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सपनों की उड़ान है भारत के अर्थव्यवस्था की रफ्तार

डॉ. समीर शेखर
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 15, 2025 13:46 pm IST
    • Published On अगस्त 15, 2025 13:17 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 15, 2025 13:46 pm IST
सपनों की उड़ान है भारत के अर्थव्यवस्था की रफ्तार

आज से 78 साल पहले, जब भारत को करीब 200 साल की अंग्रेजों की दासता से आजादी मिली थी, उस समय देश कई सारे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों और संकटों का सामना कर रहा था.वर्ष 1947 में मिली आजादी और बंटवारे के बाद तमाम व्यवस्थाएं बिखरी हुई थीं. देश का हर कोना औपनिवेशिक लूटपाट से त्रस्त था. ऐसे में देश को एक सूत्र में पिरोने की दिशा में कोई भी प्रयास आसान नहीं था. आर्थिक पहलू की बात करें तो भारत को कम उत्पादकता, खाद्य असुरक्षा और संस्थागत कमजोरी जैसी प्रमुख आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. वहीं करीब आठ दशक का सफर तय करते हुए भारत ने आज वैश्विक स्तर पर एक महाशक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाई है. हमने जापान जैसे तकनीकी प्रधान और विकसित देश को भी सकल घरेलू उत्पाद के मामले में पीछे छोड़ दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का गौरव हासिल किया है. हमारी यह पहचान और मजबूती आजादी से लेकर अब तक की सरकारों के विकासशील नीतियों और समग्र प्रयासों से ही बन पाई है. इन प्रयासों ने घरेलू मांग में वृद्धि, औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में विस्तार,मजबूत आर्थिक संरचनाओं और सतत आर्थिक सुधारों को सुनिश्चित किया. साल 1947 से भारत की आर्थिक यात्रा पर गौर करें तो एक कमजोर, बिखरी, कृषि-प्रधान, ऋणग्रस्त अर्थव्यवस्था से दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ते और सबसे प्रभावशाली बाजारों में से एक बनने तक का सफर तय किया है. 

भारत को अंग्रेजों से कैसी अर्थव्यवस्था मिली थी 

अगर हम आजादी के बाद से भारतीय आर्थिक विकास के कालक्रम पर नजर डालें, तो यह एक बिखरी हुई अर्थव्यवस्था से शुरू होता है, क्योंकि भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा एक बेहद कमजोर अर्थव्यवस्था विरासत में मिली थी. औपनिवेशिक काल में भारत की आर्थिक स्थिति में निरंतर ह्रास होता चला गया. 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में भारत का योगदान लगभग 16-25 फीसदी था. यह 1947 तक घटकर दो फीसदी से भी कम रह गया था. हालांकि औपनिवेशिक शासन के दौरान सकल घरेलू उत्पाद में मामूली वृद्धि हुई लेकिन वह वृद्धि कहीं से भी पर्याप्त नहीं थी. आर्थिक इतिहासकार एंगस मैडिसन ने लिखा है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत की प्रति व्यक्ति आय ब्रिटिश विकास के विपरीत स्थिर रही. ऐसे में एक कमजोर और बिखरी हुई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के बीच विकास के छोर को पकड़ना और राष्ट्र की प्रगति को सुनिश्चित करना बहुत बड़ी चुनौती थी.

