इंसाफ़, यूरिया और महंगाई - लाइन में लगे रहो भाई

आर्यन खान ही नहीं, चंगुल में ऐसे कितने ही लोग फंसते चले जाते हैं, पुलिस और जांच एजेंसियों के अपराधीकरण का राष्ट्रीयकरण हो चुका है

भांति-भांति के गोरखधंधों में शामिल अफ़सरों के सहारे किसी को फंसा देने के मामले में भारत में एक नहीं, अनगिनत विश्वगुरु हैं. उनकी कहानियों से दिल दहलता है और बहलता भी है लेकिन ऐसे अफसरों की तादाद इतनी है कि एक को हटा कर दूसरा लाया जाता है और खेल वही चलता है. आर्यन ख़ान ही नहीं, इनके चंगुल में ऐसे कितने ही लोग फंसते चले जाते हैं. पुलिस और जांच एजेंसियों के अपराधीकरण का राष्ट्रीयकरण हो चुका है. एक राष्ट्र, एक अपराधी. बाकी सब उसके सिपाही. अफसर को भी पता नहीं होता कि उसका किस तरह से इस्तमाल होने वाला है. दांव पर सब हैं और छांव में सिर्फ वो है. सबका मालिक एक. आर्यन ख़ान तो सिर्फ एक उदाहरण है. 3 अक्तूबर से आर्यन ख़ान हिरासत में हैं लेकिन उनकी मेडिकल जांच नहीं हुई है. आर्यन के पास से कोई ड्रग्स नहीं मिला है. इसी आधार पर मुकुल रोहतगी ने बांबे हाईकोर्ट के सामने अपनी बहस शुरू की और कहा कि एनसीबी के अधिकारी पुलिस अधिकारी की तरह होते हैं और इनके सामने दिया गया कोई भी बयान कोर्ट में स्वीकार्य नहीं होता है. मुकुल रोहतगी ने यह भी कहा कि उनके मुवक्किल का समीर वानखेडे और पंच को लेकर हुए विवाद से कोई संबंध नहीं है.

रोहतगी ने कहा कि आरोपी आर्यन ख़ान ग्राहक नहीं थे. उन्हें स्पेशल गेस्ट के तौर पर गिरफ्तार किया गया था. उनके पास से कुछ नहीं मिला है और न आर्यन ने सेवन किया है. आर्यन की गिरफ्तारी ही ग़लत थी. कोई अपने जूते में कुछ रखता है तो आर्यन कैसे आरोपी बन सकता है. आर्यन का मामला conscious possession का बनता ही नहीं है. दूसरों के पास ड्रग्स मिला है तो आर्यन को कैसे साज़िश से जोड़ सकते हैं. वहां कोई सेवन भी नहीं कर रहा था, सिर्फ पास से मिला है. आर्यन के पास तो कुछ नहीं मिला. आर्यन ने किसी को पैसे भी नहीं दिए हैं तो यह ड्रग ट्रैफिकिंग नहीं है. आज 23 दिन हो गए. या तो केस नहीं बनता है या फिर आरोपी 2 यानी आर्यन के पास से सिर्फ 6 ग्राम की बरामदगी के हिसाब से जमानती केस है. रोहतगी ने कहा कि व्हाट्सएप चैट की बात हो रही है. वे रिकार्ड पर नहीं हैं लेकिन उनका हवाला दिया जा रहा है. इनमें से किसी भी चैट का क्रूज़ पार्टी से कोई संबंध नहीं है. जो भी बातचीत है उसे क्रूज़ पार्टी के समय से मिलाकर तो देखना ही होगा. ऐसे साज़िश नहीं कह सकते हैं. कानून में इतनी कम मात्रा के लिए अधिक से अधिक एक साल की सज़ा है, न्यूनतम तो कुछ भी नहीं लिखा है. और अगर पुनर्वास में जाता है तो वो भी नहीं है.

