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This Article is From Jan 17, 2019

फ़सल बीमा से निजी कंपनियां बम-बम, सरकारी कंपनियों को घाटा

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 29, 2019 14:04 pm IST
    • Published On जनवरी 17, 2019 12:31 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 29, 2019 14:04 pm IST

फ़सल बीमा से निजी बीमा कंपनियों को 3000 करोड़ का लाभ और सरकारी बीमा कंपनियों को 4085 करोड़ का घाटा हुआ है. मार्च 2018 में ख़त्म हुए सालाना बहीखाते से यह हिसाब निकला है. इंडियन एक्सप्रेस में जॉर्ज मैथ्यू की रिपोर्ट छपी है. आख़िर फ़सल बीमा की पॉलिसी खुले बाज़ार में तो बिक नहीं रही. बैंकों से कहा जा रहा है कि वह अपने लोगों ने इनकी पॉलिसी बेचें. प्राइवेट कंपनियों ने अपनी पालिसी बेचने के लिए न तो कोई निवेश किया और न ही लोगों को रोज़गार दिया. सरकारी बैंकों के अधिकारियों से ही कहा गया कि आप ही बेचें. इस तरह की नीति ही बनाई गई.

इस लिहाज़ से देखेंगे तो निजी बीमा कंपनियों का मुनाफ़ा वास्तविक अर्थों में कई गुना ज़्यादा होता है. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में वाजिब सवाल किया गया है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पॉलिसी को बेचने में ही इस तरह का हिसाब किताब हो कि प्राइवेट बीमा कंपनियों को लाभ हो. इन कंपनियों के पीछे कौन है, इनके लाभ के कितने हिस्से पर किसका अधिकार है, यह सब आप कल्पना तो कर ही सकते हैं. ऐसी चीज़ें हवा में नहीं घट जाती हैं.

आप बैंक वालों से बात करेंगे तो वे बता देंगे कि फ़सल बीमा में निजी बीमा कंपनियों को प्रमोट किया जा रहा है. किसी ज़िले के भीतर एक ही बीमा कंपनी को टेंडर मिलता है. उसका एकाधिकार हो जाता है. कंपनियां मनमानी भी करती हैं. इन पर राजनीतिक नियंत्रण काम करता है. वह इससे पता चलता है कि जब चुनाव आता है तब ये कंपनियां किसानों के दावे का भुगतान तुरंत करने लगती हैं. जैसा कि मध्य प्रदेश के मामले में देखा गया और मीडिया में रिपोर्ट भी हुआ.

सरकार का काम है कि वह ऐसी नीति बनाए कि सरकारी बीमा कंपनियों को प्रोत्साहन मिले. मगर जनता के पैसे से चलने वाले सरकारी बैंक के अधिकारियों को निजी बीमा कंपनी की पॉलिसी बेचने के लिए मजबूर किया गया. बीमा नियामक IRDA की सालाना रिपोर्ट से पता चलता है कि 11 निजी बीमा कंपनियों ने 11,905 करोड़ रुपये प्रीमियम के रूप में वसूले हैं. मगर उन्हें दावे के रूप में 8,831 करोड़ का ही भुगतान करना पड़ा है. पांच सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियों ने प्रीमियम की राशि के रूप में 13, 411 करोड़ वसूले. लेकिन किसानों के दावे का भुगतान किया 17,496 करोड़.

सरकारी बीमा कंपनियों में सबसे ज़्यादा घाटा कृषि बीमा कंपनी AIC को हुआ है. 4000 करोड़ से अधिक का नुकसान एक कंपनी को उठाना पड़ा है. दूसरी तरफ निजी बीमा कंपनी आईसीआईसी लोम्बार्ड को 1000 करोड़ का लाभ हुआ. रिलायंस जनरल को 706 करोड़ का लाभ हुआ. बजाज आलियांज़ को 687 करोड़, एचडीएफसी को 429 करोड़ का लाभ हुआ है.

अब जब आप इस आंकड़ें को देखेंगे तो खेल समझ आ जाएगा. निजी कंपनियों पर क्लेम देने का दबाव कम होता होगा. मगर सरकारी बीमा कंपनी से प्रीमियम की राशि से भी ज्यादा क्लेम का भुगतान कराया गया. तभी कहा कि फसल बीमा का कुछ हिस्सा राजनीतिक रूप से मैनेज किया जा रहा है. जैसा कि मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के समय हुआ. कभी आप स्वयं भी समय निकाल कर फ़सल बीमा के दावों से संबंधित किसानों की परेशानियां वाली ख़बरों को पढें. किसी बैंकर से पूछे तो बता देगा कि दरअसल वह फसल बीमा के नाम पर प्राइवेट कंपनी की पालिसी बेच रहा है.

बिजनेस स्टैंडर्ड में कपड़ा उद्योग का विश्लेषण पेश किया गया है. पिछले तीन साल से इस सेक्टर का निर्यात 17 अरब डॉलर पर ही स्थिर हो गया है. ऐसा नहीं हैं कि मांग में कमी आ गई है. ऐसा होता तो इसी दौरान बांग्लादेश का निर्यात दोगुना नहीं होता. अख़बार में टी ई नरसिम्हन ने लिखा है कि भारत सरकार ने मुक्त व्यापार समझौते करने में उदासीनता दिखाई जिसके कारण हम टेक्सटाइल सेक्टर में पिछड़ते जा रहे हैं. टेक्सटाइल सेक्टर के कारण ही बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो गई है. उसके 2021 तक मिडिल इंकम ग्रुप में पहुंचने की बात होने लगी है. वहां पर कपास की खेती भी नहीं होती है. भारत दुनिया में सबसे अधिक कपास उगाता है, और टेक्सटाइल सेक्टर पर पहले से बढ़त बनाने वाला रहा है. इसके बाद भी वह इन तीन सालों में बांग्लादेश से पिछड़ गया.

अब तो लोग भारत के टेक्सटाइल सेक्टर के ख़ात्मे का भी एलान करने लगे हैं. टेक्सटाइल सेक्टर काफी रोज़गार देता है. जब यह सेक्टर डूब रहा हो, स्थिर हो चुका हो तो रोज़गार पर भी क्या असर पड़ता होगा, आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। कुछ कमियां सेक्टर के भीतर भी हैं. कहा जा रहा है कि वह नए नए प्रयोग नहीं कर रहा है. अपनी लागत में कमी नहीं ला पा रहा है. बांग्लादेश में एक शिफ्ट में 19-20 पीस कपड़ा तैयार होता है जबकि भारत में 10-12 ही. भारत में मज़दूर को एक महीने का 10000 देना पड़ता है तो बांग्लादेश में 5000 से 6000 ही. एक समय बांग्लादेश भी महंगा हो जाएगा और श्रीलंका की तरह उभर कर पिछड़ जाएगा. फिलहाल भारत को इस सेक्टर की यह स्थिरता भारी पड़ रही है.

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