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This Article is From Aug 05, 2019

जम्मू-कश्मीर और 'नफ़रत का महोत्सव'

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 05, 2019 18:30 pm IST
    • Published On अगस्त 05, 2019 18:13 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 05, 2019 18:30 pm IST

जम्मू-कश्मीर से जुड़े केंद्र सरकार के ताज़ा फ़ैसलों पर सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया देखिए तो लगेगा कि हिंदुस्तान ने जैसे जम्मू-कश्मीर पर कोई जीत हासिल की है. खुशी का ऐसा माहौल है जैसा क्रिकेट में पाकिस्तान को हराने पर होता है. बाकायदा गंभीर समझे जाने वाले लेखक भी जैसे ललकार कर कह रहे हैं कि लो हटा दी गईं विवादास्पद धाराएं, अब कुछ कह कर दिखाओ.

दरअसल कश्मीर में किसी धारा का आना-जाना जितना चिंताजनक नहीं है, उससे ज़्यादा ख़तरनाक यह नज़रिया है. बीते कुछ दशकों में ऐसा माहौल बनाया गय जिसमें अनुच्छेद 370 (जिसे बीजेपी धारा 370) कहती है) कोई संवैधानिक प्रावधान भर नहीं रह गया, एक ऐसा भावनात्मक मुद्दा बन गया जिसके आधार पर बाक़ी भारत में वोट पड़ते और बंटते रहे. जाहिर है, यही स्थिति कश्मीर में भी बनी. यहां कश्मीर को लेकर जितना शोर मचता रहा, कश्मीर इंच-इंच कुछ और दूर खिसकता गया.

लेकिन वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश करें. कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने का मतलब क्या है? कहा जा रहा है कि अब कश्मीर में हर भारतीय प्लॉट खरीद सकेगा. हालत ये है कि आम हिंदुस्तानी अपने पुराने घर और मकान नहीं बचा पा रहे, वे छोटे शहरों के अपने खेत और घर बेच कर, बैंकों से लोन लेकर किसी तरह महानगरों में फ्लैट ले रहे हैं. वे अपना दूसरा प्लॉट कश्मीर में लेंगे- यह हास्यास्पद ख़याल बस एक लचर दलील से ज़्यादा कुछ नहीं बनाता. बेशक, इसका फ़ायदा कुछ उद्योगपतियों को मिलेगा और वह फ़ायदा रिसता हुआ कुछ कश्मीरियों तक भी पहुंचेगा, लेकिन इसकी क़ीमत कश्मीर और पूरे देश को क्या चुकानी होगी- इसका हिसाब अभी लगाना मुश्किल है.

जो सरकार बस इस विशेष दर्जे को ख़त्म कर देने भर से विकास की सुबह आ जाने का दावा कर रही है, उससे पूछा जाना चाहिए कि जिन इलाकों में उसे कहीं भी जाने-ज़मीन ख़रीदने-स्कूल बनाने- उद्योग लगाने की छूट है, वहां विकास का सच क्या है. किसान आत्महत्या को क्यों मजबूर हैं? नौजवान बेरोज़गार क्यों हैं? बच्चे कुपोषण से मरने को मजबूर क्यों हैं?

बहरहाल, इस विषयांतर से बचते हुए कश्मीर पर लौटें.

कश्मीर क्या बाक़ी भारत से इसलिए अलग था कि वहां अनुच्छेद 370 लागू था? ऐसे अनुच्छेद और भी राज्यों में हैं जो वहां के स्थानीय लोगों को विशेष हैसियत देते हैं. झारखंड में आप आदिवासियों की ज़मीन नहीं ख़रीद सकते. हिमाचल में भी ज़मीन खरीदने पर पाबंदी है. दरअसल ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि यह धारा 370 है जिसने कश्मीर को भारत से जोड़ा. ठीक है कि यह अस्थायी धारा थी, लेकिन इसके ख़त्म होने की शर्त यह थी कि इसे कश्मीरियों की आकांक्षा से ख़त्म किया जाएगा. माना जा रहा था कि भारतीय लोकतंत्र जैसे-जैसे मज़बूत होगा, कश्मीर और बाक़ी भारत के बीच बनी यह धारा गलती जाएगी और एक दिन बेमानी होकर भुला दी जाएगी. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'इंडिया आफ़्टर गांधी' में इस बात का ज़िक्र किया है कि कश्मीर की संविधान सभा में शेख़ अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर को लेकर तीनों विकल्पों की बात की. उन्होंने कहा कि कश्मीर जिस तरह की ताक़तों से घिरा है, उन्हें देखते हुए वह आज़ाद नहीं रह सकता. पाकिस्तान में जाने के विकल्प को उन्होंने इस आधार पर ख़ारिज किया कि वहां के सामंत और ज़मींदार कश्मीर को छोड़ेंगे नहीं. शेख़ अब्दुल्ला ने कहा कि उन्हें नेहरू से उम्मीद है कि वह अपने यहां की कठमुल्ला ताक़तों को परास्त कर सकेंगे और कश्मीर का भविष्य भारत में है. गुहा की किताब यह भी बताती है कि यह शेख़ अब्दुल्ला थे जिन्होंने कश्मीर से कन्याकुमारी तक का वह नारा दिया था जो आज भी भारत की एकता को प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

आने वाले दिनों में इस विश्वास को किस तरह कुचला गया, यह एक लंबी और दर्दनाक कहानी है. इसके खलनायक बहुत सारे लोग हैं- वह संघ परिवार भी जिसने वहां श्यामा प्रसाद मुखर्जी को आंदोलन के लिए भेजा, वह कांग्रेस भी जिसने वहां चुनाव के नाम पर बरसों तक तमाशा किया और अपने पिट्ठू बिठाए और कश्मीर के वे नेता भी जिन्होंने अलगाववाद और आतंकवाद को अपने मुनाफ़े के कारोबार में बदल लिया.

