चीफ जस्टिस एनवी रमना आज रिटायर हो गए. उनके कार्यकाल में देश को कई अहम याचिकाओं पर निर्णय नहीं मिला, कई सारे सवालों के जवाब नहीं मिले लेकिन खुद भी चीफ जस्टिस एनवी रमना, न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका को लेकर कई गंभीर सवाल उठा गए. उन टिप्पणियों के ज़रिए सार्वजनिक बहस को मज़बूती तो मिली लेकिन उन्हीं प्रश्नों पर कोर्ट के फैसलों से जवाब नहीं मिलने से रह गया. चीफ जस्टिस के कोर्ट में आज उनका आखिरी दिन था लेकिन उनकी कोर्ट की सुनवाई का सीधा प्रसारण इतिहास बना गया. इसके बाद भी कई ऐसे मामले रहे जो इतिहास में दर्ज होने का इंतज़ार करते रहे. चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि इस बात के लिए माफी चाहते हैं कि अपने कार्यकाल में इस बात पर ध्यान नहीं दे सके कि मुकदमों को जल्दी सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया जा सके. उन्होंने कहा कि सोलह महीने में केवल 50 दिन मिले जिसमें वे प्रभावी और पूर्णकालिक तरीके से सुनवाई कर पाए. कोविड के काऱण कोर्ट पूरी तरह काम नहीं कर पाया.
एक तस्वीर आज की है,आखिरी दिन सभी जस्टिस के साथ एक फ्रेम में कैद हो जाने का यह लम्हा निजी स्मृतियों के लिए शानदार है, न्यायपालिका के हिसाब से भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. हमारी न्यायपालिका की जवाबदेही इसलिए भी गंभीर होती है क्योंकि नागरिक आखिरी उम्मीद की तरह देखता है. न्यायधीश भी इस बात को लेकर संवेदनशील होते है कि जनता उन्हें किस नज़र से देख रही है. इंसाफ का होते हुए दिखना भी इंसाफ का अभिन्न अंग माना जाता है. आखिरी दिन चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कई अहम मुकदमों की सुनवाई की तारीख न पड़ने पर माफी क्यों मांगी, क्या इसलिए कि उनके कार्यकाल तक आते-आते उन याचिकाओं के नहीं सुने जाने को लेकर सब्र का बांध टूटने लगा था? यह सवाल उनके तमाम अच्छे कार्यों के ऊपर भारी पड़ने लगा था?
आर्टिकल 14 एक न्यूज़ वेबसाइट पर सौरव दास ने चीफ जस्टिस एनवी रमना के कार्यकाल का विश्लेषण किया है. सौरव दास ने इस विश्लेषण की शुरूआत चीफ जस्टिस एनवी रमना की ही बात से की है. इसी 23 जुलाई को उन्होंने कहा था कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के कदमों की समीक्षा संवैधानिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है. इसका सहारा लेते हुए सौरव उनके कार्यकाल की समीक्षा करते हैं.
बताते हैं कि चीफ जस्टिस रमना ने अपने कार्यकाल में 29 पब्लिक लेक्चर दिए हैं. सौरव ने उनके ही लेक्चर का हिस्सा लेकर, उनके सामने उन याचिकाओं को रखा है, जो सुनवाई का इंतज़ार करती रह गईं. इससे जो अंतर्विरोध सामने आता है, वह एक चीफ जस्टिस के कार्यकाल को समझने में काफी मदद करता है. सौरव अपने विश्लेषण में दिखाते हैं कि 53 ऐसे मामले थे जो चीफ जस्टिस रमना के कार्यकाल में संवैधानिक पीठ के गठन का इंतज़ार करते रह गए. कई ऐसे भी मामले थे जिनके लिए संवैधानिक पीठ की ज़रूरत नहीं थी मगर वे भी कम राष्ट्रीय महत्व के नहीं थे.
सौरव दास ने लिखा है कि इन याचिकाओं पर सुनवाई का रोस्टर बनाने का अधिकार और जवाबदेही चीफ जस्टिस की ही होती है. इसके बाद सौरव ने इसकी गिनती की है कि कितने दिनों से किन मामलों में सुनवाई नहीं हुई है. इससे पता चलता है कि कई सारे मामले केवल चीफ जस्टिस एनवी रमना के कार्यकाल में ही नहीं सुने गए बल्कि उनके पहले के चीफ जस्टिस के कार्यकाल में भी सुनवाई का इंतज़ार करते रह गए.
धारा 370 हटाने की याचिका 1,115 दिनों से लंबित है. इलेक्टोरल बान्ड को चुनौती देने वाली याचिका 1816 दिनों से लंबित है. आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले को चुनौती देने की याचिका 1323 दिनों से लंबित है. UAPA को चुनौती दी गई है वो 1105 दिनों से लंबित है. नागरिकता कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका 987 दिनों से सुनवाई का इंतजार कर रही है. कर्नाटक सरकार ने हिजाब पर प्रतिबंध गलाया है 159 दिनों से लंबित है.