स्वतंत्रता के प्रारंभिक काल में भारत ने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के नेतृत्व में एक मिश्रित, राज्य-संचालित विकास मॉडल अपनाया. योजना आयोग और नेहरू के औद्योगिक दृष्टिकोण के निर्देशन में कृषि, भारी उद्योग और बुनियादी ढांचे को प्राथमिकता दी गई. बाद के समय में भी सरकारों द्वारा नेहरूवादी दृष्टिकोण के अनुरूप समाजवादी विचारधारा को प्रधानता दी गई और आर्थिक ही नहीं बल्कि देश के सर्वांगीण विकास के मद्देनजर राज्य-प्रधान मॉडल निरंतरता को बनाये रखा गया. इसके तहत पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर भारी उद्योग, केंद्रीकृत नियंत्रण और आयात प्रतिस्थापन पर जोर दिया. व्यापक विनियामक वातावरण (लाइसेंस राज) के बावजूद, 1950 और 1964 के बीच वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में लगभग चार फीसदी सालान की वृद्धि हुई, जो औपनिवेशिक दरों की तुलना में उल्लेखनीय सुधार था, मगर यह विकास दर वैश्विक औसत से पीछे रही. कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत को अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र के विकास पर ध्यान केंद्रित करना पड़ा, विशेष रूप से कृषि क्षेत्र में विकास की आवश्यकता को बड़े पैमाने पर अनुभव किया गया. इसी क्रम में 1960 और 1970 के दशक के बीच, 'हरित क्रांति' ने गेहूं के उत्पादन को नाटकीय रूप से बढ़ाया. इसके साथ ही, 'ऑपरेशन फ्लड' ने डेयरी स्वायत्तता को उत्प्रेरित किया. इससे भारत दूध उत्पादन में वैश्विक नेतृत्व की ओर अग्रसर हुआ. हालांकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनके प्रभाव सीमित रहे. 

आर्थिक उदारीकरण का दौर

1980 के दशक के दौरान अर्थव्यवस्था में बढ़ते असंतुलन को दूर करने पर विशेष ध्यान दिया गया. इस वजह से औद्योगिक उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और 80 के दशक में जीडीपी विकास दर औसतन पांच-छह फीसदी रही. हालांकि बढ़ती आयात, मुद्रा का विनिमयन (डीरेगुलशन) और आर्थिक प्रयोगों ने देश के सामने 80 के दशक के उत्तरार्ध में विदेशी मुद्रा संकट को जन्म दिया. राजकोषीय घाटे में हुई वृद्धि,बढ़ते विदेशी ऋण और बढ़ते व्यापार घाटे के कारण विदेशी मुद्रा भंडार 1990-91 तक इतना गिर गया कि भारत मुश्किल से दो हफ्तों के आयात का खर्च उठा पाता. यही वह समय था जब पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने तत्कालीन वित्तमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की अगुआई में नई आर्थिक नीति, 1991 का निर्माण किया. नरसिम्हा राव सरकार ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी) को अपनाया.यह भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनरुत्थान के लिए वरदान साबित हुआ.

वैश्वीकरण ने विदेशी निवेश को आमंत्रित किया. इसके फलस्वरूप 1991 से 2025 के बीच एफडीआई में 613 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई, जबकि जीडीपी 266 बिलियन डॉलर (1991) से बढ़कर 2025  में 4.19 ट्रिलियन डॉलर हो गई. हाल के दशकों में भारत की आर्थिक उन्नति आश्चर्यजनक रही है. 2025 तक, भारत करीब 4.19 ट्रिलियन डॉलर के नाममात्र जीडीपी के साथ, जापान को पीछे छोड़ते हुए, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का अनुमान है.पीपीपी मानकों के मुताबिक यह करीब 17 ट्रिलियन डॉलर के जीडीपी के साथ, चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर है.

परिवर्तन का गवाह बनती भारत की अर्थव्यवस्था

साल 1947 से 2025 तक भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि, सेवा और औद्योगिक क्षेत्रों की यात्रा बड़े परिवर्तन की गवाह रही है. स्वतंत्रता के समय 1950 में GDP में कृषि का हिस्सा लगभग 51 फीसदी था, जो 2025 में घटकर 16-17 फीसदी पर आ गया. यह गिरावट कृषि उत्पादन में कमी के कारण नहीं, बल्कि सेवा और उद्योग के तेजी से बढ़ने के कारण हुई है. हरित क्रांति (1960-70) ने खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता दिलाई, लेकिन रोजगार और आय में वृद्धि सीमित रही. औद्योगिक क्षेत्र का योगदान 1950 के 13 फीसदी से बढ़कर 2025 में लगभग 25-26 फीसदी हो गया. इसमें विनिर्माण, ऑटोमोबाइल, स्टील और फार्मास्युटिकल जैसे क्षेत्रों ने अहम भूमिका निभाई. सेवा क्षेत्र ने सबसे तेज वृद्धि दर्ज की 1950 में 30 फीसदी हिस्सेदारी से बढ़कर 2025 में 55-57 फीसदी तक, विशेषकर IT, वित्त, दूरसंचार, पर्यटन और स्वास्थ्य सेवाओं के चलते. साल 1991 के आर्थिक उदारीकरण, विदेशी निवेश और डिजिटल क्रांति ने सेवा और उद्योग को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया. आज भारत कृषि उत्पादन में विश्व के शीर्ष देशों में है. औद्योगिक उत्पादन विविध और वैश्विक स्तर का हो चुका है और सेवा क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में अग्रणी बनकर देश की आर्थिक रीढ़ का काम कर रहा है.

