क्या चुनाव सुधार बिल निजता का हनन नहीं...?

व्यवहार में आधार को लेकर अनिवार्य और स्वेच्छा का फर्क मिट गया है, स्वेच्छा से बोलकर भी आधार नंबर को अनिवार्य बनाने के लिए सरकार के पास सौ तरीके होते हैं

आधार ऐसे ही आता है. स्वेच्छा के नाम पर आता है तब भी धीरे-धीरे अनिवार्य बन जाता है. व्यवहार में आधार को लेकर अनिवार्य और स्वेच्छा का फर्क मिट गया है. गिनती के लोग होंगे जो आधार नंबर मांगे जाने पर चेक करते होंगे कि अनिवार्य है या स्वेच्छा. ऐसी आदत हो गई है कि अब सारे विकल्पों को छोड़ कर आधार ही सबसे पहले जमा कर दिया जाता है. कोरोना के टीके के लिए भी आधार अनिवार्य नहीं बनाया गया लेकिन इसका अध्ययन होगा तो पता चल जाएगा कि वैकल्पिक होने के बाद भी कितने लोगों ने टीका लगाने के लिए आधार का प्रयोग किया है. यही नहीं स्वेच्छा से बोल कर भी आधार नंबर को अनिवार्य बनाने के लिए सरकार के पास सौ तरीके होते हैं. Election Law Amendment Bill 2021 लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी पास हो गया है. इसके बाद मतदाता सूची को आधार नंबर से जोड़ना आसान हो जाएगा. इस बिल की शब्दावली को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि मतदाता सूची को आधार से लिंक करना अनिवार्य है. जानकारों का कहना है कि सरकार का यह दावा कि स्वेच्छा पर निर्भर करेगा इसे साफ-साफ बिल में नहीं लिखा गया है.

बिल में स्पष्ट नहीं है कि मतदाता आधार नंबर देने से मना कर सकता है. अगर यह नहीं लिखा है तो माना जाना चाहिए कि आधार नंबर देना अनिवार्य होगा. बिल की भाषा में लिखा है कि आधार नंबर न देने के पर्याप्त आधार होने चाहिए. ये पर्याप्त आधार बिल में स्पष्ट नहीं किए गए हैं. पर्याप्त आधार के नाम पर ऐसे नियम बनने लगेंगे जिससे आधार नंबर देना अनिवार्य हो सकता है. 

अपार गुप्ता इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं और वकील भी हैं. कुछ और जानकारों का कहना है कि मतदाता सूची को आधार नंबर से जोड़ने के रास्ते निकाल लिए जाएंगे और अनिवार्य होता चला जाएगा. कानून की बारीकियों को समझने के अलावा आम जनता के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि अगर मतदाता सूची को आधार नंबर से लिंक कर दिया गया तो उसके वोट देने के अधिकार पर कैसे असर पड़ेगा? कैसे किसी को मतदाता सूची से अलग कर दिया जाएगा या किसी समूह का मतदान केंद्र दूर कर कर दिया जाएगा?

सबसे पहले यह समझना है कि चुनाव आयोग तो स्वायत्त संस्था है, लेकिन UIDAI स्वायत्त संस्था नहीं है. आधार की निगरानी करने वाली यह संस्था सरकार के अधीन है. इसके बिना यह काम नहीं हो सकता है. अगर आयोग अपने काम में इस संस्था को पार्टनर बनाएगा तो संदेह किए जाएंगे. फरवरी 2015 में जब एक प्रयोग के तौर पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में मतदाता सूची को आधार नंबर से लिंक करने की योजना शुरू हुई तो इस योजना के तहत लाखों लोगों के नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए. इसे लेकर हंगामा मच गया कि बिना किसी जानकारी के नाम कैसे काटे गए और मतदाता की अनुमति के बिना आधार का नंबर कैसे दे दिया गया. अगस्त में 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना पर रोक लगा दी. उसके बाद जब तेलंगाना में चुनाव हुआ तो 20 लाख लोग वोट नहीं दे सके. ट्विटर पर हजारों लोग ट्रेंड कराने लगे कि मेरा वोट कहां है. जब चुनाव आयोग ने राज्य निर्वाचन अधिकारी से इसकी जांच के लिए तो कहा कि आंध्र प्रदेश के निवार्चन अधिकारी ने कहा कि डेटा उनसे लीक नहीं हुआ है. तेलंगाना सरकार ने एसआईटी का गठन किया. इस मामले का भी नतीजा कहीं नहीं पहुंचा है. अप्रैल 2019 में Unique Identification Authority of India (UIDAI) ने IT Grids Pvt Ltd के खिलाफ एक FIR दर्ज कराई थी. इस पर आरोप था कि इसने अवैध तरीके से आधार का डेटा जमा किया है. मीडिया की खबरों के अनुसार आंध्र और तेलंगाना की करीब आठ करोड़ जनता का डेटा इस कंपनी के पास जमा हो गया था जिसका इस्तमाल चुनाव में हुआ था.