चीफ जस्टिस रमना ने कोर्ट के भीतर भी खुलकर बोला और बाहर भी. नेताओं और पुलिस के अफसरों की सांठगांठ पर भी खुलकर बोला लेकिन समीक्षकों की नज़र इस बात पर रही कि संवैधानिक पीठ के गठन और जटिल मामलों की सुनवाई में उनके कार्यकाल में क्या प्रगति हुई है. धारा 370 से लेकर आर्थिक आधार पर आरक्षण की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका उनके कार्यकाल में भी नहीं सुनी गई. संवैधानिक पीठ का गठन ही नहीं हुआ.
धारा 370 खत्म करने की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका में मनोहर लाल शर्मा ने मांग है कि जम्मू कश्मीर विधानसभा की सहमति के बिना यह धारा समाप्त नहीं हो सकती थी. यही नहीं एक राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया. एक राज्यपाल की नियुक्ति कर उनके ज़रिए इस कानून को मंज़ूरी दी गई. इस केस की पहली सुनवाई 16 अगस्त 2019 को हुई थी और आखिरी सुनवाई 2 मार्च 2020 को. तीस महीने से इस मामले में सुनवाई नहीं हुई है. 25 अप्रैल 2022 को गुजारिश की गई कि सुनवाई तब चीफ जस्टिस एन वी रमना ने कहा कि वे इसे देखेंगे मगर सुनवाई नहीं हुई.
इसी तरह 1816 दिनों से इलेक्टोरल बान्ड की याचिका सुनवाई का इंतज़ार कर रही है. इस याचिका में कहा गया है कि यह व्यवस्था पारदर्शी नहीं है क्योंकि कौन चंदा दे रहा है, उसका नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता है. Association for Democratic Reforms ने यह भी कहा है कि यह कानून अवैध है क्योंकि राज्यसभा में इस पर बहस नहीं हुई है, इसे मनी बिल के ज़रिए पास किया गया है. जनवरी 2018 में यह कानून पास हुआ था. चीफ जस्टिस एसए बोबडे की कोर्ट में आखिरी बार सुनवाई हुई थी. 30 महीने से इस केस में भी सुनवाई नहीं हुई है. इसी प्रसंग में आर्टिकल 14 के रिपोर्टर सौरव दास ने जस्टिस रमना के एक लेक्चर का हिस्सा कोट किया है. नागरिकों को जब पता होगा तभी वह कानून के राज को और मज़बूत करेगा, उसे अपने जीवन में उतारेगा और ज़रूरत पड़ने पर न्याय की मांग करेगा. इस कानून के संदर्भ में खोजी पत्रकारों ने बताया था कि चुनाव आयोग, रिज़र्वन बैंक, वित्त मंत्रालय और कानून मंत्रालय ने इस कानून का विरोध किया था. कहा था कि इससे गलत परंपरा बनेगी और इसका दुरुपयोग होगा. मनी लौंड्रिग को बढ़ावा मिलेगा. यह केस पहली बार चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अदालत में लिस्ट हुआ था. दूसरी बार चीफ जस्टिस एसए बोबडे की अदालत में सुना गया. उसके बाद से सुनवाई ही नहीं हुई. 25 अप्रैल को प्रशांत भूषण ने चीफ जस्टिस रमना से आग्रह किया कि इस पर सुनवाई हो तो वही जवाब मिला कि हम इसकी सुनवाई करेंगे मगर सुनवाई नहीं हुई. चार महीने से सुनवाई नहीं हुई है.
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के प्रशासनिक मामलों पर किसका नियंत्रण है, दिल्ली सरकार का या केंद्र सरकार का, इस याचिका पर संवैधानिक पीठ का गठन होना था, 22 अगस्त को जस्टिस रमना ने पांच जजों की संवैधानिक पीठ का गठन कर दिया लेकिन सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई है. 14 मई 2022 को चीफ जस्टिस ने श्रीनगर में कहा था कि कानून के राज और मानवाधिकार को सबसे बड़ी चुनौती यह है कि तेज़ रफ्तार से न्याय नहीं मिलती और कम खर्चे में नहीं मिलती सभी को. 23 याचिकाएं फाइल की गई है. आज उनकी विदाई के समय कई वकीलों ने उनकी भूमिका की तारीफ की. दुष्यंत दवे तो भावुक हो गए और कपिल सिब्बल ने कहा कि आपने हमेशा जनता की आवाज़ सुनी. दुष्यंत दवे ने कहा कि आपने अद्भुत संवैधानिक नैतिकता और संवैधानिक लोकाचार बनाए रखा.
