बजट में कहा तो... पर क्या टीबी को हराना आसान है?

बजट में कहा तो... पर क्या टीबी को हराना आसान है?

आंगन में बैठी इन महिलाओं को गौर से देखिए. इनके माथे पर बिंदी नहीं है. मांग में सिंदूर भी नहीं. ये सभी विधवा हैं. पति को खोने के बाद अब ये लाचार सी जिंदगी जी रही हैं. यह महिलाएं मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले के पोहरी ब्लॉक के एक ही गांव जाखनौद के एक मोहल्ले में रहती हैं. इन सभी के पति टीबी के कारण मौत का असमय ही शिकार हो गए. इस जिले में गांव-गांव की ऐसी ही कहानी है, जहां आपको मोहल्ले के मोहल्ले टीबी से पीड़ित मिलेंगे. शिवपुरी ही क्यों, तकरीबन 17 हजार साल पुरानी टीबी की यह बीमारी चुपचाप देश के गांव-गांव में फैल रही है. शिवपुरी जिले के बारे में तो कहा जाता है कि इस जिले में रहने वाले बच्चे कुपोषण से असमय मरते हैं और सहरिया आदिवासी टीबी से.

मध्यप्रदेश के ही पन्ना जिले के गांव मनोर को ही ले लीजिए. गांव में सिर का मुंडन करवाए लोग मिले. बच्चों से लेकर बड़े तक. पता चला कुछ दिन पहले ही यहां परिजन की मृत्यु हुई है. कारण टीबी. टीबी से मौत यहां सामान्य बात हो चुकी है. यहां कोई भी व्यक्ति पचास बरस से ज्यादा  का नहीं है. यहां सबसे बुजुर्ग व्यक्ति हैं पचास साल के लंबू आदिवासी. लंबू खुद टीबी के मरीज हैं. इस गांव में चालीस विधवा महिलाएं इस वक्त हैं,  गांव के लोग आसपास की पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूर हैं. आप समझ सकते हैं कि टीबी भी गरीबों पर ज्यादा कहर ढाती है. खाली, भूखे पेट पर यह भी उतनी निर्ममता से प्रहार करती है कि इसका शिकार फिर बच नहीं पाता.

इस भयंकर बीमारी को 2025 तक जड़ से खत्म करने की घोषणा सरकार ने कर दी है. अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने टीबी और काला-ज्वर को मिटा फेंकने की जो प्रतिबद्धता दिखाई है उसे हाथों हाथ लिया जाना चाहिए, लेकिन जिस भयंकर रूप में यह हमारे देश में फैली है,  क्या उसे देखना लाजिमी नहीं होगा? क्या यह संभव हो पाएगा कि टीबी सचमुच आने वाले नौ-दस सालों में जड़ से खत्म हो जाए, यदि हां तो इसका रोडमैप क्या होगा? अभी तो इसकी गंभीरता को देखते हुए यह लगता है कि यह कम होने की बजाय बढ़ रहा है. जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं भारत में साल 2015 में तपेदिक  से मरने वालों की संख्या 4,80,000 तक पहुंच गई.

 
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इंडियन मेडिकल रिसर्च कौंसिल के पर्चों में जब हम इस बीमारी को खोजते हैं तो पाते हैं कि 1900 की शुरुआत में प्रति एक लाख लोगों पर आठ सौ लोग टीबी से प्रभावित थे. 1920 तक चार सौ लोग इससे प्रभावित पाए गए. सन 1950 में हमारे देश में प्रति लाख आबादी पर यह आंकड़ा 200 तक पहुंचा था. इसे आजाद भारत में हम अब तक दो सौ से 111 पर पहुंचा पाए हैं. इसका एक मतलब यह भी मानें कि अंग्रेजों के जमाने में टीबी ज्यादा तेज गति से ठीक हुई. टीबी से संबंधित सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि पिछले छह सालों में हमने टीबी से प्रभावित मरीजों को प्रति एक लाख की आबादी पर 17 अंकों तक ही कम किया है. यदि सरकार इसी गति से बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के कोशिश करती रही तो टीबी पूरी तरह ठीक होने में अब भी तीस साल लगेंगे.

