जन्मदिन पर जनकवि नागार्जुन को याद करते हुए अगर संकोच होता है तो शायद इसलिए भी कि अगर वह जीवित होते तो शायद इस पर ठठा कर हंस पड़ते। कई अर्थों में वह खड़ी हिंदी के आख़िरी महाकवि रहे। निराला और अज्ञेय के बाद हिंदी कविता की जितनी सारी डिजाइनें नागार्जुन के यहां मिलती हैं वह कहीं और दुर्लभ है। हालांकि नागार्जुन के इस शिल्पगत वैशिष्ट्य की ओर ध्यान खींचने का मकसद बस यह याद दिलाना है कि उनके कविता संसार में हिंदी अपने पूरे वैभव, अपनी पूरी आभा- लोक और शास्त्रीय की सारी परंपराओं को समेटने की अपनी क्षमता और तद्भव-तत्सम, देशज-विदेशज की अपनी साझा शक्ति के साथ अपने महाकाव्यात्मक वितान में बांहें फैलाए मिलती है।
वरना नागार्जुन की महानता अंततः उनकी कविता के उस कथ्य में निहित है जिसे कुछ असावधान दृष्टि की वजह से सिर्फ वामपंथी और राजनीतिक मान लिया जाता है। बेशक वह वामपंथी थे - वामपंथी संगठनों से जुड़े भी रहे लेकिन उनका वामपंथ किन्हीं सांगठनिक दायरों में बंधा नहीं था, वह उनकी अचूक मानवीय पक्षधरता से निकला था जिसके साथ वह कह सकते थे - 'चाहे दक्षिण चाहे वाम, जनता को रोटी से काम।' यह दक्षिण और वाम के बीच चुनाव का मामला नहीं था, बल्कि एक मुद्दे के तौर पर रोटी की अपरिहार्यता की ओर भी इशारा था। इसी तरह वह इस क़दर राजनीतिक कवि थे कि उनकी टक्कर का कोई दूसरा कवि तत्काल याद नहीं आता। उन्होंने राजनीतिक विद्रूप पर बहुत तीखी और धारदार कविताएं लिखीं- 'था पतित मैं नीच मैं। रहा उनके बीच मैं। दूर जाकर गिरा, उड़ा बेबस पतझड़ में, धंस गया आकंठ कीचड़ में। सड़ी लाशें मिलीं, उनके मध्य लेटा रहा आंखें मींच मैं, उठा भी तो झाड़ आया नुक्कड़ों पर स्पीच मैं।'
कविता के भीतर इस राजनीतिक टिप्पणी में नागार्जुन सीधे नाम लेकर हमला करते हैं। शायद यह साठ के दशक का मोहभंग है जो उन्हें नेहरू युग के प्रति बहुत सख़्त बनाता है। 'आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की' जैसी कविता काफी चर्चित रही है। नेहरू के जिस जादू की चर्चा उस दौर में की जाती है, उससे लगभग अप्रभावित नागार्जुन जब उनका शोकगीत लिखते हैं तो वह स्तब्ध करता हुआ सा होता है- 'रह जाते तुम दस साल और। तन जाता भ्रम का जाल और।' वह ताकीद करते हैं 'लाल बहादुर लाल बहादुर, मत बनना तुम गाल बहादुर।' राजनीति में उनका यह प्रत्यक्ष हस्तक्षेप इंदिरा गांधी और बाल ठाकरे तक दिखाई पड़ता है। वह फासीवाद की बिल्कुल खिल्ली उड़ाते हैं - अक्सर यह काम तीखे व्यंग्य के साथ करते हैं लेकिन अंततः यह मानवीय आस्था होती है जो उनकी कविताओं से फूटती है - 'शासन की बंदूक' नामक गज़ल के आखिरी शेर में वह कहते हैं, 'जली ठूंठ पर बैठ कर गई कोयलिया कूक / बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक।'
