आजकल बिहार में विपक्ष के नेता और अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव अमूमन अपने पार्टी कार्यालय में आयोजित होने वाली हर सभा में ये वाक्य ज़रूर बोलते हैं. ‘हमने स्वीकार किया कि उन 15 सालों तेजस्वी था भी नहीं सरकार में लेकिन फिर भी अगर हमसे कोई भूल हुई होगी तो हमको माफ़ कीजिएगा. लेकिन लोग कहते हैं कि माफ़ीनामा ठीक है भाई, हम कहते हैं जिसका रीढ़ का हड्डी होता है वही झुकता है और जिसका नहीं होता हैं वो रेंगता है. 15 साल में हमसे कोई भूल चूक हुआ तो जनता हमको माफ़ करे और जनता ने हमको सजा भी दिया. 15 साल हमको विपक्ष में बैठाया. हमलोग सच बोलने वाले लोग हैं. विचारधारा के साथ समझौता नहीं किया.'
निश्चित रूप से तेजस्वी यादव का ये बयान उनकी सोची समझी राजनीति का हिस्सा हैं. 15 वर्ष पूर्व बिहार की सत्ता से बेदख़ल होने के बाद अपनी पार्टी की तरफ़ से इतने बेबाक़ होकर इस बात को स्वीकार करने वाले वो पहले नेता हैं. लेकिन अब सवाल है कि जनता में इसका क्या असर है और आने वाले चुनावों में क्या जो वोटर राजद का साथ छोड़ कर गये हैं, वो उनकी इन बातों के आधार पर घर वापसी करेंगे?
इन सवालों का जवाब जानने के लिए आज के राजद और जब बिहार की सत्ता में इनका राज था, उस समय के सामाजिक माहौल को जानना बहुत ज़रूरी है. पहले आज का राष्ट्रीय जनता दल जिसने रविवार को अपने स्थापना के 23 वर्ष पूरे किए. लेकिन इस स्थापना दिवस पर अख़बारों में जो विज्ञापन आया वो भागलपुर के एक युवा नेता अनिकेत यादव के नाम से आया और उसमें उन्होंने तेजस्वी से भी बड़ा अपने चेहरे का फ़ोटो लगवाया था.
निश्चित रूप से पार्टी के संस्थापक लालू यादव और उनके साथ के कई वरिष्ठ नेता इस विज्ञापन को देख कर माथा पीट रहे होंगे .लेकिन ये एक उदाहरण हैं कि अगर आपके पास धनबल हैं तो राजद में ख़ासकर लालू यादव के दरबार में आपकी पूछ और पहुंच दोनों का मज़बूत आधार हैं . इस पार्टी में या राज्य सभा हो या विधान परिषद या विधान सभा सबमें अब ये बात पहले से मान ली जाती हैं कि अगर आपके पास पार्टी को देने के लिए धन हैं तो आप कहीं जा सकते हैं .ये एक कटु सच हैं .हालांकि मनोज झा या रामचंद पूर्वे जैसे लोग अपवाद में राज्य सभा या विधान परिषद में मिल जायेंगे . ऐसा नहीं कि नीतीश कुमार के यहां किंग महेंद्र जैसे लोगों की पहुंच नहीं हैं और उनके द्वारा पार्टी में जो चंदा दिया जाता हैं वो लेकिन सार्वजनिक होता हैं .लेकिन उनके जैसे उद्योगपति नीतीश कुमार के दरबार में अपवाद हैं . हां लेकिन नीतीश कुमार अपने सिपाहसालारों के चढ़ाने पर उसी राष्ट्रीय जनता दल में अपनी आर्थिक समृद्धि के आधार पर विधान पार्षद बने लोगों को अपनी पार्टी में शामिल कराने से परहेज़ नहीं करते. जो ये दर्शाता हैं एक जमाने में लालू का विकल्प नीतीश अब लालू की कमज़ोरीयों को अपने साथ मिलाकर जनता में अपनी एक अच्छी छवि पर भी ख़ुद से दाग लगाने में परहेज़ नहीं कर रहे हैं.
