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बिहार में मुकेश सहनी मजबूरी क्यों? कांग्रेस-RJD ने इतने 'VIP नखरे' क्यों सहे? Inside story

महागठबंधन के भीतर मुकेश सहनी और उनकी वीआईपी की भूमिका यह साबित करती है कि बिहार की राजनीति में जातीय गणित और छोटी पार्टियों की उपयोगिता कितनी अहम है.

बिहार में मुकेश सहनी मजबूरी क्यों? कांग्रेस-RJD ने इतने 'VIP नखरे' क्यों सहे? Inside story
  • VIP पार्टी के मुकेश सहनी ने महागठबंधन से शुरू में 60 सीटें और उपमुख्यमंत्री पद की मांग की थी
  • महागठबंधन ने सहनी को 15 सीटें देकर और भविष्य में राज्यसभा और एमएलसी सीटों का आश्वासन देकर मनाया
  • महागठबंधन को निषाद समाज के वोट बैंक और गठबंधन की मजबूती को ध्यान में रखकर झुकना पड़ा है
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पटना:

बिहार की राजनीति में इस बार सीटों का गणित जितना पेचीदा रहा, उतना ही दिलचस्प भी. सबसे ज़्यादा सुर्ख़ियों में रहे मुकेश सहनी और उनकी पार्टी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी). महागठबंधन के भीतर सीट बंटवारे का पूरा खेल अंतिम समय तक इसलिए फंसा रहा क्योंकि मुकेश सहनी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर अडिग रहे.

सहनी ने शुरू में रखी 60 सीटों की मांग

बिहार के निषाद (मछुआरा-नाविक) समाज से आने वाले मुकेश सहनी ने शुरुआत में 60 सीटों की मांग रख दी. साथ ही उन्होंने उपमुख्यमंत्री पद की भी दावेदारी ठोक दी. यह मांग न तो राष्ट्रीय जनता दल को रास आई, न कांग्रेस को. कांग्रेस ने तो सार्वजनिक मंच से इस पर नाराज़गी भी जताई. गठबंधन में पहले से ही सीटों को लेकर खींचतान चल रही थी, ऐसे में VIP की यह ऊंची मांग माहौल को और जटिल बना गई. कई दौर की बैठकों, फोन कॉल्स और दिल्ली से लेकर पटना तक चली बैठकों के बाद आखिरकार मुकेश सहनी को सिर्फ 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा. हालांकि इसके साथ उन्हें राज्यसभा और एमएलसी सीटों की “भविष्य की गारंटी” का आश्वासन भी दिया गया.

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होटल के अंदर VIP के दो गुट भिड़े

सीटों को लेकर वीआईपी के भीतर भी जबरदस्त ड्रामा हुआ. पटना के होटल मौर्या में पार्टी ने दोपहर 12 बजे एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाने की घोषणा की थी. राजनीतिक गलियारों में अटकलें थीं कि सहनी गठबंधन से अलग होने की घोषणा कर सकते हैं. लेकिन यह प्रेस कॉन्फ्रेंस तीन बार रद्द करनी पड़ी.

इसी बीच खबर आई कि होटल के भीतर ही वीआईपी के दो गुटों में झगड़ा हो गया. नेताओं के बीच धक्का-मुक्की और नोकझोंक तक की नौबत आ गई. यह घटना मीडिया में खूब उछली और पार्टी की साख पर असर पड़ा. महागठबंधन के लिए यह संकेत था कि सहनी की नाराज़गी किसी भी वक़्त बड़े संकट में बदल सकती है.

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समझौते के बावजूद अलग-अलग उम्मीदवार

नामांकन की अंतिम तारीख के ठीक पहले यानी 16 अक्टूबर की देर रात महागठबंधन के शीर्ष नेताओं ने वीआईपी के साथ समझौते का फ़ॉर्मूला तय किया. कांग्रेस ने उसी रात अपने 48 उम्मीदवारों की सूची जारी की, वहीं वामदलों ने भी अपने उम्मीदवारों की घोषणा शुरू कर दी. नतीजा यह हुआ कि कई सीटों पर एक ही गठबंधन के दो दलों ने उम्मीदवार उतार दिए. यह महागठबंधन की अंदरूनी अव्यवस्था का बड़ा उदाहरण बन गया.