सवाल यही है कि क्या आर्यन को फंसाया गया है? नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारी समीर वानखेडे पर लगे आरोपों की जांच करेंगे. यह सब होता रहेगा कि अगर फंसाया गया है तो यह कितना भयावह है. 23 दिनों तक किसी को जेल में रखो, टीवी के लिए डिबेट पैदा करो और फिर केस को लापता कर दो. यह कोई पहला मामला नहीं है. ऐसे अनेक केस हुए हैं. इसी तरह डॉ कफील ख़ान को सात महीने जेल में रखा गया. उन पर अवैध NSA लगा कर. अवैध NSA लगाने वाले का कुछ नहीं हुआ. आर्यन का मामला क्या स्थानीय स्तर पर अफसरों के बीच की राजनीति का है या राष्ट्रीय स्तर की राजनीति के इशारे पर अंजाम दिया गया है, इसकी जांच तो कभी होगी नहीं और लोग कभी समझेंगे नहीं. राहत की बात है कि ग़ुलाम और भ्रष्ट अफसरों को महंगाई भत्ता मिल रहा है. जनता का एक बड़ा हिस्सा महंगाई भत्ते के बिना इस महंगाई का सामना कर रहा है. उसे सरकारी कर्मचारियों की तरह महंगाई से सुरक्षा हासिल नहीं है. आम आदमी हर दिन इस घटाव को जोड़ रहा है. पहले वह बढ़ती जोड़ता था अब घटती जोड़ रहा है.

मैंने अपने फेसबुक पेज पर पाठकों से एक हिसाब पूछा कि पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ने से घर से दफ्तर और दफ्तर से घर आने का ख़र्चा और महीने के राशन का खर्चा कितना बढ़ा है. जो जवाब आए हैं उससे पता चल रहा है कि घर के राशन का खर्चा 30 से 40 प्रतिशत बढ़ गया है. इतनी कमाई किसी की नहीं बढ़ी है. इस दौरान वे बचा नहीं पा रहे हैं. जो जवाब मिले हैं उससे पता चलता है कि लोग अपने पुराने ख़र्चे का भी हिसाब रखते हैं और अपनी सैलरी के अनुपात में ख़र्चे की ठीक से निगरानी करते हैं.

इस दौर में जब जब महंगाई बढ़ती है मीडिया में उसकी रिपोर्टिंग कम हो जाती है. ताकि उस मालिक के फैलाए गए सस्ते झूठ पर कोई असर न पड़े. महंगाई की ख़बर छपती भी है तो उसे निराकार बना दिया जाता है. केवल रेट का चार्ट छपता है. तेज़ दर्द से चीख रहे और धीमे दर्द से कराह रहे चेहरों को ग़ायब कर दिया गया है. फेसबुक पेज पर आई कुछ टिप्पणियों को पढ़ना चाहता हूं ताकि अंदाज़ा हो कि कई महीनों में लोगों की जेब पर किस तरह का डाका डाला गया है.