आजादी से लेकर अब तक भारत की आर्थिक यात्रा में केंद्रीय नियोजन, संकट-जनित सुधार, मजबूत वैश्विक पुनर्एकीकरण और डिजिटल परिवर्तन जैसे विविध चरणों से चिह्नित उल्लेखनीय रही है. आज यह अपनी जनसंख्या के आकार, शिक्षा, अनुसंधान, विज्ञान और तकनीकी सामर्थ्य और सेवा क्षेत्र की मजबूती के बल पर वैश्विक दिग्गजों के बीच महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इसके बाद भी हमारे आर्थिक सफलता की कहानी संरचनात्मक कमजोरी, आर्थिक व क्षेत्रीय असमानताओं, विनिर्माण क्षेत्र में ठहराव,सार्वजनिक संशयवाद और राष्ट्रीय विकास आदि में व्यक्तिगत भागीदारी को सुनिश्चित किए बिना अधूरी है.भारत की आर्थिक परिपक्वता का सही मापदंड यह सुनिश्चित करने में निहित होगा कि इसके उत्थान को केवल प्रमुख आंकड़ों तक ही सीमित न रखा जाए,बल्कि व्यापक रूप से साझा किया जाए. 

कैसी होनी चाहिए आगे की राह

एक महत्वाकांक्षी आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत अब एक दोराहे पर खड़ा है, जहां एक तरफ सवाल है कि क्या भारत को ऐसे आर्थिक मॉडल का अनुशरण करना चाहिए जो आर्थिक विकास का लाभ सभी वर्गों, क्षेत्रों और समुदायों तक पहुंचाने पर बल देता हो जिसमें रोजगार सृजन,गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचा और सामाजिक न्याय शामिल हैं, ताकि ग्रामीण-शहरी, अमीर-गरीब और विभिन्न राज्यों के बीच का अंतर कम हो. या दूसरी तरफ क्षेत्र विशेष आधारित विभाजित भविष्य का जोखिम उठाए जो भारत को एक विश्व पटल पर विशेषज्ञता की पहचान तो दिलाएगा साथ ही आय में असमानता, सामाजिक असंतोष और क्षेत्रीय असंतुलन भी पैदा कर सकता है. इससे आर्थिक व सामाजिक स्थिरता पर नकारात्मक असर पड़ेगा और भारत की वैश्विक आर्थिक शक्ति बनने की क्षमता कमजोर होगी. अगर हमें वाकई वैश्विक परिदृश्य में महाशक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित करना है तो हमे आर्थिक प्रगति के संतुलित और समावेशित ढांचे को अपनाना और निष्पादित करना होगा. इससे हमारी अर्थव्यवस्था आतंरिक और बाह्य रूप से मजबूत हो सके. भारत ने 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का जो सपना देखा है उसका साकार होना इसी संतुलित सतत और समावेशी विकास क्रम पर निर्भर करेगा. इसके लिए जरूरी है कि अलग-अलग व्यक्तिगत और राजनीतिक विचारधारा से होने के बावजूद भी हम एक लक्ष्य की दिशा में एकीकृत और सामूहिक प्रयास करें. हमारा यही प्रयास देश के लिए मर-मिटने वाले शहीदों व देशभक्तों के सपनों के भारत के निर्माण की दिशा में कारगर साबित होगा. 

अस्वीकरण: लेखक ओडिशा के भुबनेश्वर स्थित कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी में अंतरराष्ट्रीय व्यापार और विपणन पढ़ाते हैं.  इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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