विज्ञापन
Story ProgressBack
This Article is From Feb 15, 2022

हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया, पर याद आता है... 

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    February 15, 2022 22:46 IST
    • Published On February 15, 2022 22:46 IST
    • Last Updated On February 15, 2022 22:46 IST

वह कौन सी चीज़ है जिसकी बदौलत मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) अपने इंतकाल के डेढ़ सौ बरस बाद भी मौत को जैसे चकमा देते हमारे-आपके बीच घूम रहे हैं? वे जैसे हर मौक़े पर हाज़िर हो जाते हैं. आप खुश हों, उदास हो, मायूस हों, किसी से जलते हों, किसी पर मरते हों, जश्न मना रहे हों, मातम मना रहे हों, बीमार हों, मिज़ाजपुर्सी के लिए जा रहे हों, जमाने के हालात पर रो रहे हों, शाह का मज़ाक बना रहे हों- ग़ालिब आपको कहीं भी मिल सकते हैं. वे जैसे पूरी ज़िंदगी और ज़माने का आईना हैं.  लेकिन ग़ालिब ही नहीं, मीर, सौदा, जौक, दाग़ सब बचे हुए हैं. जिस बहादुर शाह ज़फ़र को अंग्रेज़ों ने रंगून भेज कर चैन की सांस लेनी चाही, वे ज़फ़र भी बचे हुए हैं और उनको कू ए यार में दो गज़ ज़मीन की दरकार भी नहीं रही है, जबकि अंग्रेज अब सात समंदर पार लौट चुके हैं. वली दकनी की मज़ार जिन्होंने तोड़ कर सोचा कि वे इस पूरी परंपरा को नेस्तनाबूद कर देंगे, उन्हें नहीं मालूम कि वली अब भी गाए और सुने जा रहे हैं. 

कह सकते हैं कि यह शायरी की भी ताक़त है और उस तहज़ीब की भी जो एक तरह के खुलेपन से निकली थी. यह इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि इन तमाम शायरों में सबके सब तरक़्क़ी पसंद थे, कठमुल्लेपन के ख़िलाफ़ थे, निजी आज़ादी को अहमियत देते थे, नएपन से घबराते नहीं थे और आने वाले दौर पर भरोसा करते थे. और ये सब ऐसे दौर में हुए जो राजनीतिक-सामाजिक तौर पर करवटें बदल रहा था. मुगलिया शासन की स्थिरता ख़त्म हो रही थी और अंग्रेज़ी हुकूमत पांव पसार रही थी. इसी समय ऐसे दौर भी आए जब दिल्ली पर लगातार हमले हुए. दिल्ली उजड़ गई, बेनूर हुई, बूचड़ख़ाने में बदल डाली गई. अठारवीं सदी में नादिरशाह ने दिल्ली को जिस तरह रौंदा, उसकी कहानियां अब भी सुनी-सुनाई जाती हैं.

इस तबाही को मशहूर शायर मीर तक़ी मीर ने देखा था. तब वे महज 16 साल के थे. उन्होंने लिखा था- 'दिल्ली जो इक शहर था आलम में इंतिख़ाब / हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के.' लेकिन ये इब्तिदा थी. इंतिहा कह सकते हैं कि 1857 में आई जब अंग्रेज़ों ने आज़ादी की पहली लड़ाई को बगावत का नाम देकर कुचलते हुए हिंदुस्तान के चौराहों-चौपालों और वृक्षों को लाशों से पाट दिया था. मुगलिया सल्तनत के ताबूत पर यह आख़िरी कील थी, जब बादशाह रंगून भेज दिए गए और शायर का दर्द उभरा- ‘कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए / दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू ए यार में.' जाहिर है, अपने ज़माने का दर्द लेकर शायरी बची रही, तहज़ीब बची रही.  

