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This Article is From Aug 13, 2019

लोकतंत्र के ट्यूलिप की तरह है ट्यूनीशिया

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 13, 2019 14:31 pm IST
    • Published On अगस्त 13, 2019 14:31 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 13, 2019 14:31 pm IST

जंगल में शेर की दहाड़ों के बीच किसी कली के चटकने या किसी पत्ते के चुपचाप टूटकर गिरने की आवाज़ की भला बिसात ही क्या है. फिलहाल दुनिया अमेरिका-चीन का व्यापार युद्ध, उत्तरी कोरिया के परमाणु परीक्षण, अमेरिका-रूस का परमाणु संधि से विलगाव तथा ईरान पर गड़गड़ाते युद्ध के बादलों के शोर में खोई हुई है. ऐसे में भला सवा करोड़ से भी 10 लाख कम आबादी वाले एक छोटे से ट्यूनीशिया नामक देश में चटकी कली पर किसी का ध्यान क्यों जाएगा. लेकिन जाना चाहिए.

क्या आपको लगभग नौ साल पहले घटी उस घटना की याद है, जब सब्जी के एक ठेलेवाले ने स्थानीय पुलिस के अन्याय के विरोध में आवाज़ उठाई थी, और देखते ही देखते उसने ऐसा उग्र रूप धारण कर लिया था कि वहां के राष्ट्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा था. यह देश था - ट्यूनीशिया. और इस नन्हे से देश ने अपने यहां लोकतंत्र के लिए जो क्रांति की थी, उसे कहा गया था 'अरब स्प्रिंग' - जहां 'स्प्रिंग' का अर्थ वसंत नहीं, क्रांति है.

इससे भी बड़ी बात यह है कि यह अरब क्रांति इस देश तक ही सीमित नहीं रही. इसकी लपटें अफ्रीका के मिस्र, मोरक्को एवं लीबिया से लेकर मध्य-एशिया के यमन, बहरीन तथा पश्चिम एशिया के सीरिया एवं जोर्डन तक भी पहुंची, और अच्छी-खासी पहुंची.

नौ साल बाद एक बार फिर ट्यूनीशिया ने इन अरब देशों के सामने लोकतंत्र का सुंदर उदाहरण पेश किया है. कुछ ही दिन पहले वहां के निर्वाचित राष्ट्रपति बेजी सी. एसेब्सी की मृत्यु हो गई. ठीक उसी दिन अपने लोकतांत्रिक संविधान के अनुसार वहां की विधायिका के प्रमुख ने कार्यकारी राष्ट्रपति के तौर पर कार्यभार संभाल लिया. कही कोई प्रदर्शन नहीं, कोई गोलीबारी नहीं, कोई तख्तापलट नहीं, जिसके लिए ये अरब राष्ट्र जाने जाते हैं. नए राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई. यह कहना गलत नहीं होगा कि सन् 2011 की अरब क्रांति के बाद ट्यूनीशिया अकेला ऐसा देश है, जिसने एक तानाशाह को सत्ता से बेदखल कर निष्पक्ष चुनाव और वास्तविक स्वतंत्रता के मार्ग को चुना.

यदि हम अरब क्रांति से प्रभावित उस समय के अन्य देशों की ओर नज़र डालें, तो निराशा ही हाथ लगती है. सीरिया, लीबिया और यमन बुरी तरह गृहयुद्ध में फंसे हुए हैं. मिस्र एक बार फिर सैन्य शासन की ओर लौट गया है. सूडान और अल्जीरिया तानाशाही सत्ता के दबाव में हैं. वहां के अनेक देशों में अब भी राजशाही कायम है.

जहां तक भारत का सवाल है, हमारे यहां से लगभग 7,000 किलोमीटर दूर स्थित ट्यूनीशिया भले ही बहुत ज्यादा अहमियत न रखता हो, लेकिन उसने एक लोकतांत्रिक क्रांति की शुरुआत कर उसे अब तक जो बनाए रखा है, वह बहुत मायने रखता है. यदि ट्यूनीशिया अरब के अन्य राष्ट्रों के लिए दिलचस्पी एवं प्रेरणा का स्त्रोत बन सका, तो इन देशों की लोकतांत्रिक सरकारों से भारत को अपने संबंधों को घनिष्ठ करने में अधिक मदद मिल सकेगी. इससे भारत पाकिस्तान के विरुद्ध उस क्षेत्र में एक शक्ति संतुलन स्थापित करने में सक्षम हो सकेगा. उल्लेखनीय है कि भारत अपने कच्चे तेल के 65 फीसदी भाग का आयात मध्य-पूर्व एशिया से ही करता है, और इन देशों में लगभग 65 लाख भारतीय रह भी रहे हैं.

फिलहाल, ट्यूनीशिया के सामने एक यह चुनौती ज़रूरी है कि वह अपने यहां राष्ट्रपति के चुनाव को कितने शांतिपूर्ण तरीके से सम्पन्न करा पाता है. भारत इसकी प्रतीक्षा कर रहा है.

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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