दिल्ली चुनाव - बिरयानी का सियासी झूठ और रोज़गार का फ़रेब

दिल्ली के चुनावों में फिर से एक बार बिरयानी की देग चढ़ गई है. राजनीति ने एक चश्मा दिया है और चाहती है कि आप उस चश्मे से खाने पीने और पहनने ओढ़ने की चीज़ों को देखना शुरू कर दे.

दिल्ली के चुनावों में फिर से एक बार बिरयानी की देग चढ़ गई है. राजनीति ने एक चश्मा दिया है और चाहती है कि आप उस चश्मे से खाने पीने और पहनने ओढ़ने की चीज़ों को देखना शुरू कर दे. बहुत लोग देखने भी लगे होंगे. हम भाषणों के झोंक में भूल जाते हैं कि भारत में शाकाहारी भी हैं और मांसाहारी भी हैं. जो मांसाहारी हैं वो भी त्योहारों के समय शाकाहारी हो जाते हैं और कई घरों में शाकाहारी भी होते हैं और मांसाहारी भी. बिरयानी हर मज़हब के लोग खाते हैं मगर दिल्ली के चुनावों ने जो चश्मा दिया है वो चाहता है कि आप उस चश्मे से सिर्फ एक समुदाय को बिरयानी खाते हुए देखें. किसी को बिरयानी खिलाना अच्छी बात होती है. जो शाकाहारी होते हैं वो वेज बिरयानी खाते हैं. भारत की राजनीति में बिरयानी की राजनीति झूठ के हंस पर सवार हो कर आई.

मुंबई हमलों के आतंकवादी कसाब के सदर्भ में उठाया गया था. कहा जाने लगा कि उसे सरकार जेल में बिरयानी खिला रही है. जब यह बात घर घर पहुंच गई और लोगों की नाराज़गी का कारण बनी तब इस मामले के सरकारी वकील उज्ज्जल निकम ने कहा था कि कसाब ने कभी भी बिरयानी की मांग नहीं की थी और न ही सरकार ने उसे बिरयानी परोसा था. केस के दौरान कसाब के पक्ष में बन रहे भावनात्मक माहौल को रोकने के लिए मैंने इसे गढ़ा था. मैंने बयान दिया था कि कसब ने मटन बिरयानी की मांग की थी. वकील निकम का बयान कई जगहों पर छपा मिलेगा. यह झूठ था मगर बिरयानी खिलाना एक प्रतीक बन गया. इसे आतंक से जोड़ा जाने लगा. 2014 के चुनावों में खूब उछला कि आतंकवादी को बिरयानी खिलाई जा रही है. इस झूठ का पर्दाफाश हो जाने के बाद भी चुनावों में बिरयानी लौट आती है. खासकर एक समुदाय के संदर्भ में. पता है कि कांग्रेस की सरकार ने आतंकवादियों को बिरयानी नहीं खिलाई फिर भी इस झूठ को बार-बार दोहराया जाता है.

'आतंकवादी भारत के अंदर जगह जगह विस्फोट करते थे, उन सबको यमलोक पुरी की यात्रा पर भेजना शुरू कर दिया हमारे सुरक्षा बलों के ज़वानों ने. कांग्रेस और केजरीवाल इन उपद्रवियों को क्या खिलाते थे, बिरयानी. और हम क्या खिला रहे हैं गोली.'

अगर यह सवाल पूछा जाए कि केजरीवाल कब और किस आतंकवादी को बिरयानी खिला रहे थे तो क्या इसका जवाब मिलेगा? आतंकवादी कसब को फांसी हुई थी 21 नवंबर 2012 को. आम आदमी पारटी का गठन हुआ था 2 अक्तूबर 2012 को. उनकी सरकार एक साल बाद बनी जो कुछ समय ही चली तो केजरीवाल किस आतंकवादी को बिरयानी खिला रहे थे? 2013-14 से वकील उज्ज्वल निकम के एक झूठ के कारण राजनीति में बिरयानी एक रूपक की तरह बन गई है. बिरयानी को आतंक से जोड़ दिया गया है.

