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सचमुच चले गए धर्मेंद्र, लेकिन सचमुच बने रहेंगे

प्रियदर्शन
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 24, 2025 15:04 pm IST
    • Published On नवंबर 24, 2025 14:49 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2025 15:04 pm IST
सचमुच चले गए धर्मेंद्र, लेकिन सचमुच बने रहेंगे

धर्मेंद्र के सबसे मशहूर फिल्मी दृश्यों में 'शोले' का वह दृश्य है जिसमें वे टंकी पर चढ़े हुए हैं. दृश्य के अंत में कहते हैं- गांव वालों मरना कैंसिल.

जीवन में भी धर्मेंद्र जैसे अपना मरना कैंसिल करते रहे. मौत उनके सिरहाने आ-आ कर लौटती रही. कई बार अस्पताल गए, लेकिन लौट आए. इसी महीने उनकी मौत की ख़बरें चल पड़ीं. लेकिन पता चला कि उनकी सांसें अब भी चल रही हैं. अंततः सोमवार को इन सांसों ने उनका साथ छोड़ दिया. वैसे तो मृत्यु हर हाल में शोक का विषय होती है, लेकिन धर्मेंद्र जिस तरह का भरा-पूरा जीवन जीकर गए,उसे याद करते हुए कहा जा सकता है कि उन्होंने छक कर अपनी ज़िंदगी जी. 

उनका फिल्मी करिअर इतना लंबा चला कि वे दादा और पोते दोनों के ज़माने में नायक बनते नज़र आए. इस दौरान उन्होंने इतनी हिट फिल्में दीं, इतनी पीढ़ियों को अपना दीवाना बनाया कि उनकी बराबरी नहीं की जा सकती. यह सच है कि अलग-अलग दौर के अलग-अलग सितारे रहे- कभी राजेश खन्ना तो कभी अमिताभ बच्चन, लेकिन धर्मेंद्र दोनों को लगभग बराबरी की टक्कर देते रहे. 

धर्मेंद्र की पहली फिल्म कौन थी

लेकिन धर्मेंद्र के लिए यह सफ़र आसान नहीं रहा. जब वे आए, तब दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर की त्रिमूर्ति अपने शिखर पर थी. 1960 में धर्मेंद्र की पहली फिल्म आई- 'दिल भी तेरा हम भी तेरे'. यह वही साल था जब भारत की सबसे कामयाब फिल्मों में एक 'मुगले आज़म' आई थी. इसके एक साल बाद गंगा नाम वाली दो फिल्में आईं- राज कपूर की 'जिस देश में गंगा बहती है' और दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना'. इसके चार साल बाद देव आनंद की 'गाइड' आई. इसके अलावा शम्मी कपूर की 'तुम सा नहीं देखा' और 'जंगली' जैसी फिल्में इसी दौर में आईं और राजेंद्र कुमार इसी समय जुबली कुमार हुए जा रहे थे.

धर्मेंद्र ने इतनी हिट फिल्में दीं, इतनी पीढ़ियों को अपना दीवाना बनाया कि उनकी बराबरी नहीं की जा सकती.

धर्मेंद्र ने इतनी हिट फिल्में दीं, इतनी पीढ़ियों को अपना दीवाना बनाया कि उनकी बराबरी नहीं की जा सकती.

इन सब फिल्मों की याद दिलाने का मक़सद इस बात की ओर ध्यान खींचना है कि धर्मेंद्र कितने लंबे समय तक बने रहे. जब दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर ढल गए, जब शम्मी कपूर और राजेंद्र अपनी चमक और धमक दिखाकर गुम हो गए, जब इन सबके बाद राजेश खन्ना किसी धूमकेतु की तरह चमके और फिर अमिताभ बच्चन शहंशाह के तौर पर उभरे, यहां तक शाह रुख़, आमिर और सलमान सुपर स्टार बने, तब भी धर्मेंद्र का जलवा चलता रहा. उनकी कई फिल्मों के नाम तो लगता है जैसे उनके ही या उनके किरदारों के नाम पर ही रखे जाते रहे. और तो और, ऋतिक रोशन और रणवीर कपूर आ गए, लेकिन धर्मेंद्र 'जॉनी गद्दार' जैसी फिल्मों के साथ हिट होते रहे. अभी दिसंबर में भी उनकी एक फिल्म 'इक्कीस' आने वाली है, जिसका पोस्टर इत्तिफ़ाक से आज ही जारी किया गया है. कह सकते हैं कि अमिताभ की दूसरी पारी को छोड़ दें तो सात दशकों में पसरी ऐसी निरंतरता किसी दूसरे कलाकार में दिखाई नहीं पड़ती.

सुंदर-सजीला नौजवान

निस्संदेह उनका बेहतरीन दौर सत्तर और अस्सी के दशकों का रहा. वे ऐसे सुंदर-सजीले नौजवान थे जिनसे देव आनंद और दिलीप कुमार जैसे अभिनेता तक रश्क करते बताए जाते थे. लेकिन आम दर्शकों के बीच धर्मेंद्र की लोकप्रियता का राज़ क्या था? याद कर सकते हैं कि वह छोटे शहरों, क़स्बों और गांवों वाला भारत था जिसमें साहस, नैतिकता और बहादुरी का अलग मोल माना जाता था. धर्मेंद्र की छवि लगभग यही रही.'ही मैन' जैसा शब्द अंग्रेज़ी मीडिया का दिया हुआ था जिसका ठीक-ठीक मतलब हिंदी के दर्शकों को तब क्या, अब भी समझ में नहीं आता होगा, लेकिन धर्मेंद्र के उस नायकत्व के सब मुरीद थे, जिसमें वे रोमांस भी कर लेते थे और फाइटिंग भी, कॉमेडी भी कर लेते थे और गुस्सा भी, दोस्ती भी कर लेते थे और दुश्मनी भी, जासूस भी बन जाते थे और मुजरिम भी. 

