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'ये मन बंजारा रे' : उत्तराखंड के पहाड़, समाज और स्वयं की यात्रा

Himanshu Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 18, 2025 16:13 pm IST
    • Published On जुलाई 18, 2025 15:42 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 18, 2025 16:13 pm IST
'ये मन बंजारा रे' : उत्तराखंड के पहाड़, समाज और स्वयं की यात्रा

संभावना प्रकाशन से आई किताब 'ये मन बंजारा रे' केवल एक यात्रा वृत्तांत नहीं, बल्कि समाज, पर्यावरण और स्वयं को समझने की यात्रा है. गीता गैरोला ने प्राकृतिक सौंदर्य, सामाजिक जटिलताओं, स्त्री चेतना और सांस्कृतिक विरासत को संवेदनशीलता के साथ पिरोया है. यह किताब पाठकों को हिमालय की ऊंचाइयों से लेकर सामाजिक गहराइयों तक ले जाती है और उनकी सोच को नई दिशा देती है. यह एक ऐसी रचना है, जो यात्रा को न केवल स्थानों, बल्कि समाज और आत्मा की खोज का माध्यम बनाती है.

सामाजिक ढांचे पर सवाल और स्त्री चेतना

गीता गैरोला अपनी टिप्पणियों में पितृसत्तात्मक समाज की विसंगतियों को उजागर करती हैं. किताब के आरंभ में वह लिखती हैं, 'मैं उन सब में बड़ी शादीशुदा होने की सामाजिक सुरक्षा वाले हथियार से लैस थी.' यह कथन महिलाओं के लिए प्रतीकात्मक 'सुरक्षा कवच' की विडंबना को दर्शाता है, जो आज़ादी के साथ बंधनों को भी लाता है. वह आगे लिखती हैं, 'नन्दा भी तो औरत ही है, माई जी और औरत होने के नाते उसको भी जरूर माहवारी होती होगी. एक औरत का इतना सम्मान और दूसरी तरफ जीती जागती औरतों के लिए यात्रा को वर्जित करना कहाँ का न्याय है.' यह धार्मिक और सामाजिक ढांचे की दोहरी मानसिकता को रेखांकित करता है. लेखिका की यह संवेदनशील दृष्टि किताब को स्त्री चेतना का एक सशक्त दस्तावेज बनाती है.

पहाड़ के संसाधनों और आत्मनिर्भरता का प्रश्न

किताब पहाड़ी संसाधनों के उपयोग की चुनौतियों को भी उजागर करती है. पृष्ठ 16 पर गीता गैरोला ने लिखा है, 'अरे भूली कौन आता है यहाँ माल्टे खरीदने.' वह बताती हैं कि उद्यान विभाग द्वारा फलों से जूस और अचार बनाने की जानकारी होने के बावजूद स्थानीय दुकानदार इससे अनजान हैं. यह नीति-निर्माण और स्थानीय विकास के बीच की दूरी को दर्शाता है. किताब पहाड़ की आर्थिक आत्मनिर्भरता के सवाल को भी मजबूती से उठाती है, जो पाठकों को स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग पर सोचने को विवश करता है.

स्त्रियों का सामर्थ्य और समर्थन

गीता गैरोला ने किताब में हिमालयी यात्राओं का सजीव चित्रण किया है. पृष्ठ 21 पर उन्होंने लिखा है, 'गर्म कपड़े, कैमरे के सेल, दो जोड़ी मोजे, विंडचिटर, टोपी, कुछ बेसिक दवाइयां, बोरोलीन, पानी का गिलास वाला फिल्टर, सुई धागे की रील, एक बड़ी पॉलीथिन शीट और एक डिबिया में नमक, सब चीजें याद कर के पिट्ठू में रख दी.' यह विवरण हिमालय भ्रमण के लिए एक गाइड की तरह है. वह लिखती हैं, 'चढ़ाई चढ़ने के साथ सूरज हिम श्रृंखलाओं को अपनी लाली से रंगने लगा था. यह अक्टूबर का महीना था इस वक्त हिमालय दर्शन अवर्णनीय होता है.' राजजात यात्रा पूरी करने वाली पहली पाँच महिलाओं में शामिल गीता का जज्बा किताब में बार-बार झलकता है, जैसे ज्यूरांगली जैसी कठिन पहाड़ी पर चढ़ने उतरने के बाद' वह लिखती हैं, 'आज मैं कह सकती हूँ स्त्रियाँ चाहें तो अपने लिए कुछ भी करने के लिए समर्थन जुटा सकती हैं.'

