भाषा मात्र सम्प्रेषण का माध्यम नहीं है, यह अनुभव, स्मृति और ज्ञान का भी कोष है. भारत में भाषा को लेकर बड़ा विवाद है. “राष्ट्रीय भाषा” को तय करने को लेकर भी एक भय है कि यह क्षेत्रीय भाषाओं के अस्तित्व को मिटा सकती है. यह भय स्वाभाविक है. हिंदी या अंग्रेजी में से कौन को लेकर देश की जनता भी द्वन्द में है. भारत निश्चय ही तमिल, तेलुगु, मराठी, भोजपुरी, मैथिली, बंगाली, कश्मीरी, मलयाली, कन्नड़ आदि सभी भाषाओं के अनुभवों और स्मृतियों का नाम है. इसमें से किसी एक भी भाषा का क्षय भारत के एक अहम अंग का क्षय है. अगर हिंदी और अंग्रेजी को देखें तो भारत की अनगिनत क्षेत्रीय भाषाएं हिंदी और अंग्रेजी से अधिक मौलिक और पुरानी भी है. हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाई-जीवन के यौवनकाल में हैं. ऐसे में भारत को जोड़ने वाली भाषा के रूप में किस एक भाषा का चयन किया जाए यह विवादों का बड़ा विषय बन चुका है.
एक क्षेत्रीय भाषा अन्य क्षेत्र के लोगों के अनुभवों और स्मृतियों से पूर्णतः मेल नहीं बिठा सकती- यह स्वाभाविक है. ऐसी स्थिति में अगर कोई एक भाषा भारतीय तरीके से भारतीय अनुभवों, स्मृतियों और ज्ञान को एक मंच पर ला सकती है तो वह निश्चय ही संस्कृत है. संस्कृत मात्र भाषा ही नहीं, यह भारतीय विविधता के मध्य एक समाधान का भी नाम है, किन्तु इस पर कभी कभार ही राजसत्ता या समाजसत्ता का ध्यान जा पाता है. सबसे दुखद तो यह है कि इसे भारत की सामाजिक समस्याओं की एक जननी की तरह भी कतिपय लोगों और समुदायों द्वारा प्रचारित किया गया. एक बड़े वैचारिक समूहों ने इसे कूपमंडूकता और एक प्रतिगामी भाषा के रूप में भी सिद्ध करने का निरंतर प्रयास किया, यद्धपि संस्कृत के अवदानों के प्रति संसार के बड़े-बड़े लेखकों, दार्शनिकों और विचारकों ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की है. सभी भाषाएं अपने बोलने वाले मानव समूह के सपने, संघर्षों, सफलताओं और विफलताओं का भी अभिलेख होती है.
भाषा विवाद में एक बड़ी कठिनाई इसे समझे-बोले जाने को लेकर है. मराठी का कहना है कि हम हिंदी नहीं समझ सकते, बंगाली का कहना है हम भोजपुरी नहीं बोल सकते, तामिल का आग्रह है हम पंजाबी नहीं बोल सकते- और इन सभी के कहने में बड़ी सच्चाई है. इस कठिनाई के सन्दर्भ में देखें तो संस्कृत किसी न किसी मात्रा में एक दूसरे को जोड़ने में सक्षम है और इस अर्थ में देखें तो यह भारत के सभी क्षेत्रों में आंशिक तौर पर ही सही परन्तु समझी जाती है या थोड़े प्रयासों से समझी जा सकती है. दक्षिण भारत की एक स्मृति है- जब हम वहां एक भारतीय पारंपरिक नृत्य देख रहे थे, तो हमारे साथ बैठा एक “अम्बेडकरवादी” मित्र जो तेलुगु था उसने उस नृत्य में बजने वाले गीत का अर्थ बताया तो हम चौंक गए. उसने बताया कि इसमें नदियों की स्तुति की जा रही है. हमने उससे पूछा कि तुम्हें कैसे पता चला? उसने बताया कि वह गायन संस्कृत में था और ये सारे शब्द तेलुगु में भी हैं इसलिए वह समझ सका.
