ग्रीक के संशयवादी दार्शनिक डियोजेनेस एक पाइप (बैरल) में रहते थे. एक दिन जब वह खुली धूप का सेवन कर रहे थे, तत्कालीन विश्वविजेता सिकन्दर महान उनके पास आकर बोला, "क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूं...?" इस पर उस मस्त-फक्कड़ दार्शनिक ने जवाब दिया, "हां, एक काम है, जो आप मेरे लिए कर सकते हैं... मेहरबानी करके थोड़ा-सा एक तरफ हट जाइए... आप मेरी धूप को रोक रहे हैं..."
अब, जब संयुक्त राष्ट्र की सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन्स नेटवर्क ने वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट-2019 जारी की है, इस छोटी सी, किन्तु बहुत वजनदार घटना पर विचार किया जाना बेहद ज़रूरी है. इसमें सबसे पहला सवाल 'खुशहाली' की परिभाषा पर ही उठाया जाना चाहिए. क्या बैरल में रहने वाले डियोजेनेस को इस रिपोर्ट के अनुसार किसी भी कोण से खुश व्यक्ति कहा जा सकता है...? विश्वविजेता से भी वह जो मांगता है, वह है धूप, जो यूं ही बहुतायत में उपलब्ध है, और जो खुशहाली के इंडेक्स से परे है. डियोजेनेस के उत्तर का क्या प्रभाव उस 23-वर्षीय नौजवान पर पड़ा होगा, क्या खुशहाली की गणना करते समय इसकी उपेक्षा की जानी चाहिए...?
जिन छह मुख्य तत्वों के आधार पर 'हैप्पीनेस' की गणना की जाती है, दरअसल उनमें विशुद्ध मनोवैज्ञानिक लक्षणों की स्पष्टतः उपेक्षा देखने को मिलती है. यदि हम GDP वाले बिन्दु को किनारे कर दें, तो शेष पांच लक्षण परम्परागत विकासशील समाजों में अधिक देखने को मिलते हैं. 19वें स्थान पर स्थित अमेरिकी समाज सामाजिक सहयोग से दूर रहकर एकांतवास करने वाला समाज है, जिसके कारण वहां मानसिक अवसाद महामारी की तरह फैलता जा रहा है. मोटापा वहां की राष्ट्रीय बीमारी का रूप ले चुका है. ब्लैक एंड व्हाइट लोगों के बीच समाज का स्पष्टतः विभाजन है. पार्किंग करने जैसी छोटी-छोटी आदतों तक को कानून से नियंत्रित किया जाता है. समझ में नहीं आता कि ऐसा राष्ट्र सामाजिक सहयोग, सामाजिक स्वतंत्रता, उदारता एवं स्वस्थ जीवन के आधार पर ऊंची रैंकिंग कैसे पा लेता है.
शुरू के सात सबसे खुशहाल देशों में सभी स्कैन्डेनेवियाई देश हैं, जिनमें से शायद किसी की भी आबादी एक करोड़ से अधिक नहीं है. वस्तुतः ये राष्ट्र के नाम पर 'नगर राज्य' ही हैं, जिनकी उचित व्यवस्था अपने-आप में चुनौती नहीं होती. यहां सबसे ज़्यादा गौर करने वाली बात यह है कि ये सभी देश पश्चिमी यूरोप की तथाकथित आधुनिकता से दूर अपने परम्परागत मूल्यों से अभी भी गहरे रूप से जुड़े हुए हैं. इसलिए यहां एक प्रकार के सामाजिक सद्भाव की अनुभूति होती है. ब्रिटेन (15वां) और जर्मनी (17वां) में आप इसके एहसास को तरस जाएंगे.
यहां फिर एक सवाल मन में उठता है कि क्या अति-आधुनिकता को 'हैप्पीनेस' का विरोधी माना जाए...? इसका उत्तर हमें छठा स्थान प्राप्त करने वाले स्विरजरलैंड के समाज में मिल सकता है. खूबसूरत बर्फीले पहाड़ों वाला 80 लाख की आबादी वाला यह देश 'आत्महत्या' की समस्या से सबसे अधिक ग्रसित है. यह यहां की राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है. यह सोचा ही जाना चाहिए कि जिस देश के नागरिकों में जीने की इच्छा ही मर रही हो, वहां खुशी जीवित कैसे रह सकती है...?
सच यह है कि खुशहाली की यह अवधारणा पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था एवं विकसित राष्ट्रों की गुलाम बन चुकी है, जो दुनिया के सामने हैप्पीनेस का छद्म स्वरूप प्रस्तुत कर अपनी उपनिवेशवादी मानसिकता का नया प्रमाण प्रस्तुत कर रही है. यह अपने ही यहां के सुकरात, प्लेटो एवं अरस्तू जैसे प्राचीन दार्शनिकों के मूलभूत सिद्धांतों को दरकिनार कर एडम स्मिथ, मैकियावेली तथा रिकार्डो जैसों के सिद्धांतों को प्रतिपादित करने की कोशिश कर रहे हैं. भारत जैसे विकासशील देशों को इन धनी राष्ट्रों की इस चाल से सतर्क रहने की ज़रूरत है. यदि पाकिस्तान 67वें और चीन 93वें स्थान पर है, तो भारत 140वें पर कैसे हो सकता है, क्या इसके ठोस यथार्थवादी उत्तर हैं...?
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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