अस्मिता राज ने लिखा है कि पिछले साल तक उनकी गाड़ी का टैंक 2200 में फुल हो जाता था. फिर 2400 हुआ और उसके बाद 2700, 3000, 3500 और अब 3700 हो गया है. अस्मिता एक बार फुल कराती हैं तो पंद्रह दिन चलता है. यानी एक साल के भीतर महीने में पेट्रोल का खर्चा 3000 रुपया बढ़ गया है. संजय कुमार पाल ने लिखा है कि पहले महीने का यात्रा ख़र्चा 4000 रुपया था जो अब 8000 हो गया है. राम कुमार ने लिखा है कि पेट्रोल का खर्चा 20 प्रतिशत बढ़ा है और घर का खर्चा 35 से 40 प्रतिशत बढ़ा है. जसवंत सिंह ने लिखा है कि पेट्रोल के दाम बढ़ने के बाद घर का बजट 40 प्रतिशत बढ़ गया है. बचत गायब हो गई है. नितिन गुप्ता ने लिखा है कि परिवार के बजट में पांच हज़ार से आठ हज़ार की वृद्धि हो गई है. आमदनी उतनी ही है, 15000 की सैलरी है. 20,000 का खर्चा है. कैसे चलेगा. असम से दाऊद मूसा ने लिखा है कि 2014 में 2200 रुपये में टंकी फुल होती थी, अब 6700 रुपए में फुल होती है. अभिेषेक पांडे ने लिखा है कि मैं 2016 में अपने कार्यस्थल तक की दूरी 200 रुपये में तय करता था जो आज 300-350 हो गया है. पचास हज़ार कमाने वाला अगर 20 प्रतिशत सिर्फ विद्यालय आने-जाने में लगा देगा तो परेशान होगा ही. आशुतोष श्रीवास्तव ने लिखा है कि पेट्रोल के खर्चे में एक हज़ार की वृद्धि हो गई है. घर के खर्चे में तीन हज़ार की. स्कूल फीस बढ़ गई है इसलिए सस्ते स्कूल में नाम लिखवा दिया हूं. कार लोन का रिकंस्ट्रक्शन कराया है दो साल के लिए बढ़वा दिया है. आमदनी कम हुई है. बचत ज़ीरो है. पंकज सोनी ने लिखा है कि मैं भी बाइक से आफिस जाया करता था, तब 1200 का पेट्रोल भराता था, अब 1700 का लगता है. राजीव कुमार और विनोद कुमार ने लिखा है कि पहले मुझे डेली घर से आफिस और आफिस से घर जाने में मंथली 1500 से 2000 का पेट्रोल लगता था, अब 3500 लगता है. 1500 एक्सट्रा लग रहा है. अभय प्रताप सिंह लिखते हैं कि महीने का 1400 रुपये का फर्क पड़ा है. कृष्णा रावत लिखते हैं कि 3000 से ज़्यादा का फर्क पड़ा है. सायली भावसर ने लिखा है कि 83 रुपये का पेट्रोल ,113 रुपये का हो गया है. 63 प्रतिशत बढ़ा है. इतनी तो किसी की सैलरी नहीं बढ़ती है. जिन लोगों को कंपनियां यात्रा का वास्तविक ख़र्चा नहीं देती हैं उनकी बुरी हालत हो गई होगी. हेमराज सिंह ने लिखा है कि मैं अपना अनुभव बताता हूं. पहले मैं दिल्ली से हल्द्वानी 3500 रुपये में टैक्सी से जाता था, अब 5500 रुपये देने पड़ते हैं. हल्द्वानी से अल्मोड़ा पहले 1200 में जाता था अब 1500 से 2000 देने पड़ रहे हैं. अफज़ाल हुसैन ने लिखा है कि पहले 100 रुपये में 40 किमी अप डाउन करता था सवारी गाड़ी से, आज मुझे 220 रुपये देने पड़ते हैं अप और डाउन के. भारत गौतम ने लिखा है कि पहले पूरे दिन में सौ रुपये का पेट्रोल लगता था जो अब 240 रुपये लगता है. 3000 रुपये महीने का खर्च 7200 रुपये का हो गया है. जबकि आमदनी में वृद्धि नकारात्मक हो चुकी है.

ख़र्चे का हिसाब गाड़ी की ईंधन क्षमता और दूरी से भी बढ़ता घटता है. सैलरी के अनुपात में भी कम ज़्यादा लगता है. जिनकी सैलरी कम है उनके लिए महंगाई ज़्यादा घातक है, जिनकी सैलरी ज़्यादा है उनके लिए कुछ कम घातक है. विवेकहीन हो चुकी जनता अब बचतविहीन हुई जा रही है.

25 अक्तूबर से राजस्थान के श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ सहित बीकानेर डिविज़न के 700 से अधिक पेट्रोल पंप बंद हैं. इस हड़ताल का कारण पेट्रोल और डीज़ल के दामों का महंगा होना है. इनकी मांग है कि इन इलाकों में पेट्रोल और डीज़ल के रेट हरियाणा और पंजाब के बराबर किए जाएं ताकि उनके पंपों से भी बिक्री हो सके. गंगानगर से हमारे सहयोगी हरनेक सिंह ने बताया कि राजस्थान के इन इलाकों से पंजाब के अबोहर जैसे इलाके लगते हैं जहां श्रीगंगानगर की तुलना में 13 रुपया पेट्रोल सस्ता है. पेट्रोल खरीदने लोग पंजाब चले जाते हैं. चुरू में 116 रुपये 80 पैसे लीटर पेट्रोल है तो पंजाब के बठिंडा में 108 रुपये 45 पैसे. हरियाणा के सिरसा में 109 रुपए 26 पैसे है. पेट्रोलियम डीलर एसोसिएशन के जिला अध्यक्ष आशुतोष गुप्ता का कहना है कि इस इलाके में बायोडीजल के रूप में अवैध नकली डीजल और बेस आयल पैराफिन की बिक्री हो रही है जिस पर रोक लगनी चाहिए. पेट्रोल पंप तो किसानों पर तस्करी का आरोप लगा रहा है क्योंकि वे सस्ते पेट्रोल के लिए पंजाब और हरियाणा चले जाते हैं. इनकी मांग है कि किसानों को एक बार में 2500 लीटर डीज़ल के भंडारण की छूट समाप्त की जाए. सिर्फ एक हज़ार लीटर के भंडारण की अनुमति हो ताकि वे सारा डीज़ल पंजाब और हरियाणा से खरीद कर न ले आएं.