लेकिन इस शायरी में इतनी ताक़त कहां से आई. ये शायरी और तहज़ीब क्या किसी शून्य से पैदा हुई थी? क्या वह रातों-रात हुए किसी बिग बैंग का नतीजा थी? इस सवाल का जवाब खोजेंगे तो हमें उर्दू शायरी के दायरे से बाहर उस हिंदुस्तानी अतीत और एक हद तक एशियाई समाजों की एकता में भी जाना होगा जो कई सदियों से इसकी पृष्ठभूमि बना रही थी. हमें साहित्य के दायरे से बाहर जाकर संगीत को भी देखना होगा. हम पाते हैं कि ये सारा सिलसिला जैसे अमीर ख़ुसरो से शुरू होता है और क़बीर, तुलसी, रसख़ान, रहीम, मीरा, तुकाराम, विद्यापति से होता हुआ मीर और ग़ालिब तक ही नहीं, बाबा फ़रीद और बुल्ले शाह तक आता है. यह एक विराट सांस्कृतिक हिंदुस्तान है जो साहित्य और संगीत की साझा ज़मीन पर सांस ले रहा है. इसमें फिर ललद्य, अक्का महादेवी से लेकर कुछ पहले की राबिया और कुछ बाद के रूमी की स्मृति भी शामिल हो जाती है. यह फ़ारस और तुर्की के किनारों तक से जुडती-मिलती, लेती-देती है.

यह अनायास नहीं है कि भारत और पाकिस्तान के जो गायक अमीर ख़ुसरो को गाते हैं, वे कबीर और मीरा को भी गाते हैं, तुलसी और सूर को भी गाते हैं और बुल्ले शाह और बाबा फ़रीद को भी गाते हैं. राजनीतिक उठापटक की अपनी हलचलों के बीच सांस्कृतिक जीवन की ये हवा अपने ढंग से बदस्तूर बहती चली जाती है. हिंदी आलोचना इसके एक हिस्से को भक्ति आंदोलन की तरह पहचानती है. लेकिन कभी नामवर सिंह ने कहा था कि आंदोलन दस-बीस साल चलते हैं, सदियों तक नहीं चलते. जो सदियों तक चलती है, वह समाज की एक धारा होती है. तो यह मध्ययुग की एक विराट धारा है जो अठारहवीं-उन्नीसवीं सदियों का हिंदुस्तान बनाती है और उसके नायाब शायरों को एक मुकाम देती है.  

निस्संदेह इस दौर के सबसे बड़े शायर ग़ालिब हैं. लेकिन वे दूसरों से बड़े क्यों हैं? सच तो यह है कि मीर के पास बयान की जो बारीकी है, जो देशज धज है, ग़ालिब में कई बार वह कुछ कम दिखती है. कुछ हल्के और बेढब ढंग से सोचें तो ग़ालिब और मीर के बीच की तुलना कुछ वैसी ही है जैसी गायकी में लता मंगेशकर और आशा भोंसले के बीच की तुलना.  ग़ालिब और मीर दोनों मजहबी बगावत वाला मिज़ाज रखते हैं. मीर अर्ज़ करते हैं कि तोड़ना है तो काबा तोड़ दो, दिल न तोड़ो, क्योंकि काबा तो फिर बन जाएगा, दिल फिर नहीं बन पाएगा. वे अपने ख़ास अंदाज़ में कहते हैं- 'मीर के दीनो मज़हब को पूछते क्या हो उनने तो / कश्का खैंचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया.' 

ग़ालिब तो जैसे बगावत का मूर्तिमान रूप हैं. वे बिल्कुल 'निहिलिस्ट' हैं- सर्वखंडनवादी. वे सब कुछ भी खिल्ली उड़ाने पर आमादा हैं- अपनी भी, ज़माने की भी, मंदिर-मस्जिद की भी, यहां तक कि ख़ुदा की भी. उनमें जैसे कबीर की अट्टहासी मुद्रा चली आती है, कहीं-कहीं सूर और तुलसी का सौंदर्य बोध भी आ जाता है. 

