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This Article is From Jun 28, 2019

राज्यसभा की कार्यवाही से हटाएं शेर, वरना ग़ालिब के नहीं उड़ेंगे पुर्जे, प्रधानमंत्री पर उठेंगे सवाल

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    June 28, 2019 22:44 IST
    • Published On June 28, 2019 22:44 IST
    • Last Updated On June 28, 2019 22:44 IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा का जवाब देते हुए राज्यसभा में जो भाषण दिया, वह अब राज्यसभा के रिकॉर्ड का हिस्सा हो चुका है. इस रिकॉर्ड में प्रधानमंत्री के सौजन्य से ग़ालिब के नाम एक ऐसा शेर दर्ज है जो ग़ालिब का नहीं है. दरअसल यह क़ायदे से शेर भी नहीं है. शेर का अपना एक अनुशासन होता है जिससे शायरी की दुनिया से सामान्य परिचय रखने वाले लोग भी मोटे तौर पर परिचित होते हैं.

प्रधानमंत्री शेरो-शायरी के अनुशासन से परिचित न हों- इसमें कोई बुरी बात नहीं है. इससे उनके कामकाज की योग्यता पर असर नहीं पड़ता. हमने ऐसे भी प्रधानमंत्री देखे हैं जो कवि कहलाए लेकिन काव्य मर्मज्ञों की नज़र में उनमें बारीक कविता की समझ नहीं थी. वैसे प्रधानमंत्री मोदी के परिचय में भी कहीं-कहीं उनके कवि होने का भी उल्लेख मिलता है. इससे पता चलता है कि प्रधानमंत्री कवि होने की कामना करते हैं. यह कामना भी अपने-आप में बुरी बात नहीं है.

लेकिन जब प्रधानमंत्री राज्यसभा में देश के मशहूर शायर के नाम से एक ग़लत शेर पढ़ते हैं तो यह एक गंभीर बात है. हम सब जानते हैं कि सोशल मीडिया पर साहित्य और शेरो-शायरी को लेकर एक अराजक माहौल है. कोई भी अच्छा-बुरा शेर कभी ग़ालिब, कभी गुलज़ार, कभी हरिवंश राय बच्चन या कभी दिनकर के नाम पर चलाया जा सकता है. इसी तरह कई समकालीन लेखकों की अच्छी रचनाएं कभी महादेवी वर्मा और कभी अमृता प्रीतम के नाम से चला दी जाती हैं. लेकिन किसी आधिकारिक मंच पर ऐसी रचना स्वीकार नहीं की जा सकती. पिछले दिनों हिंदी के एक पत्रिका 'वागर्थ' ने समकालीन कवयित्री बाबुष कोहली की कविया 'वसीयत' अमृता प्रीतम के नाम से छाप दी. ऐसी चूक कुछ अख़बार भी कर चुके हैं. इसके पहले भोपाल की एक कवयित्री निधि सक्सेना की एक कविता महाश्वेता देवी और महादेवी वर्मा के नाम से चलाई जाती रही. नए साल पर एक कविता दिनकर के नाम से चल पड़ी जो दिनकर की नहीं थी.

मगर राज्यसभा में प्रधानमंत्री द्वारा की गई गलती को इन आम गलतियों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. राज्यसभा की कार्यवाही में कोई गलत तथ्य नहीं जाना चाहिए. ऐसा नहीं कि इससे ग़ालिब को कोई नुक़सान होगा. ग़ालिब को पढ़ने वाले हमेशा ग़ालिब को अचूक ढंग से पहचान जाएंगे. ग़ालिब के नाम से पेश नकली माल एक लम्हे को भी नहीं चलेगा. लेकिन भविष्य में जब कोई राज्यसभा की कार्यवाही पलटेगा और यह शेर ग़ालिब के नाम पर दर्ज पाएगा तो उसे प्रधानमंत्री की जानकारी और राज्यसभा के विवेक- दोनों पर अचरज होगा.

इसलिए यह जरूरी है कि राज्यसभा का कोई सांसद, कोई नेता, सभापति इस पर ध्यान दे और सदन की अनुमति लेकर रिकॉर्ड से यह शेर हटाए. संकट यह है कि इतनी मेहनत कोई नहीं करेगा. शेरो-शायरी, कविता-साहित्य, कला-संस्कृति अब वे क्षेत्र नहीं हैं जिन पर राजनीति ध्यान दे. उसको मालूम है कि ये सारे क्षेत्र उसके हाथों उपकृत होने के लिए हैं. नेता जब अपने भाषणों में कविता का इस्तेमाल करते हैं तो जैसे कवि उपकृत हो जाते हैं, जब सरकारें लेखकों को पुरस्कृत करती हैं तो वे विभोर हो जाते हैं. साहित्य और संस्कृति की दुनिया में यह आत्महीनता शायद इस वजह से भी बढ़ी है कि हाल के वर्षों में समाज और संस्कृति के बीच दूरी घटी है. बेशक, इसके कुछ ज़िम्मेदार लेखक और संस्कृतिकर्मी रहे हों, लेकिन ज्यादा ज़िम्मेदार वह समाज है जो बड़ी बुरी तरह उपभोक्तावाद को इकलौता मूल्य मान बैठा है. सामाजिक चेतना उसके लिए एक पिछड़ा हुआ ख़याल है, सूक्ष्म कला, गहरा संगीत और समृद्ध साहित्य उसके लिए ऐसी विलासिता है जिसके लिए उसके पास समय नहीं.

कहानी या कविता भी उसके लिए बस उपभोक्ता सामग्री है जिसके इस्तेमाल का एक निश्चित समय और उपयोग है. यही वजह है कि कविता की कोई गहरी समझ उसे अपने लिए ज़रूरी नहीं लगती और कवि की पहचान उसके लिए मायने नहीं रखती. इस बौद्धिक शून्य में किसी भी चमकती हुई पंक्ति के इस्तेमाल के लिए भी उसे कोई एक जाना-पहचाना नाम चाहिए- वह ग़ालिब का हो, बच्चन का हो या फिर गुलज़ार का.

प्रधानमंत्री इसके पहले संसद में निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल पढ़ चुके हैं और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पंक्ति दुहरा चुके हैं. बजट पेश करते हुए पीयूष गोयल तो मुक्तिबोध को उद्धृत कर चुके हैं. लेकिन दरअसल निदा फ़ाज़ली हों या सर्वेश्वर दयाल सक्सेना या मुक्तिबोध- इनकी काव्य चेतना की समझ और परवाह किसी को नहीं है. बस कहीं फिट हो सकने वाली पंक्ति चाहिए जो चुन ली गई.

दुर्भाग्य से इस बार राज्यसभा में प्रधानमंत्री ने जो शेर अपने मौक़े के लिए चुना, उसके बारे में यह तस्दीक करना भी ज़रूरी नहीं समझा कि वह ग़ालिब का है या नहीं. ठीक है कि उनसे यह चूक हो गई. लेकिन यह चूक दुरुस्त नहीं की गई तो गालिब का कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन भारतीय लोकतंत्र के उच्च सदन और सर्वोच्च व्यक्ति को लेकर अच्छी राय नहीं बनेगी. ग़ालिब ने बहुत मुश्किल दिन देखे और बहुत से विरोध झेले. लेकिन उनकी अपनी ठसक कायम रहती थी-
'थी ख़बर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गए प' तमाशा न हुआ.'

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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