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This Article is From Feb 02, 2017

मातृत्व लाभ बनाम मातृत्व हक–एक बेहद अधूरी शुरुआत

Sachin Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 02, 2017 19:20 pm IST
    • Published On फ़रवरी 02, 2017 19:18 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 02, 2017 19:20 pm IST
31 दिसंबर 2016 को प्रधानमंत्री का राष्‍ट्र के नाम संबोधन हुआ. इसमें कहा गया कि ''गर्भवती महिलाओं के लिए भी एक देशव्यापी योजना शुरू की जा रही है. अब देश के सभी 650 से ज्यादा जिलों में सरकार गर्भवती महिलाओं को अस्पताल में पंजीकरण और डिलीवरी, टीकाकरण एवं पौष्टिक आहार के लिए 6 हज़ार रूपये की आर्थिक मदद करेगी. ये राशि गर्भवती महिलाओं के अकाउंट में ट्रांसफर कर दी जायेगी. देश में मातृ मृत्यु दर को कम करने में इस योजना से बड़ी सहायता मिलेगी. वर्तमान में ये योजना 4000 रूपये की आर्थिक मदद के साथ देश के केवल 53 जिलों में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में चलाई जा रही थी.'' (उन्होंने यह जिक्र नहीं किया कि यह योजना वर्ष 2013 में बनाए गए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून का हिस्सा है.)

इसके बाद 1 फ़रवरी 2017 को भारत के वित्त मंत्री ने आम बजट पेश करते हुए कहा कि ''माननीय प्रधानमंत्री द्वारा 31 दिसंबर 2016 को गर्भवती महिलाओं को वित्तीय सहायता की राष्ट्रव्यापी स्कीम की घोषणा पहले ही की जा चुकी है. इस स्कीम के अंतर्गत उस गर्भवती महिला के बैंक खाते में सीधे 6000 रूपये अंतरित कर दिए जायेंगे, जो किसी चिकित्सा संस्था में बच्चे को जन्म देंगी और अपने बच्चे का टीकाकरण करवाएंगी.''

इसके लिए वास्तविक जरूरत 16.44 हज़ार करोड़ रूपये की थी, पर अपने बजट में वित्त मंत्री ने इस कार्यक्रम के लिए 2700 करोड़ रूपये का आवंटन किया है. पिछले वर्ष इसके लिए 634 करोड़ रूपये के बजट का प्रावधान था. आज देश में लैगिक भेदभाव के खिलाफ़ जिस तरह की प्रतिबद्ध नीतियों की जरूरत है, मौजूदा नज़रिए और बजट आवंटन दोनों, उसके पक्ष में नज़र नहीं आते हैं.

योजना का आर्थिक पक्ष और बहिष्कार
प्रधानमंत्री के 31 दिसंबरी संबोधन के बाद महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा यह बताया गया कि ''मातृत्व लाभ कार्यक्रम'' का अखिल भारतीय विस्तार किया जा रहा है. अच्छा होगा कि हम शुरुआत में ही अपना दृष्टिकोण सुधार लें और इसे ''कानूनी मातृत्व हक कार्यक्रम'' के रूप में स्वीकार करें. हम अनजाने में ही महिलाओं को एक बार फिर ''ग्राहता हितग्राही'' के रूप में पेश कर रहे हैं. यह गलत नजरिया है. हम हकों को जैसे ही ''लाभ'' के रूप में पेश करते हैं, तभी ''हकधारिता का अहसास'' क़त्ल हो जाता है.

यहीं से सरकारों को कार्यक्रम को लक्षित बनाने का अधिकार भी मिल जाता है. वे शर्तें लगाकर ''हक धारकों'' की संख्या को कम करते हैं. यहां भी ऐसी ही शुरुआत हो चुकी है. यदि सचमुच में सभी महिलाओं को यह हक दिया जाए, तो सरकार को एक साल में 16.44 हज़ार करोड़ रूपये का आवंटन करना चाहिए, परन्तु भारत सरकार ने वर्ष 2016-17 (तीन माह) और वर्ष 2017-18 से 2019-20 तक के लिए कुल जमा 12661 करोड़ रूपये खर्च करने की बात कही है.