जैसा कि सोहेल हाशमी ने बताया कि दिल्ली में मुसलमान ही नहीं, हिन्दू भी बिरयानी बनाकर अपना गुज़ारा करते हैं. वेज बिरयानी भी और नॉन वेज बिरयानी भी. ज़ोमैटो जैसी फूड साइट पर दिल्ली एनसीआर में करीब 4000 से 5000 छोटी बड़ी जगहें हैं जहां तरह तरह की बिरयानी बनती है. आप अंदाज़ा नहीं कर सकते हैं कि बिरयानी ने किस तादाद में लोगों को रोज़गार देने का काम किया है. ज़ोमैटो की साइट पर बिरयानी अक्सर ट्रेंड करती रहती है. जो व्यंजन हज़ारों लोगों को रोज़गार देता हो उसे कितनी आसानी से एक समुदाय को टारगटे करने के लिए आतंकवाद से जोड़ दिया जाता है वो भी एक झूठ से. हैदराबाद की कल्याणी बिरयानी को गरीबों की बिरयानी मानते हैं. मेमनी बिरयानी, सिंधी बिरयानी भी है. अंबूर बिरयानी, कोलकाता बिरयानी, बोहरी बिरयानी, भोपाल की बिरयानी, ढाकाई बिरयानी, मालाबार और अवधि बिरयानी, भटकली बिरयानी. प्रदेशों के हिसाब से बिरयानी के प्रकारों में भी खूब प्रतिस्पर्धा होती है. इसलिए बिरयानी को मुक्ति मिल जानी चाहिए, खास कर तब जब यह साफ है कि आतंकवादी को बिरयानी नहीं खिलाई गई थी और वो एक झूठ था.

पाकिस्तान के मंत्री उनके पक्ष में इसलिए बयान जारी करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शाहीन बाग के लोगों को बिरयानी पहुंचाने का काम केजरीवाल ही कर सकते हैं. उनके चिन्ता सिर्फ शाहीन बाग से है. उनकी सहानभूति उन लोगों से है जो भारत के खिलाफ काम करते हैं.

शाहीन बाग़ का तरह तरह से चित्रण किया गया ताकि लोगों को यकीन हो जाए कि वहां भारत की जनता का नहीं आतंकवादियों का धरना चल रहा है. कभी ऐसा नहीं हुआ कि नागरिकों के एक हिस्से को इस तरह से चित्रित किया गया हो. दिल्ली हाई कोर्ट में पुलिस ने ऐसे तथ्यों पर कोई बहस नहीं की और न ही दिल्ली हाईकोर्ट ने शाहीन बाग के प्रदर्शन को उठाने का फैसला दिया. पुलिस के विवेक पर छोड़ते हुए अदालत ने कहा कि लोगों से बातचीत कर खुद फैसला करे.

ऐसा नहीं है कि देश में प्रदर्शन सिर्फ शाहीन बाग में ही हो रहा है, और मुद्दा सिर्फ नागरिकता संशोधन कानून ही है. अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल ने कहा था कि 50,000 नौजवानों को नौकरी दी जाएगी. तीन महीने के भीतर. तब उन्होंने कहा था कि यह राज्य का अब तक सबसे बड़ा भर्ती अभियान होगा.

पूरे देश में यह खबर पहुंचाई गई कि जम्मू कश्मीर में 50,000 नौकरियां तीन महीने के लिए दी जा रही हैं. जबकि कोई राज्य नहीं बता सकता है कि उसने तीन महीने के भीतर 50,000 तो क्या 500 सरकारी नौकरियां दी गई होंगी. हर दूसरे अखबार की हेडलाइन में था कि सरकार ने जम्मू कश्मीर को लेकर जो कदम उठाए हैं वो नौकरियां देने के लिए है. आज पांच महीने बाद उन सभी अखबारों और वेबसाइट और चैनलों की हेडलाइन को पलट कर देखिए. आपको पता चलेगा कि झूठ की एक आंधी किस तरह आती है, आपकी चर्चाओं में समा जाती है और फिर धीरे-धीरे उसकी भनक तक नहीं लगती है. सोचिए, तब इस घोषणा से पहले भी अखबार छाप रहे थे कि सेंटर जम्मू कश्मीर में 50,000 नौकरियां देने की योजना बना रही है. आज वो नौकरियां कहां हैं, पता नहीं. इसलिए हर बड़ी हेडलाइन को याद रखा कीजिए, कुछ महीने बाद उसकी सच्चाई का पता किया कीजिए.

