प्राइम टाइम इंट्रो : तो क्या सच में भारत-अमरीका का करीब आना ऐतिहासिक है?

प्राइम टाइम इंट्रो : तो क्या सच में भारत-अमरीका का करीब आना ऐतिहासिक है?

भारत और अमरीका के बीच प्रगाढ़ होती दोस्ती से चीन और पाकिस्तान परेशान है ये तो एक बात हुई, लेकिन इस दोस्ती में ऐसा क्या ख़ास है कि हम बिल्कुल परेशान नहीं हैं. भारत और अमरीका अब मानसिक और राजनीतिक रूप से एक-दूसरे के करीब आ चुके हैं. सावधानी बरतने के लिहाज़ से आप कह सकते हैं कि पहले से काफी करीब आ चुके हैं. इतना कि डोनल्ड ट्रंप का समर्थन करने अमरीका और भारत में कुछ लोग बैनर पोस्टर लेकर आ गए. जो भी है भारत और अमरीका अब अपने इस प्रेम का इज़हार पब्लिक में ख़ूब कर रहे हैं.

सोमवार को वाशिंगटन में भारत के रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर और अमरीका के रक्षा मंत्री एस्टन कार्टर ने एक समझौते पर दस्तख़त किए, जिसे LEMOA कहते हैं. Logistics Exchange Memorandum of Agreement. अब अमरीका अपने लड़ाकू विमानों की मरम्मत, ईंधन की आपूर्ति के लिए भारत की मदद ले सकेगा. भारत भी अमरीका से मदद ले सकेगा. इस मौके पर जारी साझा बयान में कहा गया है कि यह समझौता व्यावहारिक आदान-प्रदान के लिए अतिरिक्त अवसरों को उपलब्ध कराएगा. सुनने में तो यह पंक्ति बेहद सरल है मगर बिना डिटेल के आपको इससे कुछ भी पता नहीं लगेगा. रक्षा मंत्री ने कहा कि समझौते के कारण लाजिस्टिक सपोर्ट देने के लिए दोनों में से कोई भी बाध्य नहीं है.

हर केस में दोनों पक्षों को अलग से मंज़ूरी लेनी पड़ेगी. रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा है कि भारत और अमरीका के बीच लॉजिस्टिक को लेकर जो करार हुआ है, उसमें सैनिक अड्डा बनाने का कोई प्रावधान नहीं है. यह उनका बयान है न कि समझौते की कॉपी का डिटेल सार्वजनिक हुआ है. सैनिक अड्डा नहीं बनाएंगे और सैनिक अड्डों का इस्तेमाल किया जा सकेगा दोनों में बहुत अंतर है. दोनों के अपने-अपने खतरे और ख़ूबियां होंगी.

एक्सप्रेस में सुशांत सिंह ने लिखा है कि रक्षा मंत्री ने एक अमरीकी पत्रकार को कहा है कि पहले वे इस समझौते की डिटेल सार्वजनिक करेंगे और देखेंगे कि लोगों की प्रतिक्रिया क्या है. दशकों से हम अमरीका के पार्टनर है हीं. करीब आ ही चुके हैं. लेकिन इन समझौतों के ज़रिए पार्टनर होने का क्या मतलब है. बस ये गूगल करते रहें कि अमरीका का पार्टनर बनकर दुनिया में कौन सा ऐसा मुल्क है जो अपने इलाके में सुपर पावर हुआ है. ज़माने तक पाकिस्तान को अमरीका का करीबी बताया जाता रहा है, इस क्रम में और भी देशों के नाम लिए जा सकते हैं. क्या चीन भी अमरीका का पार्टनर बनकर शक्तिशाली बना है. बहरहाल भारत, अमरीका के साथ चार बुनियादी समझौते करने वाला है. ये चारों समझौते दोनों मुल्कों की सैन्य क्षेत्र में रिश्तेदारी को मुकम्मल कर देंगे. इन चार में से एक है LEMOA. भारत ने चार में से दो पर दस्तख़त कर दिए हैं.