भारत सरकार इसमें से 7932 करोड़ रूपये खर्च करेगी. शेष राज्य सरकारों को खर्चना होगा. इसका मतलब है कि सरकार ने वास्तविक जरूरत का 25.67 प्रतिशत आवंटन किया है. यह तय है कि भांति-भांति की शर्तें लगा कर और कमज़ोर क्रियान्वयन करके लगभग 2.2 करोड़ महिलाओं को हकों से वंचित किया जाएगा. सरकार ने माना है कि वह 51.70 लाख महिलाओं को इस योजना में लाभ देगी. शेष 74.33 प्रतिशत महिलाओं का क्या होगा? इसका जवाब सरकारों से लेना होगा. इसका असर केवल महिलाओं पर ही नहीं, बल्कि छोटे बच्चों पर बहुत गहरा पड़ेगा.

सरकारी को अपनी बात और जिम्मेदारी पर टिकना चाहिए, पर टिकती नहीं हैं. वर्ष 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून आने के बाद 13 नवंबर 2013 को केंद्र सरकार ने कहा था कि इस योजना को पूरे देश में लागू किया जा रहा है, जिसमें राज्य का योगदान 25 प्रतिशत और केंद्र का 75 प्रतिशत होगा. फिर 3 फ़रवरी 2014 को कहा गया कि यह 100 प्रतिशत केंद्र सरकार सहायता की योजना होगी. अब कहा जा रहा है कि इसमें केंद्र का हिस्सा 60 प्रतिशत और राज्य का 40 प्रतिशत होगा. वास्तव में केवल मैदानी क्रियान्वयन ही राज्य सरकार की जिम्मेदारी होना चाहिए, बाकी हक का पूरा हिस्सा केंद्र सरकार से आना चाहिए.

शर्तों का जाल:  
• संस्थागत प्रसव होने पर मातृत्व लाभ
• 19 साल की उम्र होने वाले प्रसव पर ही लाभ
• दो बच्चों तक ही योजना का लाभ
• आधार पहचान होने पर ही लाभ
• बच्चों के टीकाकरण पर ही लाभ
जो भी शर्तें लागू किये जाने के संकेत दिए गए हैं, उनमें से ज्यादातर शर्तों को पूरा करना ''राज्य'' की जिम्मेदारी है. मसलन संस्थागत प्रसव की सम्मानजनक-गुणवत्तापूर्ण व्यवस्था, सभी बच्चों का टीकाकरण, बच्चों का जीवन सुरक्षित करने के लिए स्वास्थ्य-पोषण और देखरेख की व्यवस्था देना आदि. इनके लिए महिलाओं के हक क्यों सीमित किये जाने चाहिए?

प्रधानमंत्री जी ने इस संबोधन में ''गर्भवती महिलाओं'' का ही संदर्भ लिया, जबकि मातृत्व हक के दायरे में धात्री महिलायें, यानी जो महिलायें शिशुओं को स्तनपान करवाती हैं, भी आती हैं. ऐसा लगता है कि राष्ट्र के सबसे ऊंचे स्तर पर अब भी समाज के लैंगिक पहलुओं के बारे में बुनियादी समझ भी स्थापित नहीं हुई है. लैंगिक असमानता के नज़रिये से यह योजना केवल मातृ मृत्यु दर में ही कमी नहीं लाएगी, बल्कि बच्चों की प्रारंभिक देखरेख और जरूरी विकास के लक्ष्य को हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी.

इन घोषणाओं में कुछ गंभीर गड़बडि़यां हैं. मसलन मातृत्व सहायता के साथ ऐसी शर्तों का जोड़ा जाना, जो महिलाओं के हकों और उनकी जीवन के खिलाफ़ साबित होंगी. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून-2013 के मुताबिक प्रत्येक गर्भवती स्त्री और स्तनपान करवाने वाली माताओं को 6000 रूपये की आर्थिक सहायता दिए जाने का प्रावधान है. इसे क़ानून प्रसूति लाभ कहता है. यह लाभ उन महिलाओं को नहीं मिलेगा, जो राज्य या केंद्र या सार्वजनिक क्षेत्र में नियमित रूप से काम कर रही हैं या जिन्हें किसी दूसरे क़ानून के तहत लाभ मिल रहे हैं. इसके अलावा संसद द्वारा बनाए गए क़ानून में किसी अन्य शर्त का उल्लेख नहीं किया गया था किन्तु प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने कई ऐसी शर्तें लागू किये जाने के संकेत दिए हैं, जिनसे लगभग 2 करोड़ से ज्यादा महिलाओं को हक नहीं मिल पायेंगे.