सत्यपाल मलिक अब गोवा के राज्यपाल हो गए हैं. जम्मू कश्मीर के नौजवान 50,000 भर्तियों का इंतज़ार कर रहे हैं. यही नहीं 24 अक्तूबर 2018 को जम्मू कश्मीर बैंक ने प्रोबेशनरी अफसर और बैकिंग एसोसिट्स के फार्म निकाले थे. परीक्षा हो चुकी है मगर सात महीने से रिज़ल्ट का पता नहीं है. जबकि प्रोबेशनरी अफसर के पद के लिए जनरल उम्मीदवारों से 1000 लिए गए और एससी/एसटी से 800. सोचिए अनुसूचित जाति और जनजाति से 800 रुपये फार्म के लिए गए. जनरल के लिए भी यह फार्म काफी महंगा है. 1000 रुपये का फार्म किसी भी बेरोज़गार के लिए इंजेक्शन के जैसा है. इंस्टीट्यूट ऑफ बैकिंग पर्सनल सलेक्शन नाम की संस्था को ठेका दिया गया था ताकि परीक्षा की पारदर्शिता बनी रहे लेकिन पारदर्शिता का हाल ये है कि सात महीने में रिज़ल्ट नहीं आया है. जम्मू कश्मीर के एक लाख से ज़्यादा लोगों ने परीक्षा दी थी.

श्रीनगर के प्रताप पार्क में भी दो दिनों तक धरना चला. इसमें जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के कई हज़ार कर्मचारी हैं जो अलग-अलग विभागों में काम कर रहे हैं. इन्हें किराया महंगाई, दवाई भत्ता नहीं मिलने के कारण सैलरी कम मिल रही है. कायदे से इन्हें सभी भत्तों के साथ करीब 32000 की सैलरी मिलनी चाहिए लेकिन 28-29 हज़ार ही है. राज्य में नियम है कि पांच साल तक प्रोबेशन पर रहना होता है उसके बाद पूरी सैलरी मिलती है. रिटायर्ड जस्टिस एम के हंजूरा ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि प्रोबेशन का समय पांच की जगह दो साल का होना चाहिए. क्या इस प्रदर्शन को लेकर कोई भावुक है या ये प्रदर्शन चुनावी मुद्दा हो सकता है? जम्मू कश्मीर के नौजवान चाहते हैं कि नौकरी की ये शर्तें वापस ली जाएं. पांच साल तक बिना अन्य भत्तों के काम करना नाइंसाफी है.

बिहार के दारोगा परीक्षार्थियों का कहना है कि परीक्षा में धांधली हुई है. इसकी सीबीआई से जांच कराई जाए. आज दारोगा परीक्षा के परीक्षार्थियों ने पटना में रैली निकाली. 2400 से अधिक पदों के लिए छह लाख परीक्षार्थी इसमें शामिल हुए थे. मुख्य परीक्षा के लिए 50072 छात्रों का चयन हुआ है. मेन्स की परीक्षा अप्रैल में होगी. इन छात्रों का कहना है परीक्षा का पर्चा लीक हुआ था. जबकि कमीशन का कहना है कि जिन छात्रों का पीटी में नहीं हुआ वही आरोप लगा रहे हैं. इस बार परीक्षा ज़िलाधिकारी और एपी की निगरानी में हुई है. धांधली की कोई गुंज़ाइश ही नहीं थी. वैसे हकीकत यह भी है कि बिहार में परीक्षा माफिया की जड़े इतनी गहरी हो चुकी हैं उसका नेटवर्क पूरी तरह से ध्वस्त नहीं हुआ है. यही कारण है कि परीक्षाओं की विश्वसनीयता संकट में रहती है. इन छात्रों पर लाठियां चलीं. पानी की बौछारें बरसाई गईं. इसका मतलब यह है कि सरकार के सामने शाहीन बाग ही नहीं जो शाहीन बाग नहीं हैं उनका भी स्वागत लाठी डंडे की भाषा से होता है. किसी को आतंकवादी कहा जाता है, किसी को कुछ नहीं कहा जाता है लेकिन दोनों से सरकार का बर्ताव एक समान ही है. मुमकिन है कि यही छात्र अपने ऊपर चली लाठी को न देखें और शाहीन बाग के लिए कह दें कि वहां गोली चलाने वाला सही था. दरअसल जो ज़हर है उसका प्रसाद हर तरफ बराबर बंटा है.

