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बिहार विधानसभा चुनाव 2025: सामाजिक न्याय की राजनीति को चुनौती दे रहे हैं प्रशांत किशोर

राजन झा
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 13, 2025 15:00 pm IST
    • Published On अक्टूबर 13, 2025 15:00 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 13, 2025 15:00 pm IST
बिहार विधानसभा चुनाव 2025: सामाजिक न्याय की राजनीति को चुनौती दे रहे हैं प्रशांत किशोर

साल 1990 से अब तक बिहार की राजनीति सामाजिक न्याय और जातीय और उपजातीय पहचान की इर्द गिर्द सिमट के रह गई थी. यह राजनीति इतनी सशक्त रही कि हिंदुत्व की राजनीति को भी इसे बिहार में स्वीकार  करना पड़ा. यही कारण है कि बिहार जैसे हिंदी भाषी क्षेत्र में बीजेपी 243 सीटों वाली विधानसभा में महज 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. यानी बीजेपी केवल 40 फीसदी विधानसभा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ रही है. उसे 60 फीसदी सीट अपने सहयोगी दलों के लिए छोड़नी पड़ी हैं. बीजेपी के ये सहयोगी दल जातीय पहचान और सामाजिक न्याय की राजनीति में विश्वास रखते हैं. इतना ही नहीं बीजेपी को अपने प्रदेश स्तर के नेताओं जो हिंदुत्व के पैरोकार हैं, मसलन गिरिराज सिंह और हरिभूषण ठाकुर बचौल के बजाए जातीय राजनीति के स्वरूप में फिट बैठने वाले नेताओं को आगे करना पड़ा है. सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि कांग्रेस को भी अपने प्रदेश नेतृत्व और राजनीति को सामाजिक न्याय उन्मुख करने को विवश होना पड़ा. ऐसी परिस्थिति में बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में प्रशांत किशोर की जन सुराज की चर्चा सर्वाधिक होना एक राजनीतिक पहेली की तरह है. 

कौन से मुद्दे उठा रहे हैं प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर बेरोजगारी, पलायन, आर्थिक और औद्योगिक विकास और भ्रष्टाचार को मुद्दा बना रहे हैं. इसे मीडिया और आम लोग तरजीह दे रहे हैं. यह मुद्दे पिछले दो-ढाई दशक में चुनावी राजनीति से गायब थे. तो क्या इसका श्रेय सिर्फ प्रशांत किशोर को जाता है या बिहार के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में कोई मूलभूत परिवर्तन आया है जिसके कारण प्रशांत किशोर और उनके द्वारा उठाए जा रहे मुद्दे को तवज्जो मिल रही है. सामाजिक न्याय के लिए वितरात्मक न्याय (Distributive Justice) का होना आवश्यक है. इसके लिए उत्पादन का होना जरूरी है. बिहार में औद्योगिक उत्पादन न के बराबर है. इसलिए डिस्ट्रीब्यूटिव जस्टिस को सरकारी नौकरी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक ही सिमट कर रहना पड़ा. भारत में नई आर्थिक नीति आने के बाद पब्लिक सेक्टर में सरकारी नौकरियां लगातार कम होती गईं. बिहार भी इस नई आर्थिक नीति से अछूता नहीं रहा, यानी कुल मिलाकर बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति राजनीतिक प्रतिनिधित्व के आसपास ही घूमती रही. इस राजनीतिक प्रतिनिधित्व का फायदा चंद परिवारों तक ही सीमित है. इसका विस्तार तबतक संभव नहीं जबतक बिहार में उत्पादन आधारित डिस्ट्रीब्यूटिव जस्टिस न हो. सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले लालू-नीतीश के दो दशक से अधिक के कार्यकाल के बावजूद बिहार में औद्योगिक विकास नहीं हो सका जिसके कारण बिहार आर्थिक तौर पर पिछड़ा राज्य बना हुआ है. अस्मिता की राजनीति के सफल प्रयोग के बावजूद अन्य मोर्चे जैसे भूमि सुधार नहीं होना, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों ने सामाजिक न्याय की राजनीति को प्रतीकात्मक बना कर रख दिया. 