हमें अपनी सरकार से पूछना चाहिए कि क्या वे अपने समाज में महिलाओं की स्थिति से वाकिफ हैं? मसलन एक शर्त यह है कि आर्थिक सहायता केवल दो बच्चों के जन्म तक ही दी जायेगी. तीसरे बच्चे के जन्म पर महिलायें इस हक की पात्र नहीं होंगी. भारतीय समाज में प्रजनन के अधिकार महिलाओं को नहीं मिले हैं. जिस समाज में पुरुष संतान के जन्म की चाहत में स्त्री को ''बार-बार गर्भवती बनाया'' जाता है, जहां उसकी इच्छा और निर्णय का कोई मान नहीं होता, वहां यदि तीसरे बच्चे के जन्म पर स्त्री का जीवन अपने आप ही संकट में होता है, वहां सरकार भी उसके जीवन के प्रति असंवेदनशील हो रही है. यह सही है कि दो बच्चों तक परिवार को सीमित रखने का सिद्धांत लागू किया जाना है, किन्तु क्या इसके लिए स्त्री को सजा देना जरूरी है? एक तरफ तो समाज उसकी प्रजनन क्षमता पर अपना शासन चलता है, वहीं मातृत्व हक की योजना में इस तरह की शर्त डालना सामाजिक वास्तविकताओं के संदर्भ में संविधान के जीवन के बुनियादी अधिकार के खिलाफ़ है. भारत में जनगणना-2011 के मुताबिक 29 साल से कम उम्र की 1.6 करोड़ महिलायें ऐसी हैं, जिन्होंने 3 या इससे ज्यादा बच्चों को जन्म दिया है. उन्हें इस हक से वंचित किया जाएगा. भारत में नीति और योजनाएं बनाने वाले बहुत विद्वान हैं, किन्तु उन्हें खुद पहल करके एक बार अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर यह अध्ययन करना चाहिए कि ज्यादातर परिवारों में दो से ज्यादा बच्चे जन्म क्यों लेते हैं? और इसमें महिलाओं के निर्णय की क्या स्थिति होती है?

यह भी संकेत दिया जा रहा है कि जो महिलायें चिकित्सा संस्थान (किसी भी तरह के अस्पताल) में प्रसव करवाएंगी, केवल उन्हें ही मातृत्व हक दिया जाएगा. देश में अब भी हज़ारों गांव ऐसे हैं, जहां से लोग आसानी से अस्पताल नहीं पहुंच पाते हैं. जहां तक सरकार के प्रचार के संदेश पहुंचते होंगे, किन्‍तु सेवाएं नहीं पहुंचती. इसके अलावा स्वास्थ्य केन्द्रों में प्रसव की व्यवस्था नहीं है, चिकित्सक नहीं हैं, उनसे पैसा मांगा जाता है, दवाएं नहीं हैं और सबसे वंचित तबकों के साथ खूब जमकर दुर्व्यवहार होते है. जिनके चलते दलित-आदिवासी और गरीब लोग अस्पताल में प्रसव के लिए नहीं पहुंच पाते हैं. लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना तंत्र की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2015-16 में भारत में गर्भवती महिलाओं की अनुमानित संख्या 2.96 करोड़ थी. अध्ययन बताते हैं कि विभिन्न कार्यक्रमों में 22 लाख महिलाओं को मातृत्व हक मिलते हैं, शेष 2.74 करोड़ महिलायें इससे वंचित रहती हैं. जरा विचार कीजिये कि वर्ष 2015-16 में भारत में 23.56 लाख प्रसव घर पर हुए. इन महिलाओं को ''भारत सरकार ने हक पाने के लिए अपात्र'' मान लिया है. भारत के प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को एक बार मानवीय स्वभाव के साथ यह जानना चाहिए कि ये प्रसव घर पर क्यों हुए?

अब तक की योजना में यह शर्त भी रही है कि लाभ केवल 19 वर्ष की उम्र में होने वाले प्रसव पर ही मिलेंगे. लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना तंत्र की रिपोर्ट के मुताबिक 5.6 प्रतिशत प्रसव (लगभग 16.57 लाख) 19 साल से कम उम्र में हुए. भारत में विवाह और बाल विवाह की अपनी एक व्यवस्था है, जिसमें परिवार और समाज निर्णय लेता है कि किसका विवाह किस उम्र में और किसके साथ होगा? हमें यह छिपाना नहीं चाहिए कि देश में अब भी बाल विवाह हो रहे हैं. बाल विवाह के कारण बच्चों के ऊपर गहरे शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक असर पड़ते ही हैं, उस पर उन बच्चियों को मातृत्व हक से वंचित करना ''संवेदनशील मानवीय नीति'' नहीं है.

