पहली बात तो ये कि इस मानव श्रृंखला को सफल क्यों कहना चाहिए. इसके कई कारण हैं. पहला, राज्य के इतिहास में पहली बार राज्य के अधिकांश राजनैतिक दल न केवल एक दूसरे के समर्थन में आए बल्कि सड़कों पर भी इस मुद्दे के समर्थन में खड़े दिखे. यह एक बड़ी बात है अन्यथा नेताओं और राजनैतिक दल भले शुरू में समर्थन दें लेकिन कोई न कोई मीन मेख निकाल कर ऐन मौके पर पीठ दिखा देते हैं. यह एक नई शुरुआत है. आप कह सकते हैं कि चूंकि नीतीश कुमार ने नोटबंदी का समर्थन किया इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन के बाद बिहार बीजेपी की मजबूरी थी कि वो नीतीश का समर्थन करती. लेकिन इसके पहले इसी शराबबंदी के मुद्दे पर जब नीतीश कुमार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई तब बीजेपी के वरिष्ठ नेता ने उस बैठक से खुद को अलग रखा और विधान मंडल के दोनों सदनों में उनका रुख काफी आक्रामक होता था.
दूसरी जो सबसे अहम बात है वो यह कि राज्य में 3 करोड़ से अधिक लोग किसी एक मुद्दे पर कभी अपने घर से नहीं निकले और एक-दूसरे का हाथ नहीं थामा. आप मानिये या नहीं, भले ही ये सरकारी कार्यक्रम था लेकिन जहां लोग राजनैतिक दलों की रैली में भाग लेने के लिए तमाम तरह की सुविधाओं की मांग करते हैं, उस राज्य में बिना जाति के बंधन के एक दूसरे का हाथ पकड़ कर खड़ा रहना, वो भी आधे घंटे से अधिक, ये एक नए बिहार की झलक है. इसके अलावा आप मानव श्रृंखला की किसी तस्वीर का अध्यन करें या सरसरी निगाह डालेंगे तो आपको एक बात स्पष्ट होगी कि इसमें महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक है. बिहार जैसे समाज में अगर महिलाएं घरों से निकल कर किसी मुद्दे पर घंटों खरड़ी हैं तब समझिये कि उस मुद्दे से उनका कहीं न कहीं एक भावनात्मक लागव है. और समझिये की गांव में इस मुहिम को व्यापक जन समर्थन प्राप्त है और ये वर्ग ऐसा है जो इस शराबबंदी की सफलता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है.
मानव श्रृंखला की कतार में बच्चो की बड़ी संख्या को भी केवल यह कह कर ख़ारिज नहीं कर देना चाहिए कि उनके ऊपर स्कूल का दबाव था कि कहीं नाम न कट जाये. या सरकार की तरफ से मिलने वाली विभिन्न सुविधाएं जैसे पोशाक या साइकिल के पैसों से वंचित होने के डर से लाइन में लग गए. बल्कि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि इन बच्चों के जेहन में शराबबंदी भी कोई चीज है का संदेश एक बार में चला गया और आने वाले दिनों में नीतीश कुमार के लिए ये इस लड़ाई में एक बड़ा हथियार हो सकते हैं. आप कह सकते हैं कि लोगो की सहभागिता ने उनके संकल्प को प्रकट किया है कि वो इस मुहिम के पक्ष में हैं.
सबसे बड़ी बात है कि नीतीश कुमार ने वर्षों से अपने राजनैतिक जीवन की वो मनोकामना पूरी की कि बिहार के लोग जाति तोड़ कर भी किसी मुद्दे पर एक साथ आ सकते हैं और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है पटना का गांधी मैदान जो पिछले कई दशको में सैकड़ों जातियों की सभा का प्रमाण रहा है. उसके अलावा राजनैतिक दलों की एक से एक बड़ी रैली देखी लेकिन कभी किसी मुद्दे पर भले गांधी मैदान में लोग रैलियों की तुलना में कम हों लेकिन एक दूसरे का हाथ पकड़ कर खड़ा होना, ये बिहार की नई तस्वीर और पहचान है. भले ही ये आयोजन सरकार का रहा हो लेकिन नीतीश कुमार की अपनी छवि और उनकी सरकार के लिए गुरु पर्व के बाद मानव श्रृंखला एक बड़ा मील का पत्थर साबित हुआ.
लेकिन नीतीश कुमार के लिए आयोजन की सफलता में ही सबसे बड़ी चुनौती है. उन्हें भी मालूम है कि लोगों की खासकर उन 3 करोड़ से अधिक लोगों में उनके प्रति उम्मीद और बढ़ेगी. नीतीश इस सच्चाई से भी भली भांति परिचित हैं कि आज उनके प्रशासन और पुलिस की नाक के नीचे ग्रामीण इलाकों और शहर में शराब की बिक्री या अवैध धंधा फल फूल रहा है. और जब तक शराब माफिया के इस अवैध नेटवर्क को आने वाले कुछ महीनों में जड़ से ध्वस्त करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाते तब तक उनका ये अभियान तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचेगा. लेकिन उसके लिए उन्हें वर्तमान तंत्र को और मजबूत करना होगा और ग्रामीण इलाकों में पंचायत को कहीं न कहीं यह जिम्मेदारी देनी होगी कि वो देखे कि उनके गांव में इस धंधे में लगे लोगों पर तुरंत नियंत्रण लगे. नहीं तो ग्रामीण इलाकों में इस धंधे में लगे लोगों की आर्थिक उन्नती से और लोग भी इस अवैध काम की और रुख कर रहे हैं. ये एक खतरा है जिसपर नीतीश कुमार को जल्द कदम उठाने होंगे. इसी से जुड़ा एक मामला है कि अभी तक शराबबंदी के उल्लंघन के आरोप में 15 हजार से अधिक लोग गिरफ्तार तो हुए लेकिन आज तक एक भी व्यक्ति को सजा नहीं हुई.
इसके अलावा कोर्ट में शराबबंदी का मामला सुप्रीम कोर्ट में आने वाले दिनों में सुनवाई के लिए आएगा और कोर्ट के फैसले के ऊपर भी बहुत कुछ निर्भर करता है कि नीतीश सरकार ने अब तक जो भी कदम उठाये हैं या जो भी नियम बनाये हैं वो कितना कानून सम्मत हैं. लेकिन नीतीश कुमार ने शराबबंदी के कांसेप्ट जो आज तक विश्व में कहीं भी सफल नहीं रहा है उसके प्रति अपनी जिद और प्रयास से दिखा दिया है कि अगर आप कुछ ठान लें तो बहुत कुछ बदला जा सकता है. और जब बिहार में बदलाव हो सकता है तो दूसरे राज्यों में क्यों नहीं. लेकिन ये सब कुछ निर्भर करेगा कि नीतीश इस पूरे माहौल को आने वाले दिनों में कैसे आगे ले जाते हैं और न केवल राजनैतिक दलों बल्कि जनता को इस मुद्दे से कैसे जोड़ कर रख पाते हैं.
मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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