खोजी पत्रकारिता को लेकर चीफ जस्टिस के बयान पर उसी तरह की प्रतिक्रिया आई जिस तरह दुनिया भर के खोजी पत्रकारों की मदद के लिए फंड बनाने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को कड़े सवालों का सामना करना पड़ा. दोनों मामलों को एक तराजू में नहीं रख सकते लेकिन दोनों ही मामले, मीडिया के भीतर गायब हो चुकी खोजी से लेकर रूटीन पत्रकारिता की बहस को पब्लिक के बीच लाने में मदद जरूर करते हैं. भारत में तो खोजी क्या रुटीन पत्रकारिता भी गायब है.बात खोजी की हो रही है तो आज ही आई एक खोजी रिपोर्ट का ज़िक्र पहले करना चाहते हैं.
भीमा कोरेगांव केस के अभियुक्तों के इलेक्ट्रानिक सबूतों को लेकर पत्रकार निहा मसीह की यह तीसरी बड़ी रिपोर्ट है.क्या इस तरह की कल्पना भी भयानक नहीं है कि आपके लैपटॉप में कोई स्पाई वेयर प्रवेश कर जाए. आपकी तरफ से किसी को मेल भेजने लगे और उसमें किसी आतंकी योजना का ज़िक्र कर दे और कुछ दिनों बाद आतंकी साज़िश के आरोप में आप गिरफ्तार हो जाएं. इस रिपोर्ट से केवल जेल में बंद किसी व्यक्ति के जीवन के सवाल नहीं पैदा होते बल्कि सिस्टम की वैधता को भी गंभीर चुनौती मिलती है कि क्या किसी को इस तरह से आतंक के केस में फंसाया जा सकता है?
जून 2018 से भीमा कोरेगांव केस में बंद रोना विल्सन अकेले नहीं हैं, अन्य अभियुक्तों के सबूतों के साथ छेड़छाड़ की फोरेंसिक रिपोर्ट आ चुकी है. तीन तीन इंटरनेशनल फोरेंसिक लैब की जांच में पाया गया है कि रोना विल्सन के फोन और लैपटाप में संदिग्ध दस्तावेज़ डाले गए और फोन की जासूसी की गई. रोना विल्सन के फोन का बैक अप डेटा मौजूद होने के कारण फोरेंसिक जांच हो सकी है. उनके वकीलों ने एमनेस्टी इंटरनेशनल सिक्योरिटी लैब को जांच के लिए सबूत दिए थे, एमनेस्टी ने अपनी जांच में पाया है कि गिरफ्तार करने से कुछ समय पहले रोना के फोन में पेगासस साफ्टवेयर से छेड़छाड़ की गई थी.
जुलाई में जब ग्लोबल मीडिया कंसोर्टियम और वायर ने मिलकर पेगासस पर रिपोर्ट छापी थी तब यह बात सामने आई थी कि भीमा कोरेगांव के कई आरोपियों के नंबर पेगासस की संभावित सूची में हैं. इन आरोपियों में रोना विल्सन पहले हैं जिनके फोन में पेगासस होने की पुष्टि की गई है. फरवरी में भी निहा मसीह ने वाशिंगटन पोस्ट में रिपोर्ट आई कि अमरीका की फोरेंसिक जांच करने वाली कंपनी आर्सेनल ने भी पाया है कि रोना विल्सन के लैपटाप में दो साल से कोई जासूसी साफ्टवेयर घुसा हुआ था. किसी अज्ञात जासूस ने रोना के ईमेल से माओवादी संगठनों को पत्र लिखा और कुछ समय बाद रोना विल्सन आतंक के आरोप में गिरफ्तार हो गए. इस रिपोर्ट में एनआईए का बयान है कि कोर्ट जांच एजेंसी उसी लैब से रिपोर्ट लेती है जिसे कोर्ट मान्यता देती है.
खुद 'आईफोन' बनाने वाली कंपनी ऐप्पल ने माना है कि पेगासस स्पाईवेयर से उसके उपभोक्ताओं के फोन हैक हुए हैं, ऐप्पल ने पेगासस बनाने वाली कंपनी NSO पर हर्जाने के लिए मुकदमा भी किया है. क्या अब भी सरकार या जांच एजेंसी नहीं मानेगी कि रोना विल्सन या अन्य लोगों के फोन में छेड़छाड़ हुई है और संदिग्ध दस्तावेज़ प्लांट किए गए हैं? दुनिया भर के देश इसी एमनेस्टी इंटरनेशनल, सिटिज़न लैब की रिपोर्ट के आधार पर अपने देश में जाचं कर रहे हैं, अमेरिका में एनएसओ को बैन किया गया है तो भारत सरकार को संदेह तक नहीं होने के क्या कारण हो सकते हैं?
