"आज मैं स्वयं को आलोचक मानता हूं, और एक प्रकार से हूं भी, बल्कि पहले से कहीं अधिक मुखर... अब मै समीक्षा लिखने की बजाय फिल्म बनाता हूं... आलोचनात्मकता इसमें समा गई है..."
फ्रांस के महान फिल्म निर्देशक गोदार के ये शब्द फिल्म के उस स्वरूप और उसकी उस ताकत को बताते हैं, जिसे लेकर राजनेता हमेशा से चिंतित और सतर्क रहे हैं. उनकी यह चिंता और सतर्कता लोकसभा चुनाव 2019 से चार महीने पहले लगभग-लगभग एक साथ आई तीनों फिल्मों में महसूस की जा सकती है. इनमें दो फिल्में 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' एवं 'उरी' जहां एक पाले की फिल्में हैं, वहीं 'ठाकरे' इसी श्रेणी की, किन्तु अन्य पाले की फिल्म है.
आजादी के बाद यह पहला अवसर है, जब सीधे-सीधे राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित विशुद्ध राजनीतिक फिल्में (बायोग्राफी के रूप में ही सही) आईं. हालांकि इसकी एक शुरुआत सन् 1975 में 'आंधी' से हुई थी, लेकिन आपातकाल के तूफान का कुछ ऐसा कहर इस पर टूटा कि फिल्मकारों की राजनीतिक विषयों पर फिल्म बनाने की हिम्मत ही टूट गई.
लेकिन क्या एक साथ इन तीन राजनीतिक फिल्मों के आने को सरकार के सिनेमा के प्रति उदारवादी लोकतांत्रिक दृष्टिकोण के प्रमाण के रूप में लिया जाना चाहिए...? इसका सही उत्तर इस प्रश्न से मिल सकता है कि यदि केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही होती, तो क्या 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' फिल्म रिलीज़ हो पाती...? या एक प्रश्न यह भी है कि यदि वर्तमान प्रधानमंत्री पर कोई इसी प्रकार की फिल्म बनाता, तो उसके साथ राजनीति का व्यवहार कैसा होता...?
इसके उत्तर के रूप में एक साल पहले आई फिल्म 'पद्मावत' के साथ घटित घटना को केस स्टडी के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है. निश्चित रूप से यह एक ऐतिहासिक फिल्म थी, राजनीतिक फिल्म नहीं. लेकिन इस फिल्म में राजनीति की खोज कर ली गई, और उसके बाद जो कुछ हुआ, वह फिल्म इतिहास का एक स्वतंत्र अध्याय बन चुका है. एक विशेष राजनीतिक दल की राज्य सरकारों ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को दरकिनार करते हुए इसके प्रदर्शन पर रोक लगा दी, लेकिन बाद में हाल ही में हुए विधानसभाओं चुनावों ने उनके इस राजनीतिक दांव को गलत साबित कर दिया.
हर देश की सत्ताएं अपने प्रचार-प्रसार के लिए अनेक तरह के उपायों का सहारा लेती आई हैं. कम्युनिस्ट सरकारें इस मामले में अति की सीमा तक पहुंच गईं. इसका परिणाम यह हुआ कि ये फिल्में राजनीतिक न रहकर विशुद्ध प्रोपेगण्डा बनकर रह गईं. लोगों पर उनका स्वाभाविक प्रभाव समाप्त हो गया. कुछ-कुछ ऐसा ही हम 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' तथा 'ठाकरे' फिल्म के साथ होता हुआ देख रहे हैं. स्पष्ट है, जब दर्शकों का ऐसी फिल्मों की विश्वसनीयता पर से विश्वास उठ जाता है, तो वे उसे स्वीकार करना बंद कर देते हैं. अनुपम खेर की इस फिल्म में उपस्थिति तथा वर्तमान सरकार का पिछले पौने पांच सालों से अपनी पूववर्ती पर किए जाने वाले निरंतर मौखिक आघात ने इस फिल्म को संदेहास्पद बना दिया.
राजनीतिक फिल्मों की सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि वे कैसे अपनी निजी राजनीतिक मान्यताओं को किनारे करके अधिकतम तटस्थता के साथ कथ्य को प्रस्तुत कर पाते हैं. इसलिए उनकी बनावट काफी कुछ डाक्यूमेंट्री फिल्मों के करीब पहुंच जाती है.
हमें यह स्वीकार करना होगा कि विशेषकर लगभग पिछले पांच सालों से दर्शकों की रुचि में बहुत ही सकारात्मक बदलाव आए हैं. जीवन के सामान्य से यथार्थवादी प्रसंगों पर आधारित अत्यंत छोटे बजट की फिल्मों को अपने सिर-माथे पर बिठाकर दर्शको ने जो कमाल किया है, वह राजनीतिक फिल्मों के भविष्य के लिए बहुत अच्छा संकेत है. निःसंदेह ऐसी फिल्में लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए भी पोषक तत्व का काम करेंगी. इसलिए यह उचित समय है कि फिल्मकार इस दिशा में सोचें. जब अच्छी राजनीतिक फिल्में आने लगेंगी, तो फिल्मों पर होने वाली राजनीति का प्रभाव अपने-आप कम होने लगेगा.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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