हमने रोज़गार की बात इसलिए नहीं की क्योंकि प्राइम टाइम की नौकरी सीरीज़ जगत विख्यात है बल्कि इसलिए कर रहे हैं क्योंकि गृहमंत्री अमित शाह भी भी दिल्ली के चुनावी भाषणों रोज़गार का मसला उठा रहे हैं. भले ही यह उनके भाषण का बड़ा हिस्सा नहीं है लेकिन एक ज़रूरी मुद्दे के रूप में होता ही है. अगर सारे नेता इस मुद्दे पर आ जाएं तो अभी भी दिल्ली मे चुनावी भाषा बदल जाएगी. नौजवानों का बहुत भला होगा, न सिर्फ दिल्ली के बल्कि बिहार, यूपी, मध्यप्रदेश के नौजवानों का भी.

अस्थायी नौकरियों को स्थाई करने का मुद्दा बहुत अच्छा है. सवाल पूछने वाला भी फंस जाता है और जिससे जवाब मांगा जाता है वो भी फंस जाता है. बहुत सारे नौजवान अस्थायी नौकरियों की खराब शर्तों से परेशान हैं. उन्हें सैलरी भी कम मिलती है. अगर अमित शाह भी ज़िद पर आ जाएं और केंद्र सरकार की नौकरियों की रफ्तार ठीक करा दें तो इसका श्रेय मुझे भी जाएगा बशर्ते युवाओं को वाकई नौकरियां मिल जाएं.

अब देखिए 64 दिनों से दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक धरने में बैठे हैं. इनकी यही मांग है कि एडहाक शिक्षक को परमानेंट किया जाए. यह काम केंद्र सरकार का है. अगर केंद्र सरकार इन शिक्षकों को जो कई वर्षों से एडहाक या गेस्ट टीचर के रूप में कांट्रेक्ट पर पढ़ा रहे हैं. शिक्षकों को परमानेंट कर दिया जाता तो 64 दिनों से धरना देने की नौबत नहीं आती. जबकि 21 मार्च 2017 को तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था कि एक साल के भीतर 9000 एडहाक शिक्षकों को दिल्ली विश्वविद्यालय में परमानेंट कर दिया जाएगा. इस बयान को दिए हुए कई साल बीत गए हैं. वाइस चांसलर ऑफिस के सामने ये एडहाक शिक्षक किसी का भी इंतज़ार कर रहे हैं जो उनकी नौकरी पक्की कर दे. जुलाई 2019 में नए मानव संसाधन मंत्री निशंक ने कहा था कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी में खाली पड़े 7000 पदों को युद्ध स्तर पर भर देंगे. छह महीने के भीतर. 64 दिनों से यहां तंबू लगाकर बैठे हैं. अगर अमित शाह थोड़ा और रिसर्च कर लेते तो केजरीवाल के साथ-साथ अपने मंत्रियों से भी सवाल कर लेते.

राजनीति कमाल की होती है. जब अमित शाह से पूछा जाता है कि हर साल एक करोड़ नौकरियां देने का वादा किया गया था तो जवाब नहीं दे पाते हैं. ज़ाहिर है कांग्रेस उन्हें घेरेगी लेकिन अगर अमित शाह और तैयारी कर लें तो कांग्रेस को भी परेशानी होगी मगर इस राजनीति से सिर्फ युवाओं का भला होगा जो इस देश के हैं.