इलेक्शन मैनेजर से नेता तक का सफर

प्रशांत किशोर की राजनीति इसी विरोधाभास में निहित है. 'सामाजिक न्याय' की राजनीति से ऊब चुकी जनता को शायद प्रशांत किशोर द्वारा इंडस्ट्री, पलायन, अच्छी शिक्षा आकर्षित कर रही है. यहां प्रशांत किशोर की राजनीतिक यात्रा का भी अवलोकन करने की जरूरत है. साल 2014 में नरेंद्र मोदी के लिए इलेक्शन मैनेजमेंट से अपना करियर शुरू करने वाले प्रशांत किशोर ने हर विचारधारा वाली राजनीतिक दलों के लिए इलेक्शन मैनेजमेंट का काम किया. इसने भारतीय चुनाव को एक इवेंट की तरह स्थापित किया, जिसे मैनेज किया जा सके. ऐसा नहीं है कि भारतीय चुनाव में कॉरपोरेट फंडिंग कोई नई बात थी लेकिन प्रशांत किशोर ने इसे एक नया आयाम दिया. इसके अलाव भारतीय चुनाव को व्यक्ति केंद्रित करने और इसके इर्द-गिर्द चुनावी कैंपेन को रखने के लिए भी प्रशांत किशोर जाने जाते हैं. हालांकि, 1990 में भारत में नई आर्थिक नीति के पदार्पण ने ऐसे सभी प्रयास के लिए जमीन तैयार कर दी थी. बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में 'फिर से नीतीशे' जैसे चुनावी नारे ने ऐसी स्ट्रेटेजी को सफल भी बनाया. फलस्वरूप, राजनीतिक विचारधारा का महत्व चुनावी राजनीति में कम होता गया. इन सभी स्ट्रेटेजी को दूसरे पोलिटिकल पार्टियों को अपनाने के बाद प्रशांत किशोर बिहार में अपनी राजनीतिक पार्टी के लिए पिछले तीन साल से लगातार प्रयासरत हैं. 

राजनीति में कितनी जरूरी है विचारधारा

प्रशांत किशोर द्वारा बीजेपी, जदयू और राष्ट्रीय जानता दल के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप ने करप्शन को मीडिया नैरेटिव में ही सही लेकिन एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बना दिया है. नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी के शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाकर प्रशांत किशोर ने राजनीतिज्ञों के लिए शिक्षा जैसे प्रश्न की अनिवार्यता को अपरोक्ष रूप से पोलिटिकल डिस्कोर्स में स्थापित करने की कोशिश भी की है. चूंकी पोलिटिकल डिस्कोर्स विचारधारा से शिफ्ट हो कर व्यक्ति केंद्रित हो रही इसलिए व्यक्तियों के चरित्र और उनके कॉम्पीटेंसी चुनाव में लोगों का ध्यान भी आकर्षित कर रहा है. प्रशांत किशोर जिनके पास इससे पहले कोई  राजनीतिक और प्रशासनिक दायित्व नहीं रहा है, इसलिए भी उनके द्वारा सभी पर राजनीतिक हमला करना आसान है. यदि जनसुराज के उम्मीदवारों की पहली सूची पर गौर फरमाएं तो यहां भी नए और ऐसे चेहरों को चुनावी मैदान में उतारा गया है, जिनका पहले से कोई राजनीतिक और प्रशासनिक बैगेज नहीं है, बल्कि ये ऐसे चेहरे हैं जो अपने प्रोफेशनल जिंदगी में किए कामों की वजह से जाने जाते हैं. यानी एक तरीके से अन्ना हजारे आंदोलन से उपजे अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी द्वारा सिविल सोसाइटी का चुनावी राजनीति में आजमाने के अनुभव को बिहार में जन सुराज के प्रयोग के तौर पर देखा जा सकता है.

प्रशांत की कोशिश बिहार की राजनीति को विचारधारा शून्य की तरफ ले जाना है. साल 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव ऐसे मुहाने पर खड़ा है, जहां एक तरफ दो दशक से चली आ रही सामाजिक न्याय की विचारधारा वाली राजनीति से थकावट है और वहीं दूसरी तरफ कोई वैकल्पिक विचारधारा के अभाव में प्रदेश व्यक्ति केंद्रित राजनीति और विचारधारा शून्य की स्थिति में है. कांग्रेस जिसने अपनी राजनीति को रीडिजाइन करते हुए सामाजिक न्याय की राजनीति को ही चुनने का निर्णय लिया है, वहीं बीजेपी चुप चाप प्रशांत किशोर की राजनीति को देख रही है. बीजेपी को व्यक्ति केंद्रित और विचारधारा शून्य की स्थिति में अपनी हिंदुत्व की राजनीति की संभावना अधिक प्रबल दिख रही है.

डिस्क्लेमर: लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के नीजि हैं, एनडीटीवी का उनसे सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.  

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