बुधवार को ही खबर आई कि देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने विजय माल्या की बंद हो चुकी कंपनी किंगफिशर एयरलाइंस को दिए 1,200 करोड़ रुपये के कर्ज़ को अपनी बही के बट्टे खाते (वह कर्ज़, जिसकी वसूली संभव न हो) में दर्ज कर लिया है. एसबीआई के एक पूर्व चेयरमैन ने NDTV को बताया कि एयूसीए कैटेगरी में कर्ज़ों को डाल देना इसी बात का संकेत है कि बैंक कमोबेश किंगफिशर से कर्ज़ की वसूली की उम्मीद छोड़ चुका है.
जिसे संघर्ष करना है, करे. लेकिन सही वजह जानकर करे. SBI की चेयरमैन हों या बाकी बैंकर्स, सरकार के फैसले से काफी खुश हैं. हालांकि यूपीए सरकार के दौरान भी इन्हें कभी सरकार के फैसलों के खिलाफ बोलते देखा नहीं गया. ये बात भी खुल चुकी है कि बैंकों ने रिस्क लेकर उद्योगपतियों को काफी पैसा उधार दिया.
Non-Performing asset(NPA) जिसे अगर आसान भाषा में समझें तो इसका मतलब है कि बैंकों ने काफी उधार दिया ब्याज़ पर, लेकिन वो ब्याज़ आना तो बंद हो ही गया, साथ ही मूल वापस आने की गुंजाइश भी कम ही है. तो आप ये जान लीजिये, फिलहाल इस NPA की वजह से पूरी दुनिया में भारत सबसे बुरी अर्थव्यवस्था के तौर पर खड़ा है.
विभिन्न अख़बारी रिपोर्ट के आधार पर कुछ आंकड़े जुटाए हैं. 38 बैंको ने अपने नतीजे घोषित किये हैं जिनमें से 23 सरकारी/पब्लिक बैंक हैं और 15 प्राइवेट बैंक. इनके नतीजों से पता चलता है कि हालत बेहद खराब है. मुनाफ़ा 26% तक गिर गया है. ब्याज़ से होने वाली आमदनी ख़ास नहीं बढ़ी. NPA इस साल बढ़ कर 6.5 लाख करोड़ रुपये के हो गए हैं, 2015 में 3.3 लाख करोड़ थे.
मतलब इतना क़र्ज़ रूपी पैसा जिस पर अब ब्याज़ से आमदनी नहीं हो रही और इसका मूल भी वापस नहीं आया. सबसे बुरा हाल सरकारी बैंकों का है. 90 फीसदी NPA तो इनका है. कुछ सरकारी बैंक तो दिवालिया होने की कगार पर हैं. प्राइवेट बैंक जैसे एक्सिस बैंक का लाभ भी 84% तक गिर गया है. आईसीआईसीआई बैंक ने पिछले 10 साल के रिकॉर्ड में सबसे बुरा प्रदर्शन किया है. इस बैंक का NPA 76% बढ़ गया है. 16 फरवरी को इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट ने खुद संज्ञान लिया जिसमें खुलासा हुआ था कि सरकारी बैंकों ने 2013 और 2015 के बीच 1.14 लाख करोड़ के क़र्ज़ को घाटे के तौर पर दिखाया यानी राइट-ऑफ कर दिया.
सरकारी बैंकों का दोबारा पूंजीकरण करना है तो कम से कम 2 लाख करोड़ रुपये चाहिए होंगे. सरकार ये पैसा कहां से लाती. तो क्या किया जा सकता था, आपके पास पड़ा हुआ पैसा बैंकों में जमा होना चाहिए और आपको कम से कम पैसा निकालने की इजाज़त. प्रधानमंत्री ने 50 दिन कह कर मांगे ही हैं. इकोनॉमिक टाइम्स में छपे एक लेख के अनुसार नए नोटों को छपने में कम से कम दो महीने का वक़्त लगेगा.
एसबीआई का एक शेयर 8 नवंबर को 243 रुपये का था, 11 नवंबर को 287 रुपये पहुंच गया. मतलब बैंक तो खुश हैं. जब पैसा आएगा तो दोबारा उधार दिया जा सकेगा उद्योगपतियों को.
भ्रष्टाचार और आतंकवाद से लड़ने का कदम तो इसलिए बताया गया है क्योंकि आम लोगों का समर्थन मिल सके. भ्रष्टाचार तो नए नोटों से फिर से शुरू होगा ही. ये एक साइकिल है, उद्योगपति पैसा देंगे राजनीतिक पार्टियों को जिसका हिसाब सार्वजनिक तो होता नहीं, पार्टियां जीतने के बाद उन्हें फायदे देंगी, उनके व्यापार के लिए कर्ज़े दिलवाएंगी, काला धन बाहर जमा होता रहेगा, उद्योगपति पैसा चुकाएंगे नहीं, यहां बैंकों की हालत खस्ता होती रहेगी. जब कोई विकल्प नज़र नहीं आएगा तो फिर से पाकिस्तान का मुद्दा गर्म हो जाएगा. कोई भी दल अपने चंदे को लेकर साफ़ नहीं है.
जब तक काले धन की पहली सीढ़ी पर ही इसे रोका नहीं जायेगा, तब तक कुछ भी करते रहिये, फायदा कुछ नहीं. जो काम राजनीतिक दलों के हाथ में है, पहले उसे क्यों ना किये जाये, बजाय की जनता को परेशान करने के. बाकी आप अपने आस-पास देख ही रहे होंगे कि लोग किस तरह अपने काले धन को सफ़ेद कर रहे हैं और बड़े-बड़े उद्योगपति इस फैसले पर तालियां बजा रहे हैं. इस देश में योजनाएं हमेशा से बनती आ रही हैं, चाहे आधार कार्ड हो या मनरेगा लेकिन इन योजनाओं के लागू होने पर ही सवाल उठाये जाते हैं और ये देशद्रोह नहीं है. पब्लिक जी, आप सब नहीं जानते हैं.
(सर्वप्रिया सांगवान एनडीटीवी में एडिटोरियल प्रोड्यूसर हैं)
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