  • पहला है, जनरल सेक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इंफोर्मेशन अग्रीमेंट (GSOMIA), 2002 में भारत ने इस पर दस्तख़त कर दिया था.
  • दूसरा है लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम अग्रीमेंट LEMOA
  • तीसरा है कम्युनिकेशंस एंड इंफोर्मेशन सिक्योरिटी मेमोरेंडम ऑफ अग्रीमेंट (CISMOA)
  • चौथा है बेसिक एक्सचेंज एंड कोअपरेशन अग्रीमेंट (BECA)

रिसर्च के दौरान पढ़ने को मिला कि 2002 में पहले समझौते पर दस्तखत करने के बाद वाजपेयी सरकार और मनमोहन सरकार दूसरे, तीसरे और चौथे समझौते पर दस्तखत करने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थी. आशंका थी कि भारत अमरीका की बांहों में न चला जाए. सोमवार को वाशिंगटन से जारी साझा बयान में कहा गया है कि दोनों देशों ने भारत को प्रमुख रक्षा सहयोगी की पदवी देने पर भी चर्चा की, जिसका ऐलान इसी जून में प्रधानमंत्री मोदी की अमरीका यात्रा के दौरान हुआ था.

भारत के रक्षा मंत्री का यह दौरा बताता है कि दोनों पक्ष कई क्षेत्रों में रक्षा संबंधों को कितनी अहमियत देते हैं. रणनीतिक साझेदारी और क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने के अलावा एक-दूसरे के सैनिकों के आदान प्रदान, रक्षा तकनीक और खोज में भी सहयोग बढ़ाना चाहते हैं. इस समझौते के बाद अमरीका, भारत को रक्षा तकनीक और व्यापार में भारत के दर्जे को ऊंचा करने के लिए तैयार हो गया है. वो अब उन चीज़ों को साझा करेगा जो अभी तक सिर्फ अपने करीबी साझेदारों और हिस्सेदारों से करता आया है.

अमरीका के कारण भारत हाल ही में Missile Technology Control Regime (MTCR) का सदस्य हुआ है, जिसकी भारत के रक्षा विशेषज्ञों ने ख़ूब तारीफ की थी. साझा बयान में बताया गया है कि नौ सेना, वायु सेना, खुफिया सिस्टम के क्षेत्र में दोनों के बीच कई तरह के करार हुए हैं. अमरीका भारत की नौ सैनिक क्षमताओं को बढ़ाने में भी मदद करेगा. नौ सैनिक और सैनिक अभ्यास तो दोनों मुल्कों के बीच होते ही रहते हैं. सैनिक सेवाओं के मामले में आपसी समझ और बढ़ाने पर भी बात हुई है.

सोमवार को हुए समझौते के बाद कहा जा रहा है कि भारत और अमरीका के आपसी रिश्ते में काफी बड़ा बदलाव आ चुका है. यह बदलाव 90 के दशक से आ रहा था मगर आर्थिक नीतियों के क्षेत्र में, लेकिन हाल फिलहाल में यह दोस्ती रक्षा कारोबार और साझेदारी की तरफ भी मुड़ी है. इतनी तेज़ी से ये बदलाव आया है कि वाजयेपी और मनमोहन के पंद्रह-सोलह साल में जो न हो सका वो दो-तीन महीने में हो गया. हमने इस समझौते के बारे में मीडिया में उपलब्ध सामग्री का ही अध्ययन किया है. मनमोहन सिंह ने भी न्यूक्लियर डील के समय अपनी सरकार दांव पर लगा दी थी, उस डील का नतीजा आज तक आना बाकी है.

दो साल के भीतर मोदी सरकार ने आत्मविश्वास के साथ अमरीका की तरफ हाथ बढ़ाया है. पर ऐसा नहीं लगता कि आशंकाओं को एकदम से दरकिनार कर दिया है. एक्सप्रेस में सुशांत सिंह ने लिखा है कि इसी कारण रक्षा मंत्री पर्रिकर ने लिमोआ में काफी कुछ संशोधन करवाया, जबकि इसका एक तय ड्राफ्ट होता है जिस पर अमरीका ने कई देशों के साथ 100 से अधिक ऐसे समझौते किए हैं. इस करार से बड़ी बाज़ी अमरीका ने मारी है या दोनों के बीच बराबर का करार हुआ है.