राज्य सभा में सरकार ने कहा है कि पेगासस बनाने वाली कंपनी पर बैन लगाने का कोई विचार नहीं है. जिस देश में पोस्टमार्टम रिपोर्ट से लेकर तमाम रिपोर्ट मैनेज हो जाती हो उस देश में अगर किसी और एजेंसी से सवाल उठते हैं तो क्या जांच एजेंसी और कोर्ट को उसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए? वाशिंगटन पोस्ट की तीन तीन खोजी रिपोर्ट हवा में नहीं है. तीन तीन इंटरनेशनल फोरेंसिक लैब की जांच दावा कर रही है जिनकी रिपोर्ट को दुनिया की कई सरकारें गंभीरता से लेती हैं.आर्सेनल की रिपोर्ट के आधार पर ही टर्की में कई पत्रकारों की जान बची थी.
रोना विल्सन के मामले में जिस आर्सेनल ने फोरेंसिक रिपोर्ट दी थी उसी की रिपोर्ट के आधार पर टर्की की न्यूज़ वेबसाइट ODATV के 13 पत्रकारों को आतंक के आरोप में छह साल जेल में बिताने के बाद रिहा किया था. इन पत्रकारों पर एक आतंकी संगठन का समर्थन करने का आरोप लगा था जो सरकार का तख्ता पलट करना चाहता है. इसी तरह के आरोप भीमा कोरेगांव केस में भी हैं. आर्सेनल ने अपनी जांच में साबित किया था कि ODATV के पत्रकारों के कंप्यूटर में हैकरों के ज़रिए कई संदिग्ध दस्तावेज़ डाल दिए गए, जिसके बारे में उन्हें पता तक नहीं था और बाद में सरकार ने आतंक के आरोप में उन्हें छह साल तक के लिए जेल में बंद कर दिया. अमेरिका की फोरेंसिक कंपनी की रिपोर्ट के आधार पर टर्की अदालत ने इन सभी को रिहा किया था.
भारत सरकार पनामा पेपर्स के मामले में जांच कर रही है, पनामा पेपर्स भी इंटरनेशनल कर्सोटियम आफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्ट ने खोज निकाल था. इसमें दुनिया के 180 से अधिक समाचार संगठनों के पत्रकारों ने मिलकर करोड़ों रिकार्ड छान मारे गए थे. ठीक उसी तरह से पेगासस मामले में भी दुनिया भर के 16 समाचार संगठनों के अस्सी से अधिक पत्रकारों ने मिल कर काम किया लेकिन पनामा पेपर्स की जांच करने वाली सरकार ने पेगसास पर्दाफाश की जांच से इंकार कर दिया.
2018 में सुप्रीम कोर्ट तत्कालीन जस्टिस रंजन गोगोई ने भी कहा था कि तरह तरह के सवाल उठाने वाले जज, स्वतंत्र पत्रकार लोकतंत्र के पहले मोर्चे के सिपाही हैं. भारत के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने कहा कि खोजी पत्रकारिता मीडिया से ग़ायब होती जा रही है.
रुस के पत्रकार दिमित्री मुरातोव को नोबेल शांति पुरस्कार मिला है. उन्होंने अपना पुरस्कार खोजी पत्रकारों के समुदाय को समर्पित किया है. पिछले 15 साल में दिमित्री मुरातोव की समाचार एजेंसी नोवाया गज़ेटा के 6 खोजी पत्रकारों की हत्या हुई है. इस भ्रम में मत रहिए कि सरकारों को प्रेस का ख्याल आया है, उन्हें पता है कि जनता मीडिया के खेल को समझ गई है और जानती है कि किसकी वजह से मीडिया का ये हाल हुआ है. जो बीमारी का कारण है वही आला लेकर डाक्टर बना घूम रहा है. इसलिए सरकारें मीडिया को लेकर अच्छा अच्छा बोल रही हैं.