किताब उत्तराखंड के मेलों, उनकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्ता को  हमारे सामने लाती है. लेखिका लिखती हैं, 'गढ़वाल के चमोली जिले में नन्दा देवी की जात यूँ तो हर साल होती है पर बारहवें साल में की जाने वाली जात को राजजात कहा जाता है.' वह सेवादास जैसे लोक गाथाओं के ज्ञाता की चर्चा करती हैं, 'हमारी क्षेत्रीय प्रतिभाओं की पहचान कर कद्र करने की समझ कब आएगी?' यह सवाल हमारी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है.

स्त्रियों के कठिन जीवन की तस्वीर

गीता गैरोला अपनी इस यात्रा के माध्यम से पहाड़ी महिलाओं के कठिन जीवन को गीतों और बातचीत के माध्यम से उजागर करती हैं. वह अपनी दादी के हवाले से लिखती हैं, 'अरे बाबा हमारे पहाड़ी लोग अपने बेटे के लिए बहु के रूप में मजदूर लाते थे. पहाड़ की हर औरत खेती के काम के साथ घास, लकड़ी काटकर सारी जिंदगी बाप का कर्जा ही तो चुकाती है.' यह पहाड़ी महिलाओं की मेहनत और सामाजिक अपेक्षाओं के बोझ को दर्शाता है. 

किताब में दलित महिलाओं के दोहरे शोषण का मार्मिक चित्रण है, 'हमारे समाज में आज भी दलित महिलाएँ दो तरह से प्रताड़ित होती हैं. दलित होने के नाते और औरत होने के नाते.'

पर्यावरणीय चिंताएँ

जम्मू-कश्मीर, केरल और छत्तीसगढ़ की यात्राओं में गीता गैरोला वहां की प्राकृतिक सुंदरता, सामाजिक मुद्दों और सांस्कृतिक विविधता का वर्णन करती हैं. 

जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 जैसे विषयों को छूते हुए वह अपने पारिवारिक संबंधों पर भी लिखती हैं. केरल में मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश और स्थानीय परंपराओं पर उनकी टिप्पणियाँ विचारोत्तेजक हैं. पर्यावरणीय चिंताएँ भी किताब का हिस्सा हैं, जैसे जब वह सड़क निर्माण के लिए वनों की कटाई पर लिखती हैं, 'तो फिर हमारा वन कहाँ गया?'

किताब में उत्तराखंड की सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक स्थिति की अन्य राज्यों से तुलना की गई है. गीता गैरोला ने लिखा है, 'कितनी विडंबना है जब गाँव में लोग थे तब पानी नहीं था, अब गांव में लोग नहीं हैं पर घर-घर पानी के नल लग गए.' महाराष्ट्र के गाँवों की तुलना में वह लिखती हैं, 'बेचारा अपना उत्तराखंड और उसके दयनीय से ग्राम प्रधान.' यह तुलना नीति-निर्माताओं के लिए सबक है.

किताब की खासियत और सुधार की गुंजाइश

किताब की भाषा सरल और संवादात्मक है, जो पाठकों को लेखिका के अनुभवों से जोड़ती है. इस किताब की खासियत इसकी संवेदनशील और समावेशी दृष्टि है, जो प्रकृति, संस्कृति और सामाजिक मुद्दों को एक साथ पिरोती है. 

हालांकि, कुछ घटनाओं का वर्णन, जैसे पृष्ठ 45 पर 'मेरा हाँफता काँपता मन कह रहा था कि चढ़ाई चढ़ते कमल को पीछे से एक डंडे से सटाक मार दूं' या पृष्ठ 204 पर खिड़की खटखटाने की घटना, अनावश्यक रूप से विस्तृत हैं और किताब को संक्षिप्त करने की गुंजाइश है.

इसके अलावा, गीता गैरोला ने सामाजिक कुरीतियों पर अधिक ध्यान दिया है, जिसके कारण प्राकृतिक और सांस्कृतिक विवरणों का विस्तार कुछ कम रह गया है. उदाहरण के लिए, 'यहाँ पर स्थानीय लकड़ी, पत्थर की वास्तुकला से बने पत्थर की स्लेटों वाली छत के मकानों की बसावट देखने लायक है' जैसे वर्णन को और विस्तृत किया जा सकता था, ताकि पाठकों को स्थानीय वास्तुकला और पर्यावरण की गहरी समझ मिल सके. महिला समाख्या कार्यक्रम से जुड़ाव के कारण गीता गैरोला की कुछ यात्राएँ विशिष्ट संदर्भों तक सीमित रहीं, जिसे और विविध दृष्टिकोणों से संतुलित किया जा सकता था.

अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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