अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 19 सितंबर 2025 को एक ऐसा निर्णय लिया जिसने भारत और अमेरिका में गहरी हलचल पैदा कर दी. H-1B वीजा, जो दशकों से भारतीय प्रतिभा को अमेरिका ले जाने का सबसे बड़ा मार्ग रहा है, उस पर अब एक लाख डॉलर की भारी-भरकम फीस लगा दी गई है. यह कदम न केवल आर्थिक दृष्टि से, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक दृष्टि से भी ऐतिहासिक महत्व रखता है.
अमेरिकी राजनीति में प्रवास और रोजगार हमेशा से विवादास्पद मुद्दे रहे हैं. H-1B वीजा का सवाल विशेष रूप से संवेदनशील है, क्योंकि इसके जरिए विदेशी पेशेवर अमेरिकी नौकरी बाजार में प्रवेश करते हैं. ट्रंप की 'अमेरिका फर्स्ट' नीति लंबे समय से यह प्रचार करती रही है कि विदेशी श्रमिक अमेरिकी नागरिकों की नौकरियां छीन रहे हैं और वेतन स्तर को नीचे ला रहे हैं. यही कारण है कि ट्रंप समर्थक तबके के लिए यह फीस बढ़ोतरी एक सख्त और राष्ट्रवादी निर्णय का प्रतीक है. दूसरी ओर, अमेरिका की टेक्नोलॉजी कंपनियां और विश्वविद्यालयी जगत इसे खुद पर हमला मान रहा है. सिलिकॉन वैली जैसे नवाचार केंद्रों का तर्क है कि यदि वैश्विक प्रतिभा का प्रवाह महंगा और कठिन बना दिया जाएगा, तो अमेरिका अपनी प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त खो देगा. एक ऐसे समय में जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), क्वांटम कंप्यूटिंग और बायोटेक्नोलॉजी में तेजी से दौड़ लगा रही है, अमेरिका अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है. इस प्रकार, यह नीति अमेरिका के भीतर दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों को सामने ले आई है- एक तरफ घरेलू मतदाता राजनीति, दूसरी तरफ वैश्विक प्रतिस्पर्धा.
अब भारतीय सपने का क्या होगा
भारत में प्रतिक्रिया बेहद तीखी और भावनात्मक रही. इसका कारण सरल है- हर साल मिलने वाले H-1B वीजाओं में से करीब तीन-चौथाई भारतीयों के पास जाते हैं. इन वीजाओं ने लाखों भारतीय इंजीनियरों, वैज्ञानिकों और प्रबंधकों को अमेरिकी सपने तक पहुंचाया है. भारतीय समाज में यह केवल रोजगार का सवाल नहीं बल्कि मध्यवर्गीय आकांक्षाओं का प्रतीक है. अचानक आई इतनी बड़ी फीस ने उस सपने को धुंधला कर दिया है. भारतीय आईटी कंपनियां भी संकट में हैं. टाटा कंसल्टेंसी, इन्फोसिस, विप्रो जैसी कंपनियां लंबे समय से अपने कर्मचारियों को अमेरिकी ग्राहकों के पास भेजती रही हैं. अब उन्हें हर कर्मचारी पर लाखों रुपये का अतिरिक्त बोझ उठाना होगा. इसका असर उनके कारोबारी मॉडल पर पड़ेगा और संभव है कि वे अधिक परियोजनाएं भारत या अन्य देशों में स्थानांतरित करें. सामाजिक स्तर पर भी यह निर्णय भारतीय प्रवासी समुदाय में असुरक्षा की भावना बढ़ा रहा है. जो परिवार अमेरिका में बसे हैं, वे चिंतित हैं कि भविष्य में उनके बच्चों या रिश्तेदारों को अब वैसा अवसर नहीं मिलेगा. भारत सरकार भी कूटनीतिक दबाव में है; उसे अपने नागरिकों की रक्षा करनी है, लेकिन अमेरिका से टकराव भी नहीं मोल लेना चाहती.