डेमोक्रेसी समिट में प्रधानमंत्री मोदी ने मुक्त प्रेस को लोकतंत्र के लिए ज़रूरी बताया है. जबकि मई 2019 में प्रधानमंत्री ने इंडियन एक्सप्रेस के राजकमल झा और रविश तिवारी को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने एक बात कही थी. जब प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट की बैठकों की तारीफ कर रहे हैं तब एक सवाल आता है कि लेकिन हमें न्यूज़ के रुप में क्या मिलता है? But what do we get as news? इसके जवाब में प्रधानमंत्री कहते हैं कि “ये आपकी समस्या है. मैं अलोकतांत्रिक नहीं हूं. मैं दिल्ली में 250 लोगों से तीन घंटे के लिए मिला हूं.सबसे खुली चर्चा हुई है. मैं मानता हूं कि मीडिया में सरकार की सोच के साथ साथ लोगों की सोच भी पारदर्शी होनी चाहिए. ख़बर छपती है या नहीं, लोकतंत्र में यही एक चीज़ नहीं है ”
सात दिन पहले प्रधानमंत्री जिस मुक्त प्रेस को लोकतंत्र के लिए अनिवार्य बता रहे थे, उन्हीं का यह बयान है कि ख़बर छपती है या नहीं. लोकतंत्र में यही एक चीज़ नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सात साल में एक भी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है. काशी कवरेज के समय दो दिनों तक लगातार टीवी पर रहते हैं, लेकिन उनके एक सवाल जवाब नहीं होता है. मीडिया में रहने के बाद भी मीडिया के सवालों से इतने दूर.
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति हर दिन मीडिया को फेक कहा करते थे, सीएनएन को फेक न्यूज़ कहा करते थे लेकिन उनके व्हाइट हाउस में प्रेस कांफ्रेंस कभी बंद नहीं हुई. इस प्रेस कांफ्रेस में पहले से सवाल तय नहीं होते हैं, जिसकी बारी आती है. वह सवाल पूछ लेता है. राष्ट्रपति जवाब देते हैं. प्रधानमंत्री ने सात साल में एक भी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं की. प्रधानमंत्री चाहें तो अमेरिका की तरह खुली प्रेस कांफ्रेंस की परंपरा शुरू कर सकते हैं. अगर हम जैसे पत्रकार से समस्या है तो गोदी मीडिया के पत्रकारों के लिए भी खुली प्रेस कांफ्रेंस की जा सकती है. जनता कम से कम पत्रकारिता का नमूना ही देख लेगी.
इस कड़ी में खोजी पत्रकारिता को लेकर दिए गए चीफ जस्टिस एन वी रमना के बयान को देखना चाहिए वे मसले को जनता के बीच प्रमुखता से ला रहे हैं. जिस पर मीडिया भी बात नहीं कर रहा. तब भी नहीं जब खोजी पत्रकारों को नोबेल पुरस्कार मिला और तब भी नहीं जब जो बाइडेन ने खोजी पत्रकारों की मदद के लिए ग्लोबल फंड बनाने का एलान किया.
यह बहस मीडिया के बीच होनी चाहिए थी लेकिन सवाल सुप्रीम कोर्ट को लेकर ही उठ गया जो कि गलत भी नहीं था.
25 नवंबर 2019 को खोजी पत्रकार नितिन सेठी ने पैसा पॉलिटिक्स के नाम से हफपोस्ट के लिए छह रिपोर्ट फाइल की थी. इसमें दिखाया था कि किस तरह इलेक्टरल बॉन्ड वाले कानून को पास कराने के लिए संसद से लेकर जनता के बीच सरकार ने कई तरह की बातें की जो सही नहीं थीं. लोग इस रिपोर्ट को लेकर पूछने लगे कि इस मामले में सुनवाई कब पूरी होगी क्योंकि इसकी फाइल में इलेक्टोरल फंड को लेकर की गई खोजी रिपोर्ट भी है.
हाल के दिनों में कई मामलों में कोर्ट ने कई पत्रकारों की गिरफ्तारियों पर रोक लगाई है लेकिन पत्रकार सिद्दीक कप्पन का मामला कहीं ज्यादा ब़ड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह बना देता है. इन सब अंतर्विरोधों के बीच सुप्रीम कोर्ट लगातार मीडिया के खोखलेपन को उजागर कर रहा है.कोर्ट के ही फैसले बता रहे हैं कि पुलिस किस तरह से पत्रकारों को फंसा रही है.पत्रकारिता करना जेल जाना और मुकदमों में उलझना हो गया है. इस बहस से सरकार चुपचाप गायब है. प्रधानमंत्री मोदी जो बाइडन के सम्मेलन में बोल आते हैं कि मुक्त प्रेस लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है, वही प्रेस हेडलाइन भी बना देता है.
इसी साल 26 अगस्त को जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के जस्टिस रजनीश ओसवाल ने कहा था कि प्रेस की आवाज़ दबाने के लिए FIR एक मॉडल बन गया है. पत्रकार आसिफ़ इक़बाल नायक ने 19 अप्रैल 2018 को जम्मू के अखबार अर्ली टाइम्स में एक रिपोर्ट की थी. अख़्तर हुसैन नाम के शख़्स को पुलिस हिरासत में यातनाएं दी गई थीं. पुलिस ने पत्रकार पर ही केस कर दिया. जस्टिस रजनीश ओसवाल ने कहा कि पुलिस ने आसिफ़ को चुप कराने का एक नायाब तरीक़ा निकाला जो कि निसंदेह प्रेस की आज़ादी पर हमला है.