लेकिन एक और चीज़ है जो ग़ालिब के यहां दूसरों के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा मिलती है- वह है विडंबना बोध. मीर बहुत कुछ दर्द से बने हुए हैं- 'मुझको शायर न कहो मीर कि साहिब मैंने, दर्दो ग़म इतने किए जमआ कि दीवान किया'. वे इश्क की विडंबना को भी बहुत बारीक लहजे में पकड़ते हैं- 'इश्क़ मीर इक भारी पत्थर है / कब तुझ नातवां से उठता है.' 

मगर ग़ालिब तो जैसे सरापा विडंबना से लैस है. उनकी अपनी ज़िंदगी बहुत सारी विडंबनाओं की शिकार रही, लेकिन उन्होंने ज़माने की भी ढेर सारी विडंबनाएं देखीं. ये जो अनुभव संपदा थी उसी ने उनके लिए दुनिया को 'बाजीचाए अत्फ़ाल' बनाया. इसी वजह से वे कह सके कि 'ईमां मुझे रोके है खैंचे है मुझे कुफ़्र / काबा मेरे पीछे है कलीसां मेरे आगे.' एक ही सांस में वे ये भी कह जाते हैं- आशिक हूं मैं प माशूक फ़रेबी है मेरा काम / मजनूं को बुरा कहती है लैला मेरे आगे.' उनका गुरूर देखिए- ‘इक चीज है औरंगे सुलेमां मेरे नज़दीक / इक खेल है एजाज़े मसीहा मेरे आगे.'

ये एक ग़ज़ल का मामला नहीं है, गालिब के पूरे सुखन का अंदाज़ है. वे दर्द का भी बयान करते हैं तो हंसते-हंसते, वीरानी की बात भी करते हैं तो कुछ अंदाज़ में कि उनमें कहीं आत्मदया नहीं दिखती- 'दर्द से यों पुर हूं ज्यो राग से बाजा / इक ज़रा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है.' या फिर 'उग रहा है सब्ज़ा दरो-दीवार के आगे / हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है.' 

यह वह चीज़ है जो मिर्ज़ा असदुल्ला खां ग़ालिब को दूसरों से अलग कर देती है. उनमें एक तरह की आधुनिकता दिखती है. वे एक से ज़्यादा मायनों की गुंजाइश हमेशा पैदा करते हैं. वे जैसे सरहदों और समय के पार चले जाते हैं. यहां जिन अशआर का ज़िक्र है, वे अमूमन बेहद लोकप्रिय और अपने अर्थों में आसान हैं. लेकिन उनके यहां बहुत सारे शेर ऐसे मिलते हैं जिनकी व्याख्या ठीक से समझनी पड़ती है- वह मोती पाने के लिए समंदर में उतरना पड़ता है. वे सात आसमानों के पार चले जाते हैं. उन जैसा बेफ़िक्र शायर ही ये सुझाव दे सकता है कि 'क्यों न फ़िरदौस को दोजख़ में मिला लें या रब / सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही.' 

यह अनायास नहीं है कि पूंजी के कसते शिकंजे के बीच आधुनिकता नाम का जो दोजख हम बना रहे हैं, उसमें ग़ालिब किसी फ़रिश्ते की तरह किसी फ़िरदौस से आते हैं और एक मरहम, एक फ़ाहा हमारी ज़ख़्मी रूहों पर लगा जाते हैं. वे एक पीछे छूट रहे हिंदुस्तान की ख़ुशबू हैं जिन्हें बचाए रखना ज़रूरी है.  

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
डार्क मोड/लाइट मोड पर जाएं
Our Offerings: NDTV
  • मध्य प्रदेश
  • राजस्थान
  • इंडिया
  • मराठी
  • 24X7
Choose Your Destination
Previous Article
सोशल मीडिया पर ज़्यादा लाइक बटोरने के जुनून के पीछे क्या है?
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया, पर याद आता है... 
राम आएंगे....'त्रेतायुग' की अयोध्या 'कलयुग' में मेरी नजर से
Next Article
राम आएंगे....'त्रेतायुग' की अयोध्या 'कलयुग' में मेरी नजर से
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com
;