कब कौन सी कंपनी और राजनीतिक दल किसी अप्लिकेशन के नाम पर आपसे आधार नंबर ले ले और उसका राजनीतिक इस्तमाल कर ले, इसे समझने की क्षमता आम लोगों में नहीं होती है. उन्हें लगेगा कि कोई योजना है उसका लाभ मिलेगा. इस आधार पर ही आधार को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखा जाना चाहिए. सरकार और चुनाव आयोग इन आशंकाओं को खारिज करता है. लेकिन विपक्ष का कहना है कि मतदान का अधिकार गुप्त रहना चाहिए. आधार से जोड़ने के बाद यह गुप्त नहीं रहेगा. 

मतदाता सूची की विश्वसनीयता के लिए आधार से जोड़ा जा रहा है लेकिन आधार को लेकर कई तरह के विवाद होते रहते हैं. मीडिया में फर्ज़ी आधार कार्ड से लेकर आधार के सहारे फ्राड की तमाम ख़बरें आए दिन आती रहती हैं. हम इन उदाहऱणों को अनदेखा नहीं कर सकते हैं. राजनीतिक दल के हाथ अगर आधार नंबर की जानकारी लग जाए तो वे इसका कई तरह से इस्तमाल कर सकते हैं.

एनडीटीवी, द वायर, हिन्दू कई जगहों पर इस साल मार्च और अप्रैल में छपी इन खबरों को खोज कर पढ़िए. पुद्दुचेरी के चुनाव में बीजेपी ने थोक में लोगों को एसएमएस मैसेज भेजे जिसमें स्थानीय व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ने का लिंक दिया गया था. आरोप लगा कि जिन मोबाइल नंबरों पर मैसेज भेजे गए हैं वो आधार से लिंक हैं और ये डेटा आधार पर नज़र रखने वाली संस्था Unique Identification Authority of India यानी UIDAI से लिया गया हो सकता है. यह केस मद्रास हाईकोर्ट पहुंचा. हाईकोर्ट की बेंच ने कहा कि इन आरोपों में बहुत दम है. खबरों को पढ़ने से पता चलता है कि बीजेपी ने पहले कोर्ट में कहा कि चुनाव आयोग से पहले अनुमति मांगी गई थी लेकिन चुनाव आयोग ने ऐसी किसी जानकारी से ही इंकार कर दिया. कोर्ट ने पूछा कि बीजेपी को वोटर के इतने फोन नंबर कहां से मिले तो बीजेपी ने कहा कि कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर जुटाए थे. कोर्ट ने इसे सही मानने से इंकार कर दिया. कोर्ट ने ये भी कहा कि आधार की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार UIDAI ने खुद से जांच नहीं की, उल्टा याचिकाकर्ता पर ही आरोप लगा कि वह पहले शिकायत लेकर उसके पास नहीं आया. जबकि चुनाव आयोग ने इस तरह के मामले की जानकारी UIDAI को दी थी. कोर्ट ने चुनाव आयोग के बारे में भी टिप्पणी की कि तुरंत एक्शन नहीं लिया गया. पुद्दुचेरी इलेक्टोरल आफिसर ने कोर्ट को याद दिलाया कि बीजेपी को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था. चुनाव आयोग के वकील जी राजपोपाल ने कहा था कि बीजेपी ने कारण बताओ नोटिस का जवाब नहीं दिया है. BSNL, एयरटेल और जियो के पास नोटिस भेजा गया था. पुलिस केस भी दर्ज हुआ था. लोकल लेवल व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन की जांच होने लगी जिनसे मतदाताओं को जोड़ा गया.

इस तरह इस केस से जुड़ी खबरों से पता चलता है कि चुनाव आयोग, आधार पर निगरानी रखने वाली संख्या UIDAI और पुद्दुचेरी पुलिस और बीजेपी सब इधर उधर की बातें कर रहे हैं और मामले को लटका रहे हैं. पुद्दुचेरी वाला प्रसंग यह भी बताता है कि इस तरह के मामले में जनहित याचिका दायर करना और मुकदमा लड़ना कितना मुश्किल है. पुद्दुचेरी के मामले में याचिकाकर्ता ए आनंद का कहना है कि यह मामला भी शुरूआती टिप्पणियों के बाद जहां था वहीं है.