मानहानि के मुकदमों, फर्ज़ी FIR,बात बात में UAPA के मामले दर्ज किए जा रहे हैं. पत्रकारों को कोर्ट का चक्कर लगवाकर परेशान किया जा रहा है. सिस्टम को कुछ महीने बाद केस के फर्ज़ी साबित होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. आखिर डॉ कफील खान के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने माना कि अवैध रुप से NSA लगाया गया है, लेकिन उस अधिकारी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ जिसने अवैध रुप से NSA लगाया. अदालत की ओर से जवाबदेही मांगी जानी चाहिए लेकिन बहस की दिशा मीडिया के भीतर भी होनी चाहिए. तमाम बड़े न्यूज़ चैनलों में सरकार के भीतर से खोज कर लाने वाली खबरें गायब हो गई है. इक्का दुक्का पत्रकार बचे हैं जो यह काम कर रहे हैं.
The Reporters' Collective में ही नितिन सेठी और श्रीगिरिश जलिहल की रिपोर्ट बता रही है कि दाल की खरीद के नियमों में पारदर्शिता नहीं होने के कारण दाल मिल मालिकों को साढ़े चार हज़ार करोड़ का फायदा हुआ है. The रिपोर्टस कलेक्टिव ने नीलामी के दस्तावेज़ों की जांच के बाद पाया है कि दाल खरीदने वाली सरकारी एजेंसी ने 2018 से लेकर अब तक एक हज़ार बार से अधिक नीलामी की है. उसमें कीमतों की न्यूनतम सीमा तय नहीं की गई. इसके चलते मिल मालिकों को लाभ छिपाने का मौका मिला. रिपोटर्स कलेक्टिव ने जो दस्तावेज़ देखे हैं, उन्हें हमने नहीं देखें और इस तरह के दस्तावेज़ों को देखने परखने के लिए खास तरह के कौशल की भी ज़रूरत होती है. ऐसी रिपोर्ट केवल दिन रात की मेहनत से ही तैयार नहीं होती है. पत्रकार को कानून से लेकर कई चीज़ों का ध्यान रखना पड़ता है.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने दुनिया भर के खोजी पत्रकारों की कानूनी मदद के लिए फंड फॉर पब्लिक इंटरेस्ट मीडिया बनाया है. इससे दुनिया भर के खोजी पत्रकारों की मदद की जाएगी. लेकिन अमेरिका अपने ही खोजी पत्रकार जूलियन असांजे और एडवर्ड स्नोडन के मामले में क्या कर रहा है? दोनों व्हिसल ब्लोअर हैं, बाइडेन ने अपने भाषण में व्हिसल ब्लोअर की सुरक्षा पर भी बात की लेकिन असांजे और स्नोडेन को लेकर उनसे गंभीर सवाल होने लगे. भारत का मीडिया शायद इस प्रदर्शन को दिखाना ठीक न समझे.
जो नगालैंड की राजधानी कोहिमा में आज हुआ है. भारत सरकार और सेना के अफसोस प्रकट करने के बाद भी लोगों की नाराज़गी कम नहीं हुई है.नगा स्टुडेंड फेडरेशन ने बड़ा प्रदर्शन किया है. पता चल रहा है कि लोगों की नाराज़गी कम नहीं हुई है. बढ़ती ही जा रही है. दूर के ज़िलों में चल रहे प्रदर्शनों की आग अब कोहिमा पहुंच गई है. नगालैंड के मोन ज़िले में सेना के हाथों 14 लोगों की हत्या का मामला अभी तक शांत नहीं हुआ है.
पुलिस ने FIR में इसे हत्या ही लिखा है. लोग इस मामले में इंसाफ चाहते हैं. सेना से असहयोग के नारे लग रहे हैं. बैनरों पर लिखा है कि AFSPA हटाने के पहले कितनी बार गोलियां चलाई जाएंगी. संसद में भी आर्म्ड फोर्सेस स्पेशनल पावर्स एक्ट हटाने की मांग हो रही है. राष्ट्रीय उत्सवों से दूर रहने के नारे लग रहे हैं. छात्र यह भी मांग कर रहे हैं कि 6 दिसंबर को संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने जो बयान दिया है वह गलत है और भ्रामक है, उसे वापस लिया जाए. गृह मंत्री के बयान पर भी लोगों को यकीन नहीं है.