इस प्रक्रिया पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं कि यह विरोधाभासी प्रक्रिया है. वे कहते हैं कि सिलिकोसिस की पहचान होने पर मजदूर को राहत राशि दी जाएगी, लेकिन यह राशि मिलने के लिए मजदूर को न्यूमोकोनोसिस बोर्ड को यह बताना पड़ेगा कि उसने किस खदान में काम किया है. वे कहते हैं कि सामान्यतः मजदूर कई खदानों में काम करते रहते हैं और खान मालिक भी मजदूरों का चुस्त–दुरुस्त रिकार्ड नहीं रखते हैं. इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि कुछ लोगों को सिलिकोसिस केवल इसलिये भी हुई क्योंकि वे अप्रत्यक्ष रूप से इसके प्रभाव में हैं. उन्हें भी साबित करना है कि उन्हें सिलिकोसिस कैसे हुई? जबकि माननीय उच्चतम न्यायालय का कहना है कि राहत तो सभी को मिलना चाहिए.

यदि मजदूर की मौत हो जाए तो उसके परिवारजनों को 3 लाख रुपये की राशि मिलती है, लेकिन इसके पीछे भी एक प्रक्रिया है. प्रभावित की मौत होने के बाद न्यूमोकोनोसिस बोर्ड के समक्ष ही उसका पोस्टपार्टम जरूरी है. उसके बाद ही उसे हकदार माना जाएगा. निखिल कहते हैं कि सिलिकोसिस एक लाईलाज बीमारी है और जब एक बार व्यक्ति का प्रमाणीकरण हो गया है कि वह सिलिकोसिस का ही मरीज है, तो फिर इसके क्या मायने हैं? यदि कोई मेडिको-लीगल मामला हो तो बात अलग है.

मजदूरों की त्रासदी यहीं नहीं कम होती है. जहाजपुर तहसील के गडबदिया गांव के मदनदास का दर्द अलग है. उनके गांव में 150 मजदूरों में से केवल उनका ही सिलिकोसिस का प्रमाणपत्र बना, लेकिन उसके ठीक दूसरे दिन ही उनके सहित 40 लोगों को एक साथ काम से बिठा दिया गया है. एक तरफ श्रम कानून हैं, दूसरी ओर मदनदास जैसे लोग जमीनी चुनौतियों से जूझ रहे हैं.

इन पत्थर खदानों का गणित भी बड़ा ही गजब का है. पत्थर खदान की लीज पाने के लिए आवेदक को कलेक्टर कार्यालय में आवेदन देना होता हैं. इस आवेदन को कोई भी व्यक्ति कर सकता है, पर यह भी उतना ही सच है कि खदानें रसूखदारों को ही मिलती है? कहने को यह सभी के लिए खुली प्रक्रिया है, लेकिन यही प्रक्रिया स्थानीय जनों और पंचायती राज के लिहाज से भी एक चुनौती ही है, जबकि हम सभी जानते हैं कि स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय समुदाय का ही पहला हक है, लेकिन ऐसा होता नहीं है.

अब सरकार कह रही है कि खदान मजदूरों के लिए खुली सांस प्रोजेक्ट शुरू होगा जिसमें कि भीलवाड़ा सहित अन्य 19 जिले शामिल हैं. ज्ञात हो कि राज्य के 20 जिलों के 34 ब्लॉकों में व्यापक स्तर पर खनन का काम होता है. बहरहाल इस पूरी कवायद में यह तो तय है कि अभी हो रहे सारे जतन केवल फटे आसमां में थेगड़े लगाने जैसी हैं क्योंकि रोकथाम को लेकर तो कोई भी प्रयास नहीं हैं. हालांकि इस समस्या का एक सिरा समाज की ओर भी आता है, क्या हम अपने घरों में चमचमाते पत्थरों से परहेज करने की तैयारी कर सकते हैं.

(प्रशांत कुमार दुबे सामाजिक मुद्दों पर निरंतर लिखते रहे हैं)

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