हाल ही में एनसीपी (अजीत) के नेता और महाराष्ट्र के नागरी आपूर्ति मंत्री छगन भुजबल ने एकनाथ शिंदे की सरकार से अपने इस्तीफे की खबर देकर सबको चौंका दिया. भुजबल का कहना था कि ये इस्तीफा उन्होंने 16 नवंबर को दिया था जो कि मंजूर नहीं हुआ. बीते चंद महीनों से भुजबल ओबीसी कोटे से मराठा आरक्षण के विरोध और अपनी ही सरकार के प्रति बागी तेवर दिखाने की वजह से सुर्खियों में हैं. दरअसल भुजबल इस वक्त जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसके पीछे उनका मकसद राज्य का सबसे बड़ा ओबीसी नेता बनने की महत्वाकांक्षा है.
ओबीसी समुदाय से आते हैं छगन भुजबल
छगन भुजबल ओबीसी समुदाय से आते हैं और उनकी पहचान भी एक ओबीसी नेता की रही है. महाराष्ट्र में ओबीसी समुदाय की आबादी 38 फीसदी से अधिक है और ओबीसी वोटर पश्चिम महाराष्ट्र, खानदेश और मराठवाडा को मिला कर करीब 20 लोकसभा सीटों और 120 से 130 विधानसभा की सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. साल 2014 तक बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र में इस समुदाय के सबसे बड़े नेता माने जाते थे और मराठवाडा के ओबीसी बहुल इलाकों में उनका अच्छा जनाधार था, लेकिन उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके कद का कोई दूसरा राजनेता महाराष्ट्र की सियासत में नहीं था. उनकी बेटी पंकजा मुंडे की भी ओबीसी समुदाय में पैठ जरूर है लेकिन वैसी नहीं जैसी की पिता की थी. जब मराठा आरक्षण का मुद्दा गर्माया तो शुरुआत में मुंडे ने इसके विरोध के कुछ बयान जरूर दिए लेकिन पार्टी नेतृत्व से हिदायत मिलने के बाद वो इस मुद्दे पर बोलना टालतीं आयीं हैं. बीजेपी के लिए बीते तीन दशकों में ओबीसी समुदाय एक बड़ा वोट बैंक बनकर उभरा है. दूसरी ओर भुजबल के लिए मराठा आरक्षण का मुद्दा अपने आपको ओबीसी का सबसे बड़ा नेता साबित करने के लिए एक सुनहरा मौका बनकर सामने आया है.
दरअसल मराठा आंदोलनकारी मांग कर रहे हैं कि सरकारी नौकरियों और शिक्षा में उन्हें आरक्षण दिया जाए. शिंदे सरकार ने कहा कि जिन लोगों के निजाम शासनकालीन दस्तावेज मिलते हैं. जिससे ये साबित हो कि वे कुनबी मराठा हैं तो फिर उन्हें ओबीसी कोटे से आरक्षण दे दिया जायेगा. हाल ही में सरकार ने आंदोलकारियों की ये मांग भी मान ली कि जिनके दस्तावेज मिल रहे हैं उनके सगे संबंधियों को भी आरक्षण दिया जायेगा. साथ ही सरकार ने भरोसा दिलाया कि आंदोलन के दौरान हिंसक वारदातों को अंजाम देने के लिए जिन आंदोलकारियों पर आपराधिक मामले दर्ज किये गये थे उन्हें सरकार वापस लेगी.
भुजबल ने अपनी सरकार के इस रवैये पर सवाल उठाया और सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि उसे इस तरह से मराठाओं के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए थे. अगर मराठाओं को सरकार आरक्षण देना चाहती है तो अलग से दे लेकिन ओबीसी कोटे पर अतिक्रमण करके नहीं. सरकार की ओर से आपराधिक मामलों को वापस लेने के फैसले को भी उन्होंने गलत बताया. भुजबल ने अपना विरोध सिर्फ बयानबाजी तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि ओबीसी समुदाय को साथ लेकर एक जमीनी आंदोलन भी शुरू कर दिया. उनकी ओर से अब तक राज्य के अलग-अलग इलाकों में पांच ओबीसी यलगार सभाएं ली जा चुकीं हैं. इन सभाओं में उन्होंने मराठा आंदोलनकारियों के नेता मनोज जरांगे पाटिल के खिलाफ बयान दिया है.
भुजबल के इस रवैये से शिंदे सरकार पसोपेश में है. महाराष्ट्र में सियासी तौर पर मराठा और ओबीसी समुदाय दोनों ही अहम हैं और कोई भी पार्टी चुनावी साल में इन समुदायों से नाराजगी का जोखिम नहीं उठा सकती. राज्य में 32 फीसदी आबादी के साथ मराठा दूसरा सबसे बड़ा समुदाय है. मराठवाडा की दस लोकसभा सीटों और 60 से 80 विधानसभा सीटों पर मराठा वोटर निर्णायक भूमिका अदा करते हैं...लेकिन मराठाओं को शांत करने के चक्कर में ओबीसी नाराज हो रहे हैं और भुजबल आग में घी डालने का काम करते नजर आ रहे हैं. ऐसे में सरकार के ही दूसरे मंत्रियों की ओर से सरकार के घटक दल शिंदे सेना की ओर से भी उनके खिलाफ आवाजें उठ रहीं हैं. सरकार में शिंदे सेना से मंत्री शंभुराजे देसाई ने कहा कि भुजबल को इस तरह की बयानबाजी करने की आदत है. वे ये सब पब्लिसिटी के लिए कर रहे हैं. शिंदे सेना के एक विधायक संजय गायकवाड ने मुख्यमंत्री को सलाह दी कि भुजबल के मन में मराठाओं के प्रति द्वेष है. इन सबके बावजूद भुजबल की मुहीम जारी है और उनका कहना है कि वे किसी भी परिणाम के लिए तैयार हैं.
छगन भुजबल के बागी तेवर
वैसे छगन भुजबल के बागी तेवर उनके सियासी करियर की शुरुआत से रहे हैं. 1991 में शिव सेना में जो पहली बगावत हुई थी वो भुजबल की अगुवाई में ही हुई थी. भुजबल शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की ओर से मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ दिए गए बयान से नाराज थे. ठाकरे ने उस साल विरोधी पक्ष के नेता का पद उन्हें न देकर मनोहर जोशी को दे दिया था, इस बात से भी वे खफा थे. ऐसे में शरद पवार के कहने पर 18 विधायकों के साथ वे कांग्रेस में शामिल हो गए.
बहरहाल, महाराष्ट्र के सियासी गलियारों में कयास लगाए कि रहे हैं कि जिस तरह से भुजबल ने बागी तेवर अपना रखे हैं, वे कोई बड़ा कदम उठा सकते हैं. हो सकता है कि वे अपना खुद का कोई संगठन खड़ा कर दें या फिर एनसीपी छोड़कर किसी दूसरे दल में शामिल हो जाएं.
(जीतेंद्र दीक्षित मुंबई में बसे लेखक और पत्रकार हैं)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.