किस कंपनी को कितने एच1बी वीजा
क्रम संख्या | कंपनी | एच1बी वीजा |
1 | अमेजन | 10,044 |
2 | टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज | 5505 |
3 | माइक्रोसाफ्ट | 5189 |
4 | मेटा | 5123 |
5 | ऐपल | 42.2 |
6 | गूगल | 4181 |
7 | डेलाइट | 2353 |
8 | इंफोसिस | 2004 |
9 | विप्रो | 1523 |
10 | टेक महिंद्रा अमेरिका | 951 |
(अमेरिकी नागरिकता और आव्रजन सेवाओं (यूएससीआईएस) के जून 2025 तक के आंकड़े)
ट्रंप ने इस कदम को 'अमेरिकी कामगारों की रक्षा' के लिए जरूरी बताया. उनके शब्दों में, ''हमें महान कामगार चाहिए, और यह फीस तय करेगी कि केवल वही लोग आएंगे जो सचमुच असाधारण हैं.'' ट्रंप का मानना है कि वीजा प्रणाली का दुरुपयोग हुआ है और आउटसोर्सिंग कंपनियों ने सस्ते श्रमिकों के जरिए अमेरिकी कर्मचारियों की नौकरियां छीनी हैं. यह तर्क नया नहीं है. साल 2016 में राष्ट्रपति बनने के बाद से ही ट्रंप H-1B पर सख्त नियंत्रण की बात करते रहे हैं. साल 2025 में उन्होंने इस मुद्दे को और आक्रामक रूप से उठाया है, क्योंकि यह उनके समर्थन आधार- खासकर मध्यम वर्गीय अमेरिकी श्रमिकों के लिए भावनात्मक और राजनीतिक महत्व रखता है. साथ ही, इस भारी फीस से अमेरिकी खजाने को भी अरबों डॉलर मिलने की उम्मीद जताई जा रही है. लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह नीति संकीर्ण राष्ट्रवाद की उपज है, जो अमेरिका की दीर्घकालिक आर्थिक शक्ति को नुकसान पहुंचाएगी. यह केवल अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए उठाया गया कदम है, जिसका खमियाजा आने वाली पीढ़ियों को उठाना होगा.
कहां होगा भारतीय प्रतिभाओं का नया ठिकाना
पहला असर मौजूदा H-1B धारकों पर पड़ा. घोषणा के तुरंत बाद अफरा-तफरी मच गई. कई भारतीय वीजा धारक अमेरिका लौटने के लिए हवाई अड्डों पर उमड़ पड़े, उन्हें डर था कि नई फीस उनसे भी वसूली जाएगी. बाद में यह स्पष्ट किया गया कि यह नियम केवल नए आवेदनों पर ही लागू होगा. फिर भी, अनिश्चितता बनी हुई है. नए आवेदकों के लिए स्थिति और कठिन है. अब केवल वही उम्मीदवार चुने जाएंगे जिन पर बड़ी कंपनियां लाखों डॉलर खर्च करने को तैयार होंगी. इससे छोटे स्टार्टअप्स या मध्यम स्तर की कंपनियों के लिए विदेशी प्रतिभा लाना लगभग असंभव हो जाएगा. परिणामस्वरूप, भारतीय युवाओं के लिए अमेरिकी करियर की संभावना लगभग असाध्य बन जाएगी.
इसका एक और पहलू यह है कि कई भारतीय पेशेवर अब कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप का रुख करेंगे, जहां वीजा नीतियां अपेक्षाकृत सहज हैं. कुछ लोग भारत में ही रहकर नवाचार और उद्यमिता को आगे बढ़ाएंगे. इसे कुछ लोग 'ब्रेन गेन' कह रहे हैं- यानी वह प्रतिभा जो पहले बाहर जाती थी, अब देश के विकास में योगदान देगी.