रविवार को ही तेजस्वी यादव जब अपने घर से पेट्रोल डीज़ल के दामों में वृद्धि के ख़िलाफ़ निकले तो उनके साथ वाली साइकल पर पार्टी का कोई वरिष्ठ नेता या विधायक नहीं बल्कि उनके बड़े भाई तेजप्रताप यादव थे और आज कल तो तेजस्वी जहां भी जाते हैं तेजप्रताप साये की तरह उनके साफ़ साथ हो लेते हैं .दो भाइयों का एक दल से विधायक होना भारतीय राजनीति में पहली बार नहीं है. लेकिन साथ ही साथ बड़ी बहन का राज्य सभा में होना , मां का विधान परिषद में होना यह भी एक उदाहरण है कि परिवारवाद दल पर कैसे हावी है .यह भी एक सच है कि राष्ट्रीय जनता दल का गठन किसी सिद्धांत से ज़्यादा केवल सता में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए या कहिए कि लालू यादव को राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाना था इसलिए उन्होंने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल बनायी .यह बात अलग है कि अलग दल बनाने के बाद क़रीब आठ वर्षों तक सत्ता में क़ाबिज़ रहे .लेकिन बिहार के लोग अभी भी ये बात नहीं भूले हैं कि किस तरीक़े से मुख्यमंत्री राबड़ी देवी होती थी और सरकार लालू यादव चलाते थे .और उसी सरकार में राबड़ी देवी के दो भाई साधु और सुभाष की सक्रियता और उनकी बदनामी राष्ट्रीय जनता दल के पतन का एक बड़ा कारण आज भी माना जाता है .यह एक ऐसा सच है जो शायद तेजस्वी को उतनी भलीभांति भी नहीं मालूम होगा .लेकिन आज भी यह एक सच है कि रबड़ी देवी के भाइयों की जगह अब कुछ भतीजे अब पार्टी के विधायकों के ख़िलाफ़ उनकी कान भरते हैं. जिसके कारण कई विधायकों ने अब लालू यादव की अनुपस्थिति में उनके घर जाना भी बंद कर दिया है .
जहां तक 15 सालों के कार्यकाल का सवाल है निश्चित रूप से शुरु के पांच सालों में पहले अगड़ी जाति के लोगों से लालू यादव का 36 का आंकड़ा रहा लेकिन इससे उनकी सरकार की सेहत पर कभी कोई असर नहीं हुआ .उनकी सरकार और उनकी शक्ति के पतन का असल कारण ग़ैर यादव पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी से वंचित करने का उनका प्रयास रहा जिसके कारण नीतीश कुमार जैसे लोगों ने अपनी अलग पार्टी समता पार्टी बनायी .बाद के दिनों में ही शरद यादव और राम विलास पासवान जैसे नेताओं का साथ छूटा जिसके कारण दलित गुटों का एक बड़ा तबक़ा राजद के ख़िलाफ़ हुआ .लेकिन लालू राबड़ी शासन का अंत दरअसल अति पिछड़ी जाति के वोटरों के राजद के ख़िलाफ़ जाने के कारण हुआ क्योंकि उनकी समझ में यह बात आ गई कि लालू यादव मात्र यादव मुस्लिम के सहारे अपनी सत्ता चलाना चाहते है .इस बात को इन वोटर के दिमाग़ में बैठेंने का भरपूर फ़ायदा नीतीश कुमार ने उठाया .
लेकिन 15 साल के लालू -राबड़ी शासन को अगर आप याद करेंगे तो सबसे ज़्यादा लोगों में आज भी तीन चीज़ों को लेकर दहशत होती है .एक तो उस ज़माने में सामाजिक तनाव काफ़ी ज़्यादा था जिसके कारण उत्तर बिहार के कई ज़िलों के गांव-गांव के कई पुरुष पलायन करने को मजबूर थे .दूसरा अपराधियों का समानांतर सरकार चलता था जिसके कारण लालू यादव के करीबी अश्विनी गुप्ता का अपहरण उन्ही के पार्टी के लोगों द्वारा किया गया .सिवान के पूर्व सांसद शहाबुद्दीन की तूती बोलती थी . वो पटना आते थे तो लालू यादव के घर जाने पर माहौल ऐसा होता था जैसे लालू यादव अपने राजनीतिक गुरु से दीक्षा ले रहे हो .नीतीश कुमार के शासन काल में भी जहां एक और शहाबुद्दीन और आनंद मोहन सिंह को सजा मिली वहीं यहां भी नीतीश के आंखो के दुलारे , अनंत सिंह , सुनील पांडेय और अमरेन्द्र पांडेय जैसे बाहुबलियों ने सता का भरपूर फ़ायदा उठाया .लेकिन शासन उनके इशारे पर काम नहीं करती थी बल्कि वो शासन के लोगों को मिला के अपने साम्राज्य को बढ़ाते रहे . लेकिन फ़र्क़ इतना रहा कि लालू ने अपने शासन काल में बाहुबलियों के सामने घुटना टेक दिया था वहीं नीतीश ने एक सीमा से ज़्यादा इनको छूट नहीं दी .