महिला और बाल विकास मंत्रालय ने जिस तरह की योजना बनायी है (3 जनवरी 2017 को प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो द्वारा जारी विज्ञप्ति) उससे स्पष्ट रूप से यह पता नहीं चलता है कि यदि महिला का गर्भपात हो जाए, तो उसे पूरी राशि मिलेगी या नहीं? इस विज्ञप्ति के अनुसार मातृत्व हक की पहली किश्त गर्भावस्था के पंजीयन पर मिलेगी और दूसरी किस्त संस्थागत प्रसव होने पर और तीसरी किस्त बच्चे जन्म के पंजीयन और 3 महीनों के टीकाकरण के बाद. गर्भपात एक गंभीर शारीरिक और मानसिक आघात की स्थिति पैदा करता है. सरकार का मकसद पूरी सहायता उपलब्ध करवाकर उस महिला को आघात से उबरने में मदद करना होना चाहिए, न कि उनका बहिष्कार. वर्ष 2015-16 में देश में 9.84 लाख गर्भपात दर्ज हुए थे. इतना ही नहीं मृत शिशु जन्म की स्थिति में भी महिलाओं को पूरे हक का प्रावधान होना चाहिए.

मातृत्व हक को स्त्री श्रम की पहचान से जोड़ना
भारत में जो महिलायें अपने घर के संचालन-समन्वय और प्रबंधन का काम करती हैं, उन्हें कार्यशील नहीं माना जाता है. जबकि वस्तु स्थिति यह है कि वे 8 से 15 घंटे श्रम करती हैं. उस श्रम का कोई आर्थिक मूल्य नहीं चुकाया जाता है, इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था में वह योगदान नहीं जुड़ता है. बेहतर होगा कि सरकार ''पारंपरिक लैंगिक असंवेदनशीलता'' से बाहर आए और श्रम को पुनर्परिभाषित करने, पुनर्वितरण और उसके मूल्यांकन की व्यवस्था बनाए. जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 14.995 करोड़ महिलायें मुख्य और सीमांत कामगार के रूप में काम करती हैं. इसके साथ ही 5.8 करोड़ महिलाएं काम की तलाश में हैं. काम की तलाश कर रही ये महिलायें भी कहीं न कहीं काम में जुटी ही रहती हैं. इस मान से 20.795 करोड़ महिलायें काम से जुड़ी हुई हैं या काम की जरूरतमंद हैं. लगभग 16 करोड़ महिलायें आपके घर के प्रबंधन का श्रम करती हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण (2015-16) के मुताबिक भारत में संगठित क्षेत्र में कुल 2.96 करोड़ लोग ही काम करते हैं. इनमें से महिलाओं की संख्या केवल 60.5 लाख है. संगठित क्षेत्र का मतलब यह है कि जहां एक हद तक श्रम करने वालों के लिए काम के घंटे, अवकाश, स्वास्थ्य, उनके बच्चों की शिक्षा, सामाजिक व्यवहार के लिए समय और सेवानिवृत्ति का सुरक्षित अधिकार निर्धारित है. इस समूह को श्रम कानूनों का संरक्षण मिल पाता है. संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को ही मातृत्व हक मिल पाते हैं; यानी गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद वेतन के साथ अवकाश, स्वास्थ्य और सुरक्षित प्रसव की सेवाएं, जब वे काम पर जाएं, तब कार्यस्थल पर शिशु की देखभाल की व्यवस्था आदि. ये मातृत्व अधिकार दबाव से नहीं अहसास के साथ मिलना चाहिए. संगठित क्षेत्र की व्यवस्थाएं भी कोई बहुत अच्छी नहीं हैं. वहां भी महिलाओं को मातृत्व हक के मामले में भेदभाव, दुर्व्यवहार, उत्‍पीड़न का सामना करना पड़ता है. फिर भी संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए एक व्यवस्था तो है.

भारत सरकार का कहना है कि इस कार्यक्रम का मकसद गर्भधारण के फलस्वरूप होने वाले ''पारिश्रमिक/मजदूरी के ह्रास की प्रतिपूर्ति'' करना है. हमें सोचना होगा कि गर्भावस्था और धात्री अवस्था के 15 महीनों की अवधि में कितने पारिश्रमिक का ह्रास होता है और सरकार किस आधार पर मातृत्व हक की राशि तय कर रही है? मौजूदा संदर्भ में यह औसत महज़ 400 रूपये प्रतिमाह है.

(सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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