कर्नाटक हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज के एस पुट्टास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में आधार की वैधानिकता को लेकर एक याचिका दायर की थी क्योंकि इसके चार ही मकसद बताए गए हैं और उसमें वोटर आईडी नहीं है. इसी केस की सुनवाई के बीच में अगस्त 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की योजना पर अंतरिम रोक लगा दी थी. आधार नंबर को मतदाता सूची से जोड़ने का काम रुक गया था. लेकिन वाकई में रोक के फैसले पर अमल हुआ है? 

2015 में NDTV की रिपोर्ट में कहा गया है कि 13 करोड़ मतदाताओं ने आधार को मतदाता सूची से जोडने की अर्ज़ी दी है. इसी साल सुप्रीम कोर्ट ने इस काम पर रोक लगा दी थी. दो साल बाद 2017 में डिजिटल इंडिया के ट्विटर हैंडल से ट्वीट होता है कि क्या आप जानते है कि 31 करोड़ मतदाताओं ने वोट आईडी को आधार से लिंक कराया है. अगर रोक लगी थी तो फिर यह संख्या 13 करोड़ से 31 करोड़ कैसे हो गई? क्या अंतरिम आदेश से पहले ही बिना अनुमति के करोड़ों लोगों का आधार कार्ड मतदाता पहचान पत्र से जोड़ा जा चुका था? या अंतरिम आदेश के बाद भी लिंक करने का काम चलता रहा? सरकार को बताना चाहिए.

हमने इसका ज़िक्र क्यों किया, क्योंकि 2019 में राज्यसभा में सरकार ने कहा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में कितने मतदाता पहचान पत्र को आधार से लिंक किया गया है और इसके लिए कितने मतदाताओं ने अनुमति दी है, इसकी सूचना जमा की जा रही है. जबकि 2017 में डिजिटल इंडिया का ट्वीट है कि 31 करोड़ मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ा जा चुका है. राज्यसभा सांसद हुसैन दलवाई के सवाल के जवाब में सरकार कहती है कि सूचना जमा की जा रही है. यही खेल आपको समझना है. 2018 में आधार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर विपक्ष और सरकार की अपनी अपनी राय है. विपक्ष का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि नहीं हो सकता है, कानून मंत्री रिजीजू कहते हैं कि फैसले का गलत मतलब निकाला जा रहा है. अब यहां ध्यान से सुनिए. सितंबर 2020 में संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट आई थी, सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले के बाद. इस रिपोर्ट में चुनाव आयोग का जवाब है जिसे किरेण रिजीजू कोट करना नहीं चाहेंगे. आयोग कहता है कि आधार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जब से अंतिम आदेश पारित किया है, आयोग ने उस फैसले के संदर्भ में अध्ययन किया है. आयोग आधार नंबर को मतदाता सूची से जोड़ना चाहता है ताकि उसमें किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण आधार को मतदाता सूची से जोड़ना संभव नहीं है. जब तक कि कानून में संशोधन नहीं लाया जाता है.

इसका मतलब है कि चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट को लेकर स्पष्ट है कि बिना कानून में संशोधन के आधार कार्ड को मतदाता सूची से लिंक नहीं किया जा सकता है. अगर 2018 के फैसले में रोक नहीं थी तो फिर केंद्र सरकार यह बिल लेकर ही क्यों आई?

कानून मंत्री कह रहे हैं कि स्टेट का इंटरेस्ट है. स्टेट का इंटरेस्ट क्या हो सकता है? क्या स्टेट का इंटरेस्ट यह भी है कि इलेक्टोरल बान्ड में कौन किसे हज़ारों करोड़ का चंदा दे रहा है, उसका नाम न पता चले, ऐसा इंटरेस्ट क्यों है? हम इस पर आएंगे लेकिन यहां सवाल है कि क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अपने हिसाब से मतलब निकाल रही है? लेकिन स्थायी समिति में विपक्ष की भूमिका भी अजीब है. एक भी सांसद ने असहमति नहीं जताई है बल्कि ऐसा कानून लाने पर सहमति जताई है और कहा है कि आधार को मतदाता सूची से जोड़ा जाना ज़रूरी है. तृणमूल कांग्रेस के सांसद शुखेंदु शेखर रॉय कहते हैं कि असहमति जताई थी मगर अंतिम रिपोर्ट में शामिल नहीं किया.

हमें नहीं पता कि विपक्ष के कितने सांसदों ने असहमति का नोट दिया है और इसे क्यों नहीं शामिल किया गया है. उन सांसदों को जनता को बताना चाहिए और इस पर समिति से अध्यक्ष से जवाब की उम्मीद की जाती है. क्या ऐसा भी होने लगा है? बहरहाल विपक्ष के सांसदों की आपत्तियों को यहां भी सुना जा सकता है.