कई न्यूज़ वेबसाइट पर चीफ जस्टिस के कार्यकाल की समीक्षा हो रही है, उसमें लिखा जा रहा है कि किन मुद्दों पर फैसले आए और किन मुद्दों को फैसले का इंतज़ार करना पड़ा और उनका कार्यकाल खत्म हो गया. ऐसा क्यों हुआ? चीफ जस्टिस एनवी रमना के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट में खाली पदों को भरा गया. बताया जाता है कि ऐतिहासिक स्तर पर न्यायधीशों की नियुक्तियां हुईं. उन्होंने कोविड के दौरान सुप्रीम कोर्ट कवर करने वाले पत्रकारों को वीडियो कांफ्रेंस से होने वाली सुनवाई में हिस्सेदार बनाया. पेगासस मामले में जस्टिस रमना ने याचिका स्वीकार कर ली और जांच समिति भी बना दी लेकिन इस रिपोर्ट पर भी उनके कार्यकाल में सुनवाई अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंच सकी. मूल सवाल यही है कि बहुत सारे बड़े महत्व के संवैधानिक मसलों को सुने बिना उनका कार्यकाल खत्म हो गया. जस्टिस रमना ने कोर्ट के बाहर जो बातें कहीं हैं, निश्चित रुप से न्यायपालिका को लेकर उठते सवालों पर बहस को मज़बूती प्रदान करती हैं और न्यायपालिका पर भी सवाल करती है. मुख्यमंत्रियों और हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के सम्मेलन में जस्टिस एनवी रमना ने बताया कि न्यायपालिका पर बढ़ रहे बोझ के लिए कार्यपालिका के अंग ज़िम्मेदार हैं, लेकिन क्या इस याचिकाओं के बोझ में बदलते जाने के लिए न्यायपालिका ज़िम्मेदार नहीं है?
जस्टिस यूयू ललित 27 अगस्त को नए चीफ जस्टिस के पद की शपथ लेंगे. उनका कार्यकाल छोटा होगा मगर कोर्ट प्रशासन की तरफ से नोटिस आ गया है कि 25 संवैधानिक पीठ का गठन हो रहा है. यह एक बड़ा बदलाव है. आने वाले दिनों में अहम फैसलों पर सुनवाई होगी और शायद फैसले भी आ जाएं.
किसी भी चीफ जस्टिस का कार्यकाल महीनों से बड़ा नहीं होता है,फैसलों से बड़ा होता है. नए होने वाले चीफ जस्टिस यूयू ललित आम लोगों की सुनवाई में देरी के मसले को लेकर चैंपियन रहे हैं. लोक अदालतों में जल्दी फैसलों की पहल करते रहे हैं. जनता सुप्रीम कोर्ट को देख रही है. विभाजनकारी राजनीति का असर सुप्रीम कोर्ट को देखने के चश्मे पर भी पड़ा है. हाल ही नुपूर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को लेकर कई पूर्व जजों और नौकरशाहों ने पत्र लिखा तो समय-समय पर फैसले में देरी या फैसले से असहमति को लेकर राजनीति के दूसरे पक्ष के लोग भी पत्र लिखते रहते हैं. कई जस्टिस के कार्यकाल की इसी तरह की समीक्षा मीडिया में आई है. उन सभी को पढ़ा जाना चाहिए और इसकी बहस में गंभीरता आ सके. सुप्रीम कोर्ट ही यह अधिकार देता है कि उसके फैसले की समीक्षा हो लेकिन आप जजों की मंशा पर सवाल नहीं कर सकते हैं. प्रवर्तन निदेशालय के एक अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों फैसला दिया था कि PMLA के मामले में जिनसे पूछताछ होनी है, उन्हें वारंट दिखाने की ज़रूरत नहीं है. इसे चुनौती दी गई तब उस याचिका को चीफ जस्टिस एन वी रमना ने स्वीकार कर लिया. उन्होंने माना कि दो मुद्दों पर फिर से विचार की ज़रूरत है. पहला आरोपी को ECIR की कॉपी ना देना, दूसरा निर्दोष होने के अनुमान को उल्टा करना.