H-1B वीजा लंबे समय से भारत-अमेरिका साझेदारी का जीवंत प्रतीक रहा है. 1990 के दशक से लेकर आज तक, लाखों भारतीयों ने इस वीजा के जरिए अमेरिका जाकर न केवल अपने जीवन को बदला बल्कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था और संस्कृति को भी समृद्ध किया है. गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों के भारतीय मूल के सीईओ इसी प्रवासी धारा के प्रतीक हैं. लेकिन आज यह सेतु कमजोर पड़ता दिख रहा है. भारत और अमेरिका पिछले एक दशक में रक्षा, रणनीति और इंडो-पैसिफिक सहयोग में करीब आए हैं, परंतु इस वीजा संकट ने उस भरोसे पर चोट पहुंचाई है. भारत के लिए यह कठिन स्थिति है. एक ओर वह अमेरिका को रणनीतिक साझेदार मानता है, दूसरी ओर उसे अपने नागरिकों की आकांक्षाओं की रक्षा करनी है. यदि यह नीति लंबे समय तक कायम रहती है, तो भारत के भीतर अमेरिका की छवि प्रभावित होगी. मध्यमवर्गीय परिवार, जो बच्चों को अमेरिका पढ़ने और काम करने भेजना चाहते थे, अब निराश होंगे. इससे अमेरिका की सॉफ्ट पावर भी कमजोर होगी. वहीं, भारत सरकार को भी अपने युवाओं को यह संदेश देना होगा कि वैश्विक अवसर केवल अमेरिका तक सीमित नहीं हैं.
अमेरिकी राजनीति की दिशा
आगे का रास्ता इस बात पर निर्भर करेगा कि अमेरिकी राजनीति किस ओर मुड़ती है. यदि ट्रंप का यह निर्णय अदालतों या कांग्रेस में चुनौती पाता है, तो संभावना है कि इसमें ढील दी जाए. यदि आने वाले सालों में प्रशासन बदलता है, तो नई सरकार इसे पलट भी सकती है. लेकिन यदि यह शुल्क स्थायी हो गया, तो भारत-अमेरिका संबंधों में प्रतिभा प्रवाह का अध्याय धीमा पड़ जाएगा. इस परिदृश्य में भारत को अपनी रणनीति बदलनी होगी. देश को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके वैज्ञानिक, इंजीनियर और नवोन्मेषक भारत में ही विश्वस्तरीय अवसर पाएं. स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसी योजनाओं को और मजबूत बनाकर भारत इस चुनौती को अवसर में बदल सकता है.
H-1B वीजा पर यह ऐतिहासिक शुल्क वृद्धि केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, बल्कि यह भारत-अमेरिका संबंधों की जीवनरेखा पर चोट है. यह हमें याद दिलाती है कि कूटनीतिक साझेदारी केवल समझौतों और घोषणाओं से नहीं, बल्कि लोगों की आकांक्षाओं और गतिशीलताओं से बनती है. अमेरिका को यह सोचना होगा कि क्या वह अल्पकालिक राजनीति के लिए अपनी दीर्घकालिक वैश्विक नेतृत्व क्षमता दांव पर लगाना चाहता है. भारत को भी यह समझना होगा कि वैश्विक शक्ति बनने के लिए उसे अब दूसरों पर निर्भर रहने के बजाय अपनी ही धरती पर अवसर पैदा करने होंगे.
आखिरकार, भारत-अमेरिका संबंधों की असली ताकत उन लाखों लोगों में है, जिन्होंने इस रिश्ते को जीवित और गतिशील रखा है. यदि उन लोगों की आकांक्षाएं दम तोड़ देती हैं, तो दोनों देशों के बीच की दूरी बढ़ सकती है. यह क्षण एक परीक्षा है, अमेरिका की उदारता की, भारत की आत्मनिर्भरता की और दोनों की साझेदारी की स्थिरता की. आने वाले सालों में यह देखा जाएगा कि क्या यह संबंध इस झटके को पार कर और मजबूत होकर उभरता है या फिर इतिहास इसे एक ऐसे मोड़ के रूप में याद करेगा, जहां दो करीबी साझेदार अलग रास्तों पर निकल पड़े.
डिस्क्लेमर: लेखक द इंडियन फ्यूचर्स थिंक टैंक के संस्थापक और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.