दिल्ली में अमरीका के विदेश मंत्री जॉन कैरी हैं. उन्होंने मंगलवार की शाम कहा कि इतिहास में दोनों देश एक-दूसरे के इतने करीब कभी नहीं रहे. कैरी ने कहा कि इसमें कोई शक़ नहीं कि हक्कानी नेटवर्क और लश्कर-ए-तैयबा पाकिस्तान से ही काम करते हैं. लेकिन साथ ही उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ और वहां के सेनाप्रमुख राहिल शरीफ़ से हुई बातचीत का हवाला देते हुए कहा कि पाकिस्तान ने आतंकियों पर कार्रवाई का भरोसा दिया है, जिसमें थोड़ा वक़्त लगता है. एक तरह से कैरी ने पाकिस्तानी सरकार का बचाव कर दिया. अमरीका में भारत के रक्षा मंत्री हैं. दिल्ली में भी भारत और अमरीका के बीच दो दिनों में काफी गतिविधियां हुई हैं. वक्त की ज़रूरत के हिसाब से कूटनीतिक और रणनीतिक संबंध बदलते हैं. क्या हम वक्त के उसी मुहाने पर खड़े होकर यह नज़ारा देख रहे हैं या किसी आने वाले नतीजों से अनजान स्वागत करने में लगे हैं.

यह भी नहीं होना चाहिए कि हम इसकी ख़ुश्बू से अनजान रह जाएं लेकिन खुशफ़हमी में ही पूरी शाम गुज़र जाए, यह भी ठीक नहीं है. दूसरी तरफ इसे लेकर चीन और पाकिस्तान क्यों परेशान हैं. पाकिस्तान की मीडिया में क्यों कहा जा रहा है कि पाकिस्तान को चीन के साथ ऐसा करार कर लेना चाहिए. चीन की मीडिया में क्यों कहा जा रहा है कि भारत अमरीकी करार से पाकिस्तान और चीन चिढ़ सकते हैं. इस तर्क से भारत कोई कदम ही न बढ़ाए क्या यह उचित होगा. भारत अमरीका के ऊपर लिखने वाले दो चार नियमित जानकारों को पढ़ते हुए लगा कि वे इस समझौते से काफी प्रभावित हैं. एम.के. भद्राकुमार हैं जो पूर्व राजनियक हैं उन्होंने अपने लेख में कुछ सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा है कि
  • भारत ने कभी किसी विदेशी शक्ति को अपने सैनिक अड्डों का इस्तमाल करने नहीं दिया है.
  • किसी गुट का हिस्सा होने से बचने के लिए और रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखी.
  • देखना होगा कि भारत अमरीकी सुविधाओं का इस्तमाल ज़्यादा करेगा या अमरीका भारत की सुविधाओं का.

सीमित रिसर्च के दौरान पता चला कि अमरीका का भारत के आसपास के इलाके में तमाम अड्डे हैं. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मध्य एशिया, ईरान हर जगह हैं. सिंगापुर, फिलिपिंस, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और जापान में भी उसके अड्डे हैं. खाड़ी के देशों में तमाम अड्डे बने हैं, जहां उसके सैंकड़ों लड़ाकू विमान, विमानवाहक पोत, हज़ारों सैनिक तैनात हैं. फिर भी उसे भारतीय सुविधाओं के इस्तमाल करने की बेचैनी क्यों है. उसके लिए ये ऐतिहासिक क्यों हैं. क्या इसलिए कि भारत करीब आया है या इसलिए ऐतिहासिक है कि आस पास अब हर जगह ठिकाना हो गया था मगर भारत ही रह गया था. यह ज़रूर है कि लिमोआ के बाद से
  • भारत वायुसेना और नौ सेना के लिए अमरीका से अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी ख़रीद सकेगा.
  • एफ-16 बनाने वाली कंपनी अब यह विमान भारत में भी बना सकती है.
  • लेकिन पढ़ने को मिला कि यह कंपनी टर्की के अंकारा में भी बनाती है.
  • यह भी मिला कि एफ-16 अब पुराना हो गया है, इसलिए उसे अमरीका से हटाया जा रहा है.
  • एफ-16 बनाने वाली कंपनी लौकहीड मार्टिन कोर एफ-35 बना रही है.

एम.के. भद्राकुमार ने लिखा है कि प्रधानमंत्री मोदी एफ-16 क्यों स्वीकार करेंगे, अगर एफ-35 अत्याधुनिक लड़ाकू विमान मार्केट में आ गया है तो. उनका यह भी सवाल है कि क्या हम अमरीका के भरोसे चीन की बराबरी का सपना देख रहे हैं. कहीं इससे पाकिस्तान और चीन एक दूसरे के और करीब न आ जाएं. भद्राकुमार की आशंका को जगह इसलिए दी क्योंकि आपको बताया ही कि ज्यादातर लोग इसकी तारीफ कर रहे हैं. अगर भारत और अमरीका का इतना क़रीब आना ऐतिहासिक है तो हम भी इस इतिहास को आज क़रीब से देखेंगे.

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