आपको बता दें कि यह आंकड़े सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए दर्ज होने वाले मरीजों के हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन यह कहता है कि भारत में टीबी के केवल 58 प्रतिशत मामले ही दर्ज होते हैं. एक तिहाई से ज्यादा मामले या तो दर्ज ही नहीं होते हैं या उनका इलाज नहीं हो पाता है. इसका बड़ा कारण यह है कि गैर सरकारी सेक्टर के अस्पतालों में टीबी को दर्ज किए जाने का अब तक कोई सिस्टम ही नहीं बना है. संगठन का ऐसा अनुमान है कि ऐसे तकरीबन दस लाख और टीबी मरीज देश में है जिन्हें पहचाना ही नहीं जा सका है. इसलिए माना यह जाना चाहिए कि टीबी को जितने हल्के में लेकर हम 2025 तक जड़ से मिटा देने की बात कर रहे हैं दरअसल वह इतना आसान है नहीं.

गरीबी दूर किए बिना क्या दूर होगी टीबी
देश में सत्तर प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है. गरीबी दूर होने की दर भी वास्तव में कम है. यह समझे जाने की जरूरत है कि टीबी का संबंध व्यापक रूप से पोषण से जाकर जुड़ता है. भूखे पेट रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है. इसलिए टीबी भूखे समाज में ज्यादा गंभीरता से सामने आती है. पोषण से भी मतलब केवल सब्जी-रोटी नहीं अपितु संतुलित भोजन से माना जाना चाहिए. इसलिए यहां पर केवल टीबी का इलाज मुहैया करा भर देने से टीबी का खात्मा संभव नहीं है, यह तब मुमकिन होगा जबकि देश में लोगों को रोग प्रतिरोधक ताकत बनाए रखने के लिए संतुलित आहार भी मिले. इसके लिए लोगों को स्थानीय समाज में मिलने वाले पोषक तत्वों की ओर जाना होगा.  

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर भरोसा दिलाना होगा
टीबी की एक बड़ी बाधा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर लोगों का कम भरोसा होना भी है. जबकि टीबी के लिए सरकार ने डॉटस जैसी बेहतरीन सुविधाएं पूरी तरह निशुल्क उपलब्ध करवा रही है, तब भी लोग इसके इलाज के लिए बड़ी संख्या में गैर सरकारी संस्थाओं या डॉक्टरों के पास ही जा रहे हैं. जो इलाज शून्य लागत पर हो सकता है, उसके लिए लोग शिवपुरी जिले में हजारों रुपये खर्च कर रहे हैं. शिवपुरी जिले के ही सोनीपुरा गांव की एक महिला को तो इसके लिए अपनी जमीन तक बेचनी पड़ी, क्योंकि उसके घर में एक ही साल में तीन-तीन लोग टीबी के चलते मौत का शिकार हो गए. इस इलाके के ज्यादातर लोग इलाज के लिए छतरपुर जिले के नौगांव इलाज के लिए जाते हैं, वहां टीबी अस्पताल होने के बाजवूद प्राइवेट डॉक्टर को दिखाकर अपना इलाज कराते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि गैर सरकारी व्यवस्थाएं इलाज को महंगा बनाती हैं. सरकार ने इस साल स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में तकरीबन 27 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है, इस भारी-भरकम बढ़ोत्तरी के बाद भी यदि कुल बजट में आप इसका हिस्सा देखेंगे तो पाएंगे सरकार अब भी 0.3 प्रतिशत आवंटन ही स्वास्थ्य सेवाओं को दे रही हैं जो परिस्थितियों को देखते हुए बिलकुल भी पर्याप्त नहीं है.   

टीकाकरण का दायरा बढ़ाना होगा
तमाम कोशिशों के बावजूद देश में टीकाकरण में पर्याप्त सुधार नहीं हो पाया है. तकरीबन 35 प्रतिशत बच्चे अब भी सभी टीके नहीं लगवा पाते. टीबी का टीका भी उनमें से एक है. यदि टीबी को जड़ से खत्म करना है तो बीसीजी के टीके को सभी बच्चों तक पहुंचाना होगा. टीबी की लड़ाई में दो मोर्चों पर काम करने से ही सफलता मिलेगी, एक तो जो मरीज हैं उन्हें ठीक करने की कवायद और दूसरा यह कि देश में नए मरीज न पैदा हों.

आवास नीति में स्थान
सरकार अगले पांच सालों में सभी के लिए मकान का बंदोबस्त करने वाली है. टीबी के मरीज जिन जगहों पर ज्यादा हैं वह असुरक्षित हैं, इससे उनके आसपास के लोग जल्द ही प्रभावित हो जाते हैं. सरकार यह भी कर सकती है कि अपनी आवास नीति में टीबी वाले मरीजों को प्राथमिकता देकर उनके लिए अलग आवास की व्यवस्था कर दे. ऐसे में नए मरीजों का आंकड़ा थम सकेगा.


राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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