जांच एजेंसियों को लेकर राजनीति आक्रामक होती जा रही है, जिस तरह से इनका इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं के खिलाफ हो रहा है, विपक्ष भी अब उतना ही आक्रामक होता जा रहा है. जब ED सोनिया गांधी और राहुल गांधी से पूछताछ की तब कांग्रेस ने देश भर में प्रदर्शन किया और जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का मुद्दा उठाया. बिहार विधानसभा के भीतर और बाहर उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव आक्रामक हो गए हैं, उनके कुछ शब्दों को कार्यवाही से निकालना पड़ा. आज दिल्ली विधानसभा में उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया सीबीआई की जांच को लेकर आक्रामक हो गए.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी और बीजेपी में घमासान तेज़ हो गया है. बीजेपी कहती है कि जब निर्दोष हैं तो जांच से क्या घबराना, लेकिन जब पेगासस जासूस साफ्टवेयर की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने समिति बनाई तो केंद्र सरकार ने सहयोग नहीं किया. बीजेपी को यही बात केंद्र सरकार से कहनी चाहिए कि जब पेगासस को लेकर केंद्र सरकार निर्दोष है तो उसके अधिकारी पेगासस की जांच कमेटी से सहयोग क्यों नहीं कर रहे हैं. इस पर बीजेपी के नेता प्रेस कांफ्रेंस कर सकते हैं. लेकिन एक दिलचस्प मामला है पश्चिम बंगाल बीजेपी के नेता दिलीप घोष का.
मीडिया में दिलीप घोष का बयान छपा है. जिसमें वे कह रहे हैं कि लगता है कि सीबीआई के कुछ अफसरों और आरोपियों के बीच सांठगांठ है. सभी की अपनी मांगे हैं. कुछ चंद हज़ार रुपये में बिक जाते हैं तो कुछ करोड़ में. जब कोई कार्यवाही नहीं हुई तब केंद्र ने ED को लगा दिया. दिलीप घोष ने यह बात एक कार्यक्रम में कही है. इसके बाद उन्होंने ही कहा कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उनसे बात की है. अब वे चुप रहेंगे.
बीजेपी के नेता भी वही बात कर रहे हैं जो विपक्ष के कह रहे हैं. दिलीप घोष ने तो सीबीआई पर विपक्ष से भी ज्यादा गंभीर आरोप लगा दिया कि कुछ चंद हज़ार में बिक जाते हैं तो कुछ करोड़ में. उनका यह बयान कई जगहों पर छपा भी है. हाल ही में बीजेपी नेता सुवेंदु अधिकारी ने गृह मंत्री अमित शाह को एक सूची सौंपी है. इस सूची में तृणमूल के कथित रुप से भ्रष्ट नेताओं के नाम हैं. क्या जांच एजेंसियों पर इतना भरोसा है कि अब बीजेपी के नेता भी सूची बनाकर गृह मंत्री को देने लगे हैं? अगर ऐसी ही सूची तृणमूल के नेता बीजेपी के नेताओं और समर्थकों की सौंप दे तो क्या ED CBI कार्रवाई करेगी? क्या अमित शाह मिलने का समय भी देंगे?
यह मामला केवल भ्रष्टाचार को दूर करने का नहीं है, दरअसल भ्रष्टाचार को नैतिक ढाल बनाकर विपक्ष को आर्थिक रुप से कमज़ोर किया जा रहा है. अगर ऐसा नहीं होता तो खुद सरकार ऐसा कानून नहीं लाती जिससे नागरिकों को पता ही न चले कि हज़ारों करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बान्ड खरीदने वाला कौन है. इसी एक अगस्त की रिपोर्ट है कि अभी तक करीब दस हज़ार करोड़ के इलेक्टोरल बान्ड खरीदे जा चुके हैं.क्यों इसकी जानकारी RTI से बाहर आती है वह भी केवल राशि की, करोड़ों का बान्ड खरीदने वाले का नाम कभी नहीं सामने नहीं आता. क्या आप नहीं जानना चाहते हैं कि कौन है जो छिप कर हज़ारों करोड़ रुपये का चंदा किसी राजनीतिक पार्टी को दे रहा है? क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है? पिछले दिनों निकाय चुनावों के समय मध्यप्रदेश भाजपा के एक विधायक नारायण त्रिपाठी ने भी कह दिया था कि यह चुनाव नहीं हो रहा है, अधिकारी हस्तक्षेप कर रहे हैं, अगर ऐसा है तब तो चुनाव ही बंद कर देना चाहिए.
अब इन बातों को आप सिर्फ इस बात से खारिज नहीं कर सकते कि विधायक नारायण त्रिपाठी कई दलों में रह चुके हैं. बीजेपी में रहते हुए उन्होंने ये बयान दिया है. बंगाल बीजेपी के नेता दिलीप घोष ने भी कह दिया कि ED को क्यों लगाना पड़ा. अगली खबर भी मध्य प्रदेश से है. अनुराग द्वारी लिखते हैं कि हमारे आपके हमारे लिये बजट का रोना रोने वाली सरकार अफसरों के ऐशो आराम पर करोड़ों खर्च करती है. एक एक अफसर के पास 10 से 12 सिपाही हैं. तीन तीन शिफ्ट में काम करने आते हैं. उनके घरों में इतना काम क्या होता है क्या गमले भी फाइलों पर साइन करते हैं और दरवाज़ें टाइप करते हैं?