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लेकिन फिर दोहराना होगा कि नागार्जुन अपनी इस जनपक्षधर राजनीति की वजह से बड़े कवि नहीं हैं। वह भारतीय समग्रता के कवि हैं। उनकी बेहतरीन कविताएं वे हैं जिनमें वह बिल्कुल सहज और मामूली जीवन पर अनोखे ढंग से नज़र डालते हैं। इस मामूलीपन की तलाश में वह नितांत बीहड़ और ऊबड़-खाबड़ इलाक़ों तक चले जाते हैं। वह कटहल पर कविता लिख सकते हैं, मादा सुअर को विषय बना सकते हैं, उसे मादरे हिंद की बेटी घोषित कर सकते हैं और अभिजनों के सामने 'घिन्न तो नहीं आती है' जैसा वेधक सवाल उठा सकते हैं। दंगाग्रस्त शहर में नाम बदल कर रिक्शा चला रहे 'परेम परकाश' और अपनी बेटी द्वारा लटकाई गई चूड़ियों पर ममताशील ट्रक ड्राइवर जैसे किरदार उनके काव्य संसार को ऐसी दीप्ति देते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है। वह ईश्वर को कल्पना का पुत्र कहते हैं और उससे वरदान नहीं अभिशाप मांगते हैं। अपने वर्षागीतों में तो वह अप्रतिम हैं और कभी बारिश की बूंदों के साथ किसानों की तरह नाच सकते हैं तो कभी उदात्त स्वर में गा सकते हैं- अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है।
दरअसल सत्तर और अस्सी के दशकों में नागार्जुन भारतीय कविता की वाममुखी युवा पीढ़ी को एक फक्कड़ बुज़ुर्ग की तरह मिले। विष्णु खरे ने कभी लिखा था कि नागार्जुन हिंदी को बाबा की तरह ही प्राप्त हुए। इस बाबा नागार्जुन ने पूरे हिंदी समाज को अपना परिवार बना लिया था। यह कवि-कीर्ति इतनी बड़ी साबित हुई कि लोग यह भूल जाते हैं कि नागार्जुन उपन्यासकार भी हैं और वरुण के बेटे और बलचनमा जैसे उपन्यास यहां हैं। कविता के भीतर भी उनका दायरा बहुत बड़ा था। वह कभी शमशेर की तरह मुलायम दिखते थे, कभी त्रिलोचन की तरह शास्त्रबद्ध, कभी केदारनाथ अग्रवाल की तरह सहज। वह अपनी तरह के अध्येता थे और यात्री भी और इन दोनों खूबियों से मिलकर उनकी गंवई और खरी चेतना इतनी प्रखर हो उठती थी कि लोगों को उनमें कबीर दिखता था। उनकी कविता की कोई एक कॉपी नहीं थी जिसकी नकल हो सके। शायद यह भी एक वजह है कि अस्सी और नब्बे के दशकों में विकसित हुई हिंदी कविता पर बहुत सारे दूसरे लोगों के प्रभाव दिखते हैं, नागार्जुन का स्पर्श दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन यह सतह की सच्चाई है- ज़्यादा बड़ी हकीकत यह है कि वीरेन डंगवाल के औघड़पन में, मंगलेश डबराल की सहजता में और असद ज़ैदी की तीक्ष्णता में और बहुत सारे दूसरे कवियों की अपनी-अपनी खूबियों में नागार्जुन का रंग फेंटा हुआ मिलता है। वह कहते थे - 'जनता का कवि हूं मैं', और यह रेखा उन्होंने इतनी बड़ी खींची कि बाकी सारी रेखाएं इसके आगे छोटी दिखती हैं।
(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)
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This Article is From Jun 30, 2016
बात पते की : बाबा नागार्जुन जो कहते थे 'जनता का कवि हूं मैं...'
Priyadarshan
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Updated:जून 30, 2016 18:23 pm IST
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Published On जून 30, 2016 15:59 pm IST
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Last Updated On जून 30, 2016 18:23 pm IST
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