लालू यादव के जमाने में अपराधी या बाहुबली अपराध कर सीधे मुख्य मंत्री आवास पहुंच जाते थे लेकिन अब हत्या के दोषी रॉकी यादव के पिता बाहुबली बिंदी यादव भी नीतीश कुमार के साथ चुनावी मंच पर बैठ तो ज़रूर मिल जाते हैं क्योंकि उस समय उन्हें जीतन राम मांझी को पराजित करना होता है. लेकिन बेटे कि रिहाई नहीं करवा सकते . हालांकि बिहार के विश्वविद्यालय और स्कूल की पढ़ाई पूरे देश में आज भी बदतर हैं .लोग काम के अभाव में पलायन करते हैं , लालू राज में भय के कारण नहीं . महिलाओं का सशक्तिकरण जितना पंद्रह वर्षों में हुआ हैं उतना आज़ादी के बाद नहीं हुआ था .अब बिहार में रात में चलने में किसी को राजद शासन काल की तरह डर नहीं लगता . न रंगदारी दे कर जीना बिहारियों के लिए मजबूरी हैं .
हालांकि 15 वर्षों के बाद भी नीतीश कुमार के नेतृत्व में जब तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री हुए तो कम से कम न लालू यादव ना राबड़ी देवी ना तेजप्रताप के रवैये से लगा कि उन्होंने अपनी गलतियों से कुछ सीखा है .यह एक सच जो तेजस्वी यादव को भी मालूम है कि भले ही उनके पिता ने उन दोनों भाइयों को बहुत सारे विभाग का ज़िम्मा अपने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को नज़रअन्दाज़ कर दिए लेकिन जब फ़ैसले और फ़ाइल करने की बारी आती थी तो वो सब कुछ लालू यादव के आंखों तले उनके निवास स्थान पर होता था .जो किसी और को नागवार गुज़रता या नहीं नीतीश कुमार को कम से कम बर्दाश्त नहीं हो रहा था और इसलिए जैसे ही ज़मीन घोटाले की बात आयी तो नीतीश कुमार ने पिंड छुराकर फिर से BJP के साथ सरकार बना डाली.
लेकिन अंत में सवाल है कि जनता आख़िर तेजस्वी के माफीनामे को कितनी गंभीरता से लेती है और क्या केवल उनके कथनी पर अगली बार चुनाव में उन्हें वोट देगी? इस यक्ष प्रश्न का सीधा जवाब यही है कि जब तक तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी परिवारवाद धनबल के प्रभाव से बाहर निकल कर लोगों में यह विश्वास पैदा करने में क़ामयाब नहीं होती है कि कि उन्होंने अपने शासन काल में जो गलतियां की वो फिर नहीं दोहराएगी तब तक केवल भाषण देने से बात नहीं बनने वाली है. साथ ही उन्हें ये विश्वास दिलाना होगा कि अगर सता मिली तो उसमें अन्य वर्गों के साथ हिस्सेदारी करने में उन्हें परहेज़ नहीं होगा .इसकी परीक्षा उस समय हो जायेगी जब टिकट देने के समय क्या वो हर जाति या वर्ग को उनके आबादी के हिसाब से टिकट देते हैं या नहीं . क्योंकि अब तक तेजस्वी यादव को भी बिहार की राजनीति का गणित समझ में आ गया होगा!यहां की राजनीति अति पिछड़ा वोट के आधार पर ही बदलती है. वो जिसके साथ हैं सता का ताज उसके सर पर है. इस वर्ग का जब तक विश्वास नहीं जीतेंगे तब तक उन्हें नीतीश कुमार शासन के तमाम ख़ामियों के बाबजूद अपने भाषणों में माफीनामे का यह दौर जारी रखना होगा.
मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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