अगर प्रियंका गांधी थोड़ा और रिसर्च कर लेती तो सीधे सवाल करती कि 2019 के चुनावों के संदर्भ में रेलवे ने जो वैकेंसी निकाली, उसकी परीक्षा पूरी हो गई. दस्तावेज़ों की जांच हो गई. छह महीने से बहुत सारे छात्र नियुक्ति पत्र का इंतज़ार क्यों कर रहे हैं. दो साल हो गए मगर रेल मंत्रालय इस परीक्षा को पूरी नहीं करा सका. इसी सोमवार को गोरखपुर मंडल में ये छात्र धरने पर बैठे थे. अगर प्रियंका गांधी अभी भी अमित शाह से ये सवाल कर लें तो इन छात्रों को नियुक्ति पत्र मिल जाएगा और अमित शाह मध्य प्रदेश को लेकर प्रियंका से सवाल कर लें तो वहां के जवानो को नौकरी मिल जाएगी.

एक साल हो गए, रेलवे की एनटीपीसी की परीक्षा के फार्म भरे हुए, परीक्षा का पता तक नहीं. सोचिए इस पर दिल्ली में चुनाव गरम हो जाए तो आपमें से बहुतों के घर नौकरियां आएंगी. अरविंद केजरीवाल यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से पूछ सकते हैं कि 69000 शिक्षकों की भर्ती का मामला कोर्ट में अटका हुआ है, कई बार सरकारी वकील पेश नहीं हो पाता है.

अगर संजय सिंह भी थोड़ी और रिसर्च कर लेते तो उठा देते कि उत्तरी दिल्ली नगर निगम के आठ हज़ार शिक्षकों को तीन महीने से वेतन क्यों नहीं मिला है? अगर अमित शाह इनके वेतन का मुद्दा उठा दें तो राजीनीति में नया मोड़ आ जाएगा.

अब देखिए ये भी महिलाएं हैं. शाहीन बाग की नहीं हैं मगर हैं तो दिल्ली की ही. ये सभी काली पट्टी बांध कर काम पर जाती हैं. उत्तरी दिल्ली नगर निगम के 8000 शिक्षकों को तीन महीने से वेतन नहीं मिला है. उत्तरी दिल्ली नगर निगम में बीजेपी को बहुमत हासिल है. पुरुष शिक्षकों के साथ भी यही हाल है. दिल्ली शहर में शिक्षकों को तीन महीने से सैलरी नहीं मिली है वहां शाहीन बाग़ की महिलाओं को आतंकवादी बताने की राजनीति चल रही है. दिल्ली में यह क्यों नहीं मुद्दा है कि तीन महीने से सैलरी नहीं मिली है नगर निगम के शिक्षकों को. उत्तरी दिल्ली नगर निगम में भी कई सौ शिक्षक अस्थायी हैं. अमित शाह चाहें तो तुरंत ही स्थायी कर केजरीवाल को घेर सकते हैं. लेकिन ऐसा नहीं होगा.

अस्थायी नौकरियों का मसला बिहार में भी है. वहां हज़ारों सफाई कर्मचारी अपनी नौकरी स्थायी करने को लेकर हड़लात पर हैं. अस्थायी नौकरियों का मुद्दा  दिल्ली में उठे तो बिहार तक में जाए तो पटना के सफाई कर्मचारियों को स्थाई होने का मौका मिलेगा.

मनीष कुमार का कहना है कि पटना में दस साल से सफाई कर्मचारी स्थायी होने की लड़ाई लड़ रहे हैं. पटना में करीब 3000 सफाई कर्मचारी हैं. इसे लेकर पटना में सफाई कर्मचारी दो दिनों से हड़ताल पर हैं. शहर के हर कोने में गंदगी जमा हो गई है. इस तरह से सफाई कर्मचारियों की हड़ताल चल रही है.

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

राजनीति को रोज़गार के सवाल पर लाकर देखिए. बहुत सारे झूठ आपको भी चुभेंगे और नेताओं को भी. मगर भला उन युवाओं का होगा जिन्हें हिन्दू मुसलमान की आग में झोंक दिया गया है. लेकिन इस भ्रम में भी न रहें कि सांप्रदायिकता के ज़हर को रोज़गार के सवाल से दूर किया जा सकता है. सांप्रदायिकता की लड़ाई अलग है. उसका रोज़गार से कोई लेना देना नहीं है. जो बेरोज़गार है उसके बारे में आप दावे से नहीं कह सकते है कि वो ज़हर की चपेट में नहीं है.