सहनी को 15 सीटें, और भविष्य का वादा

आख़िरकार तेजस्वी यादव और कांग्रेस हाईकमान के बीच हुई बातचीत के बाद यह तय हुआ कि वीआईपी को 15 सीटें दी जाएंगी. साथ ही वादा किया गया कि भविष्य में एमएलसी और राज्यसभा सीटों पर उन्हें प्राथमिकता दी जाएगी. इस समझौते के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस की नौबत नहीं आई और वीआईपी ने गठबंधन में बने रहने का ऐलान कर दिया.

गठबंधन ने इसलिए सहे सहनी के “नखरे” 

सवाल यह है कि मुकेश सहनी की पार्टी को लेकर गठबंधन ने इतने “नखरे” क्यों सहे? दरअसल, बिहार की राजनीति में निषाद यानी मछुआरा-नाविक समुदाय लगभग 6-7% वोटों पर असर रखता है. सहनी खुद को इस समुदाय का “राजनीतिक चेहरा” बनाकर पेश करते हैं. इसके अलावा पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के बीच उनकी पकड़ भी कुछ इलाकों में प्रभावी मानी जाती है.

यही वजह रही कि RJD और कांग्रेस दोनों ही सहनी को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सके. उन्हें पता था कि यदि वीआईपी गठबंधन से बाहर गया तो उसके वोट सीधे एनडीए के खाते में जा सकते हैं, और यह नुकसान महागठबंधन के लिए निर्णायक साबित हो सकता है.

राजनीति के “किंगमेकर” कैसे बने सहनी

मुकेश सहनी की राजनीति हमेशा से महत्वाकांक्षा से भरी रही है. 2018 में वीआईपी की स्थापना के बाद वे तेज़ी से सुर्ख़ियों में आए. पहले एनडीए में गए, फिर 2020 में RJD के नेतृत्व वाले गठबंधन में लौटे. उनके उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक सफ़र ने बिहार की राजनीति में उन्हें “किंगमेकर” जैसे किरदार में बदल दिया. लेकिन इस बार का सीट विवाद यह भी दिखाता है कि छोटे दल गठबंधन की राजनीति में किस तरह “ब्लैकमेल वैल्यू” के साथ काम करते हैं.

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सहनी के सामने क्यों झुकी कांग्रेस-RJD?

RJD जानती थी कि सहनी के अलग होते ही गठबंधन की “समावेशी” छवि पर सवाल उठेंगे. वहीं कांग्रेस को यह डर था कि अति पिछड़े वर्ग का एक बड़ा हिस्सा उनसे दूर हो जाएगा. इसलिए तमाम नाराज़गी के बावजूद दोनों दलों ने सहनी के सामने झुकने का रास्ता चुना.

इस बार सीट बंटवारे में हर दल अपने वोट बैंक और सामाजिक समीकरण के हिसाब से दबाव बना रहा था. कांग्रेस ने वामदलों से अधिक सीटें मांगीं, RJD ने अपनी परंपरागत सीटें छोड़ने से इनकार किया, और अब वीआईपी ने अलग ही समीकरण बना दिया. अंततः यह बंटवारा किसी “आदर्श साझेदारी” का परिणाम नहीं, बल्कि “मजबूरी में हुआ समझौता” कहा जा सकता है.

बिहार में छोटे दलों की अहमियत

महागठबंधन के भीतर मुकेश सहनी और उनकी वीआईपी की भूमिका यह साबित करती है कि बिहार की राजनीति में जातीय गणित और छोटी पार्टियों की उपयोगिता कितनी अहम है. सहनी ने भले ही 60 सीटों की मांग से शुरुआत की और अंत में 15 पर समझौता किया, लेकिन उन्होंने एक बार फिर यह दिखा दिया कि बिहार में हर वोट बैंक की अपनी क़ीमत होती है.

उन्होंने गठबंधन को अंतिम क्षण तक “बंधक” बनाए रखा और यह दिखाया कि राजनीति में आकार नहीं, असर मायने रखता है. महागठबंधन के लिए यह एक सबक भी है कि गठबंधन तब तक मजबूत नहीं हो सकता, जब तक उसमें शामिल हर घटक को “सम्मानजनक हिस्सेदारी” न मिले.

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