इसी तरह का एक दूसरा अनुभव था. हमने एक अन्य मित्र को रामानंद सागर की रामायण को देखते देखा. हमने उससे बोला कि तुम हिंदी सिनेमा तो नहीं देखते, क्योंकि तुम्हें हिंदी नहीं आती तो फिर रामानंद सागर की रामायण कैसे समझ लेते? उसने फिर से उपरोक्त मित्र की तरह ही उत्तर दिया कि हिंदी सिनेमा के शब्द मेरे समझ में नहीं आते. इसका अर्थ स्पष्ट था कि संस्कृत शब्दों के प्रयोग से उत्तर और दक्षिण के खाई को पाटा जा सकता है.
निश्चय ही संस्कृत दक्षिण और उत्तर के भाषाई खाई के बीच एक पुल की तरह कार्य कर सकती है. सबसे पुराने लिखित साहित्य के साथ यह भारत को जितने मजबूती से संयुक्त कर सकती है, वह सामर्थ्य अन्य भाषाएं जैसे हिंदी और अंग्रेजी में तो नहीं ही है. अंग्रेजी तो सौ फीसदी भारतीय अनुभवों और स्मृतियों से बेमेल है, दुर्भाग्य से हिंदी भी इससे पूर्णतः मुक्त नहीं है. इसमें वैसे शब्दों ने अपनी पैठ बना ली है, जो भारतीय थे ही नहीं. और उससे भी दुखद तो यह है कि इन शब्दों के सहज विकल्प हिंदी में थे, किन्तु उसे असहज और कठिन कहकर त्याग दिया गया. उदाहरण के लिए, दिल, जिन्दगी, ईमानदारी, शहीद, जैसे सैकड़ों शब्दों ने भारतीय चेतना में अपना स्थान (विशेषकर उत्तर भारत में) हृदय, जीवन, कर्तव्यनिष्ठा, वीरगति आदि भारतीय शब्दों को अव्यवहारिक और हास्यपूर्ण घोषित करके बनाया है.
हम भारत के कुछ भाषाओं में शब्दों के अनुपात पर विचार करें तो पाते हैं कि मलयालम और बंगाली में संस्कृत के लगभग नब्बे प्रतिशत तक शब्द प्रयुक्त होते हैं. तामिल अपने सबसे शुद्ध रूप में भी बयालीस प्रतिशत तक संस्कृत के शब्दों के बिना नहीं बोली जा सकती. इसी तरह से तेलुगु, कन्नड़ जैसे दक्षिण भारतीय भाषाएं भी बड़ी संख्या में संस्कृत शब्दों से सुसज्जित है; जैसे तेलुगु में पहाड़ के स्थान पर गिरी शब्द बोला जाता है. अगर भारत की अन्य भाषाओं को भी देखें तो कश्मीरी, उर्दू, हिंदी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, आदि सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत के शब्दों को साझा करते हैं.
इसके उपरांत भी एक बड़े बौद्धिक वर्ग का कहना है कि इसे भारत को जोड़ने वाली भाषा या राष्ट्रीय भाषा नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि इसकी समझ रखने वाले लोग भारत में बहुत कम हैं. यह तर्क निराधार हैं, क्योंकि यह बात अंग्रेजी पर अधिक लागू होती है, इसके बाद भी इसकी अनिवार्यता को अस्वीकृत नहीं किया जाता. किसी भी भाषा का अस्तित्व उसके अन्तर्निहित गुण-दोषों से तय नहीं होता, यह सत्ता की नीतियों से मिट सकती है या फिर सैकड़ों वर्ष बाद भी पुनर्जीवित हो सकती है. सात दशक बाद भी भारत आंशिक रूप से ही अंग्रेजी सीख पाया है, लेकिन सात दशक में पूरे भारत में संस्कृत को सहजता से व्यवहार में लाया जा सकता है.
अंतिम रूप से जो हम कहना चाहते हैं कि चूंकि मातृभाषा के बिना चिंतन विकसित नहीं हो सकता, अतएव क्षेत्रीय भाषाओं को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया जाए, साथ ही अंग्रेजी संसार को जानने-समझने की एक भाषा है तो उसे भी अस्वीकृत नहीं जा सकता, लेकिन त्रिस्तरीय भाषा प्रारूप के बीच यदि संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा का स्थान प्रदान किया जाता है तो उससे आपत्ति न तो उत्तर भारत के किसी राज्य को हो सकती है और न दक्षिण भारत के राज्यों को. संस्कृत एक प्राचीन परन्तु मजबूत सेतु है.
(केयूर पाठक हैदराबाद के सीएसडी से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए हैं. इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.