विपक्ष को बताना होगा कि स्थायी समिति में उसका रुख ऐसा क्यों है, वह क्यों इस सुझाव का स्वागत कर रहा है कि आधार नंबर को मतदाता सूची से जोड़ा जाना चाहिए? 

दुनिया भर में मतदान की प्रक्रिया को तकनीक से दूर रखा जाता है. जर्मनी की अदालत ने इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन के इस्तमाल पर इसलिए रोक लगा दी कि आम आदमी नहीं समझ पाता था कि यह मशीन कैसे काम करती थी. जर्मन कोर्ट के अनुसार चुनाव में इस्तमाल हर चीज़ ऐसी होनी चाहिए जिसे आम आदमी समझ सके. ब्रिटेन, इटली और जर्मनी में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन बैन है. अमरीका में भी चुनाव बैलेट पेपर से होता है. कई दिनों तक वोटों की गिनती होती है. भारत में ईवीएम को लेकर सवाल उठा तो उसे विश्वसनीय बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने वीवीपैट की संख्या बढ़ाई. ईवीएम को विश्वसनीय बनाने के लिए वीवीपैट पर हज़ारों करोड़ खर्च किए गए. जब तक मशीन है तब तक सवाल रहेगा. एक दिन वीवीपैट को लेकर भी सवाल होने लगेगा. अगर मतदाता सूची को आधार नंबर से जोड़ा जाना इसलिए ज़रूरी है कि चुनाव की प्रक्रिया विश्वसनीय हो तो फिर इसी चुनाव को विश्वसनीय होने के लिए चुनावी चंदे का मामला भी उतना ही पारदर्शी होना चाहिए, जो कि नहीं है.

Reporter's collective और न्यूज़लौंड्री की वेबसाइट पर हिन्दी में नितीन सेठी की रिपोर्ट को पढ़िए जो उन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड के कानून बनने के पहले की प्रक्रिया को लेकर छापी है. इससे पता चलेगा कि इलेक्टोरल फंड को लेकर सरकार किस तरह से कभी कुछ कभी कुछ बोलती रही और एक ऐसा कानून देश पर लाद दिया गया जिसके कारण अब मतदाता जान ही नहीं सकता कि किसी पार्टी को मिलने वाला हज़ारों करोड़ का चंदा किस कंपनी की तरफ से दिया जा रहा है. मगर बैंक के ज़रिए सरकार के पास जानने के रास्ते होंगे कि विपक्ष को कौन सी कंपनियां पैसा दे रही हैं. जितने भी चुनावी चंदे मिलते हैं उसका 75 प्रतिशत से अधिक बीजेपी को मिलता है और कौन दे रहा है आप नहीं जान सकते. अगर आप जान जाएंगे कि कौन सी कंपनी चंदा दे रही है तो आप यह भी जानने लगेंगे कि निजीकरण के नाम पर सरकारी संपत्ति कहीं उसी कंपनी को तो नहीं बेची जा रही है.

इलेक्टरोल बान्ड चुनाव प्रक्रिया का अपारदर्शी बनाता है. इसके रहते चुनाव को पारदर्शी की हर बात बकवास है. एक और पैटर्न है, माहौल बनाने का. माहौल इस तरह से बनाया जाता है कि चुनाव को बेहतर करने के लिए यह कानून अभी इसी वक्त ज़रूरी है. इसी तरह का माहौल नागरिकता कानून को लेकर बनाया गया लेकिन कानून बनने के दो साल बाद तक इसके नियम नहीं बने हैं. इलेक्टोरल बान्ड के समय भी माहौल बनाया गया कि चंदे को लेकर यही पारदर्शी तरीका है बाद में इसके नतीजे सामने आए कि एक ही दल को ज़्यादातर चंदा मिल रहा है. मतदाता सूची की साफ-सफाई करने के काम में चुनाव आयोग के पास दशकों का अनुभव है. आज आधार ही क्यों ज़रूरी हो गया है.

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चुनाव को लेकर काफी कुछ बदल चुका है. आप आईटी सेल और गोदी मीडिया के खेल से समझ सकते हैं. आचार संहिता लागू होने के पहले करोड़ों रुपये फूंक कर सरकारी कार्यक्रम के नाम पर रैलियां होने लगी हैं. गोदी मीडिया को विज्ञापन देकर विपक्ष को चुनावी कवरेज से गायब किया जा रहा है. इनमें कोई बदलाव नहीं है. इसलिए कोई कहे कि चुनाव को विश्वसनीय बनाया जा रहा है आप विश्वास करने से पहले थोड़ा मुस्कुराइये. ताकि उसे विश्वास हो जाए कि आपको खेल समझ आ रहा है.