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प्रियदर्शन

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    साल 2025 का शब्द पैरासोशल- कितना सोशल कितना ऐंटी सोशल?

    कैंब्रिज डिक्शनरी ने मंगलवार को घोषणा की कि ‘पैरासोशल‘ को ‘वर्ड ऑफ द ईयर-2025’ घोषित किया गया है जिसका अभिप्राय होता है कि व्यक्ति किसी ऐसे प्रसिद्ध व्यक्ति के साथ जुड़ाव या उससे संबंधित होना महससू करता है, जिसे वह नहीं जानता.

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    बिहार में मंडल और कमंडल का मेल, नीतीश-मोदी ने कैसे किया ये सियासी खेल

    बिहार चुनाव का एक संदेश ये है कि 30 बरस पहले लालू यादव ने सामाजिक न्याय की राजनीति का जो मुहावरा बनाया था, वह अब नहीं चलने वाला है. यादव-मुसलमान वाले एमवाई जैसे समीकरणों की काट भी खोजी जा चुकी है.

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    JNU में हो रहा है दोस्तोएव्स्की की White Nights पर आधारित नाटक 'चांदनी रातें' का मंचन

    रूस और भारत के 500 लेखक-कलाकार और बुद्धिजीवी 3 दिन के आयोजन में जुटेंगे.

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    धर्मेंद्र को जीते-जी मार डाला! शर्म मीडिया को मगर नहीं आती

    धर्मेंद्र पर लौटें. यह सच है कि वे अरसे से बीमार हैं. बीच-बीच में अस्पताल भी जाते रहे हैं. लेकिन यह भी सच है कि इस उम्र में वे फिल्में भी करते रहे हैं. इस साल दिसंबर में भी उनकी एक फिल्म आने वाली है.

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    आधी रात को जब दुनिया सो रही थी, हिंदुस्तान की लड़कियां जश्न मना रही थीं

    ये नई लड़कियां अपनी ही नहीं, नए हिंदुस्तान की कहानी भी लिख रही हैं. वे बदल रही हैं और लड़कों को बदलने को मजबूर कर रही हैं. ऐसा नहीं कि ये उपलब्धियां किसी शून्य से अचानक आ गई हैं. अलग-अलग खेलों में ये लड़कियां कमाल कर रही हैं.

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    दम मारो दम! गॉडफादर टु ब्राजील, ड्रग्स की काली-अंधेरी दुनिया की कहानी

    ड्रग्स का संसार बड़ा होता जा रहा है. ब्राजील के रियो में ड्रग्स कार्टेल पर कार्रवाई तो बस एक इशारा भर है. नशे के इस कारोबार की कहानी...

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    किस बात का नशा? हम एक बीमार समाज तो नहीं बना रहे हैं?

    भारत में भी ड्रग्स का यह संसार और कारोबार बड़ा होता जा रहा है- इसके प्रमाण बहुत सारे हैं. पंजाब में तो इसने एक महामारी जैसा रूप ले लिया था. बीच-बीच में तमाम विश्वविद्यालयों के आसपास ड्रग्स के धंधे की चिंताजनक ख़बरें आती रही हैं.

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    अथ श्री जननायक कथा: गांधी इसलिए जननायक नहीं, महात्मा कहलाए

    बिहार में पिछड़ी राजनीति कर्पूरी ठाकुर को जननायक मानती रही. अब तो सब मानने लगे हैं, लेकिन एक दौर में उनकी पिछड़ी जाति को लेकर मज़ाक उड़ाया जाता रहा, तुकबंदियां की जाती रहीं.

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    जातिवाद ज्यादा खतरनाक है या सांप्रदायिकता?

    नीतीश ने भी लालू यादव के मंडल की काट में जो राजनीति विकसित की, वह जातिगत अस्मिताओं को मज़बूत करने वाली ही थी. उन्होंने बस यह किया कि मंडल के कुछ और टुकड़े कर डाले. पिछड़ों में अतिपिछड़े और दलितों में महादलित खोज निकाले. मुसलमानों में भी अशरफ़ और पसमांदा मुसलमान का फ़र्क किया गया.

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    विराट की विदाई का गीत गाने वालो, क्या आप यह सब भूल गए!

    यह 1983 का साल था, जब सुनील गावस्कर को सलाह दी जाने लगी कि वे क्रिकेट से संन्यास ले लें. 1983 के विश्व कप में भारत के हाथों पराजित और घायल क्लाइव लायड की वेस्ट इंडियन टीम बिल्कुल बदला लेने के इरादे से पांच टेस्ट खेलने भारत आई थी.

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    विज्ञापनों की दुनिया रचने वाला खामोशी से चला गया

    आई तो बाद में बहन की रुलाई जैसी पोस्ट आई- एक्स पर इला अरुण की- कि भाई नहीं रहा. उन्होंने याद किया कि इस राखी पर जब गोवा में बड़े भाई को ऑनलाइन राखी भेजने की सारी कोशिशें नाकाम हो गईं तो उनकी दोस्त क्रिस्टीना ने उनकी ओर से राखी खरीदी और पीयूष पांडे की कलाई पर बांधी.

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    गुरुदत्त की वह दास्तान, जिसमें रोशनी और अंधेरा साथ-साथ चलते रहे

    शुरुआती संघर्ष का दौर बीतने के बाद 'बाजी' के साथ गुरुदत्त जो नई शुरुआत करते हैं, उससे कई कामयाब फिल्मों का सिलसिला बनता है- ऐसी फिल्मों का जो आम लोगों को भी रास आती हैं और शास्त्रीय सिनेमा की शर्तों को भी पूरा करती हैं. हालांकि गुरुदत्त की कामयाबियों के समानांतर एक कहानी नाकामी की भी है.

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    पंकज धीर चले गए, सबको महाभारत का कर्ण याद आया

    पंकज धीर चले गए. महाभारत का रौबीली मूंछों वाला कर्ण का वह किरदार फिर जिंदा हो गया. धीर ने कई रोल किए, लेकिन वह ताउम्र कर्ण ही रहे. पढ़िए कर्ण की कहानी...

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    बीकानेर हाउस में अशोक भौमिक की 'कलात्मक विरासत'... इन चित्रों में समय बोलता है

    मसलन सत्तर के दशक में बनाई गई एक पेंटिंग है जिसके बारे में वे कहते हैं कि यह इमरजेंसी के दौरान बनाई गई. अचानक आपातकाल के दौरान की विभीषिका और इंदिरा गांधी की उन दिनों की छवि इस चित्र में उजागर हो उठती है. उस दौर में श्वेत-श्याम चित्रों की एक पूरी शृंखला है जो अशोक भौमिक के तत्कालीन रुझानों का सुराग देती है.

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    35 साल में कोई अगड़ा सीएम नहीं.. बिहार में तो 'भूरा बाल साफ है'

    Bihar Elections: बिहार में भूरा बाल वह सफ़ाई है, जो लालू यादव ने बिना कुछ कहे कर डाली. क्योंकि अगर लालू यादव सत्तासीन नहीं हुए होते तो नीतीश का रास्ता भी नहीं बनता और जीतनराम मांझी के लिए भी गली नहीं खुलती.