लेकिन पुरानी ऐतिहासिक ग़लतियों को नई ऐतिहासिक ग़लतियों से सुधारने की ज़िद बताती है कि लोकतंत्र के इतने सारे बरस बीत जाने के बाद भी आप यह नहीं समझ पाए हैं कि देश कैसे बनते हैं और राष्ट्र कैसे मज़बूत होते हैं. वे क़ानून की धाराओं से नहीं, जनता के सपनों से बनते हैं. जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ दिनों में जिस तरह का सरकारी तंत्र चला, उससे लगता है जैसे हम अपने ही देश के एक बराबरी वाले हिस्से के साथ नहीं, किसी उपनिवेश के साथ पेश आ रहे हैं. 100 साल पहले जैसे ब्रिटिश सरकार भारतीयों से पेश आती थी, उसी तरह भारत सरकार भारतीयों से पेश नहीं आ सकती. एक राज्य के नेताओं को नजरबंद करके, बिना किसी उकसावे के राज्य में धारा 144 लागू करके, राज्य के एक हिस्से में स्कूल कॉलेज बंद कराकर अगर आप कोई फ़ैसला करते हैं तो इसलिए कि आपको पता होता है कि वह फ़ैसला जनता के गले नहीं उतरने वाला है. लेकिन आप लोगों को समझाने, अपने साथ जोड़ने की कोशिश नहीं करते, उन पर अपना फ़ैसला थोपने की कोशिश करते हैं और कुछ इस तरह करते हैं कि इस पर बाक़ी भारत इठलाता-खिलखिलाता है. ऐसा करके दरअसल आप कश्मीर को कुछ और दूर ही कर रहे होते हैं.

डराने वाली बात यह है कि सरकार अनुच्छेद 370 हटाने की कोशिश में न जनमत का ध्यान रख रही है न क़ानूनी बाध्यताओं का. संवैधानिक स्थिति यह है कि इसे कश्मीर की संविधान सभा की इजाज़त के बिना नहीं हटाया जा सकता. सरकार ने पहले एक अधिसूचना जारी कर संविधान सभा की शक्तियां जम्मू-कश्मीर विधानसभा को सौंप दीं. इसका तर्क फिर भी समझा जा सकता है क्योंकि अब वहां संविधान सभा का अस्तित्व ही नहीं बचा है. लेकिन इसके आगे केंद्र सरकार का तर्क दिलचस्प है. वह कहती है कि चूंकि अभी विधानसभा नहीं है इसलिए उसकी शक्तियां लोकसभा में निहित हैं और लोकसभा उसकी ओर से फ़ैसला कर सकती है. कहना मुश्किल है, यह दलील किसी न्यायिक समीक्षा में खरी उतरेगी या नहीं.

बहरहाल, कश्मीर का हल आसान नहीं है, उसकी अपनी जटिलताएं हैं. लेकिन इतिहास का इकलौता सबक यही है कि ऐसी समस्याएं ज़ोर-जबरदस्ती से नहीं, अंततः संवाद से हल होती हैं, जनता का कॉलर पकड़ कर नहीं, उसके हाथ थाम कर हल होती हैं.

इन पंक्तियों का लेखक कश्मीर का विशेषज्ञ नहीं है. लेकिन यह समझने के लिए कश्मीर का विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं है कि इतने बड़े फ़ैसले अगर जनता को साथ लेकर नहीं किए जाते तो वे नए संकटों में बदल जाते हैं. जो वाकई अलगाववादी हैं, उन्हें भी यह फ़ैसला ख़ूब रास आएगा क्योंकि इससे उसी प्रचार को बल मिलेगा जो वे बरसों से कर रहे हैं. यह समझने के लिए और विशेषज्ञ होने की ज़रूरत और कम है कि कश्मीर के बदलावों को लेकर जो उत्सवी माहौल है, वह कश्मीर को कुछ और उदास और मायूस कर रहा होगा. दरअसल आप न हिंदुस्तान से प्यार करते हैं न कश्मीर से- आप एक नकली देशभक्ति से प्यार करते हैं जिसमें नारों का शोर ज़्यादा होता है, सच्चाई कम. फ़ासीवाद पर बरसों पहले लिखे अपने एक लेख में उंबेर्तो इको ने कहा था कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब 'रेटरिक'- शब्दाडंबर- से भी आज़ादी है. लेकिन हम शब्दाडंबरों की आज़ादी में ही मगन हैं. प्राग में सोवियत सैनिकों के जाने के बाद जो माहौल था, उसे मिलान कुंदेरा ने 'कार्निवाल ऑफ़ हेट'- बताया था- कश्मीर को लेकर घृणा का यह महोत्‍सव आप हर तरफ़ देख सकते हैं. कहना मुश्किल है कि कश्मीर को ज़्यादा नुक़सान किस बात से पहुंचेगा- कश्मीर में धारा 370 हटाने से, या बाकी भारत में बह रही ख़ुशी की धारा से.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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