देश में ठीक से बायोडीज़ल आया नहीं लेकिन अवैध बायोडीज़ल का धंधा शुरू हो चुका है. इसी साल जुलाई में गुजरात के एंटी टेररिस्ट स्‍क्‍वाड ने आनंद की एक औद्योगिक इकाई में करीब पौने चार लाख लीटर बायोडीज़ल, इस्तमाल किया हुआ तेल और एसिड पकड़ा था. दो लोग अवैध बायोडीज़ल के उत्पादन और बिक्री के मामले में गिरफ्तार भी हुए थे. लेकिन आप हिन्दू मुसलमान में बिजी रहते हैं तो इन सबका कहां पता रख पाते होंगे. भारत के किसान खाद के संकट का सामना क्यों कर रहे हैं.

क्यों रात रात भर खाद के लिए सहकारी समितियों के बाहर लाइन में लगे हैं और उसके बाद भी खाद नहीं मिल रहा है. कुछ किसानों को मिल रहा है और बाकियों को नहीं. बुवाई का सीज़न निकला जा रहा है. क्या यह संकट जानबूझ कर पैदा किया गया है, ताकि दाम बढ़ाया जा सके या सरकार के हाथ में पैसा ही नहीं है. ज़्यादातर खाद बाहर से आयात होता है. जितना आर्डर देंगे उतना आएगा तो क्या आर्डर कम दिया गया है. किसान जब परेशान होना शुरू हुए हैं तब कैबिनेट की बैठक से लेकर सब्सिडी की राशि की खबर आने लगी है. लेकिन इसके बाद भी खाद की कमी क्यों है. जो सरकार अस्सी करोड़ लोगों को अनाज दे सकती है वह सरकार 11 करोड़ किसानों को खाद क्यों नहीं दे पा रही है.

इस साल मई में जब खाद के दाम बढ़े थे तब कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी ने DAP उर्वरक पर 140 प्रतिशत सब्सिडी बढ़ा दी है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कीमतें बढ़ी हैं. इस कारण DAP की एक बोरी 2400 रुपए की होती है लेकिन अतिरिक्त सब्सिडी देने से किसानों को 1200 रुपये में मिलेगी. कुछ दिन पहले यानी 13 अक्तूबर को कृषि मंत्री ने अपने ट्विटर हैंडल से दो पोस्टर ट्वीट किए हैं.

इसमें बताया गया है कि 2021-22 में रसायनिक खाद पर 64,000 करोड़ की सब्सिडी दी जाएगी देश के किसानों के हित में DAP खाद पर सब्सिडी को 1212 रुपए से बढ़ाकर 1662 रुपये प्रति बोरी किया गया. अंतरराष्ट्रीय मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि होने के बावजूद भी किसानों को DAP की एक बोरी 1200 रुपये में ही मिलेगी. बात दाम की तो है ही खाद की भी है. मंत्री दाम की बात कर रहे हैं लेकिन खाद तो फिर भी नहीं मिल रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार सब्सिडी नहीं दे पा रही है, जिस तरह से पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़े हैं उस तरह से किसानों को भी तैयार होना पड़ेगा कि बाज़ार दर पर खाद खरीदें. कालाबाज़ारी के चंगुल में किसान तो फंस ही रहे हैं.

इन खादों के आयात और वितरण की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है. सरकार को बताना चाहिए कि इस सीज़न के लिए कितने लाख टन उर्वरक के आयात का आर्डर दिया गया था और कितना आया है. मूल सवाल ये है. अगर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दाम बढ़े हैं तो सरकार ही कह रही है कि अधिक सब्सिडी दी जा रही है. इसका मतलब पैसे की समस्या नहीं थी. फिर खाद क्यों नहीं मिल रहा है.

खुद कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के इलाके में लूट हो गई है. किसानों पर डंडे चले हैं. मंत्री मान रहे हैं कि संकट है, कोशिश हो रही है, लेकिन संकट आया ही क्यों. रबी की फसल की बुवाई का सीज़न बीता जा रहा है. क्या किसान न्यूज़ चैनल नहीं देखते या न्यूज़ चैनलों को किसान नहीं दिखता है. दूसरी बात ही सही हो सकती है. 

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आम लोगों के जीवन में कई तरह के ब्रेक लगने लगे हैं, अफसरों से सावधान रहिए वे ख़ुद भी फंस सकते हैं और आपको भी फंसा सकते हैं.