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यह सच है कि धर्मेंद्र कभी महानतम अभिनेताओं में नहीं गिने गए, लेकिन उन्होंने भूमिकाएं तरह-तरह की कीं. उनका चेहरा शराफ़त से शरारत तक का सफ़र बड़ी आसानी से तय कर लेता था. यह महज इत्तिफ़ाक नहीं कि उनकी एक फिल्म का नाम अगर 'शराफ़त' रहा तो दूसरी फिल्म का नाम 'लोफर. वे शहजादे भी बन सकते हैं और गुलाम भी. 'धर्मवीर' का राजसी भव्य अंदाज़ एक तरफ़ था तो 'रजिया सुल्तान' का गुलाम दूसरी तरफ़. हालांकि कहते हैं कि इस फिल्म में उनके चेहरे पर जो काला रंग लगाया गया था, वह कमाल अमरोही का एक तरह का प्रतिशोध था- कभी मीना कुमारी से उनके क़रीबी रिश्तों की चर्चा का. लेकिन यह सच है कि इस काले रंग ने कमाल अमरोही की फिल्म का ही रंग कुछ बिगाड़ा. ये इकलौती फिल्म होगी जिसमें धर्मेंद्र अपने सहज-स्वाभाविक रूप में नजर नहीं आए. वरना वे सहज अभिनेता थे. उनके चेहरे पर, उनकी आंखों में भाव बहुत आसानी से आते-जाते थे. उनकी संवाद अदायगी का दायरा काफी बड़ा था. वे प्रोफ़ेसर के रूप में अलग तरह की हिंदी बोलते नजर आते थे, बदमाश के रूप में अलग तरह की. अमिताभ बच्चन अपनी अच्छी हिंदी के लिए मशहूर रहे, लेकिन यह सच है कि उस पीढ़ी के बहुत सारे कलाकार अच्छी हिंदी बोलते थे. जाहिर है, लुधियाना के एक गांव से आए धर्मेंद्र ने इसके लिए ख़ासी मेहनत की होगी.

परिवार ने क्यों नहीं की मौत की घोषणा

सात दशक तक फिल्मों के आसमान पर चमकने वाला सितारा चुपचाप निकल गया.

सात दशक तक फिल्मों के आसमान पर चमकने वाला सितारा चुपचाप निकल गया.

हालांकि उनका अंतिम दौर शायद एक ट्रैजिक फिल्म जैसा रहा. जो भरा-पूरा जीवन वे जीते रहे, उसमें आख़िरी दिनों में उनके हिस्से अकेलापन ही आया. बताया जाता है कि वे अपने फॉर्म हाउस में अकेले रहते थे. बीते दिनों जब उनकी मृत्यु की खबर चल पड़ी तो परिवार ने उचित ही बहुत सख़्ती से इसका खंडन किया. लेकिन आज जब क़ायदे से धर्मेंद्र के निधन की घोषणा की जानी थी, तब मीडिया को बिल्कुल अटकल लगाने के लिए छोड़ दिया गया. सुबह जब परिजनों के उनके घर पहुंचने की ख़बर आने लगी, तब मीडिया चौकन्ना हुआ.और तो और- श्मशान घाट में परिवार के लोग पहुंच गए, फिल्मी दुनिया के सितारे पहुंच गए, लेकिन परिवार ने इस बात की परवाह नहीं की कि मीडिया या आम लोगों को इसकी ख़बर दी जाए. मीडिया को अनुमान लगाना पड़ा कि  उनके प्रिय कलाकार धर्मेंद्र नहीं रहे. लेकिन क्या धर्मेंद्र जैसा बड़ा कलाकार ऐसी अंतिम विदाई का हक़दार था? क्या क़ायदे से परिवार को इसकी घोषणा नहीं करनी चाहिए थी? जिन लोगों की दीवानगी ने धर्मेंद्र को धर्मेंद्र बनाया, जिन्होंने उनके साथ बरसों-बरस काम किया, क्या उन्हें धर्मेंद्र के अंतिम दर्शन का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए था? ये अंतिम विदाई किसी शानदार फिल्म के बहुत ख़राब अंत जैसी लग रही है. सात दशक तक फिल्मों के आसमान पर चमकने वाला सितारा जैसे चुपचाप निकल गया.

यह सच है कि धर्मेंद्र के युग का अंत पहले ही हो चुका था. लेकिन उनके निधन से नए सिरे से यह बात याद आ रही है कि एक युग उनका भी था- और हिंदी फिल्मों का इतिहास जब-जब लिखा जाएगा, धर्मेंद्र को बिल्कुल प्रथम पंक्ति में रखा जाएगा. 

डिस्क्लेमर: लेखक एनडीटीवी इंडिया के सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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