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रोती रही, पर जिम्मेदारी पूरी की... जानिए 25 साल में 35 हजार पोस्टमार्टम करने वाली मंजू देवी की कहानी

पोस्टमार्टम असिस्टेंट मंजू देवी ने अपनी परेशानियाँ साझा करते हुए पोस्टमार्टम रूम में मौजूद कई मूलभूत सुविधाओं की कमी को उजागर किया है. उन्होंने बताया कि रूम में एसी, पानी और पर्याप्त रोशनी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं होने से काम के दौरान दिक्कतें होती हैं.

रोती रही, पर जिम्मेदारी पूरी की... जानिए 25 साल में 35 हजार पोस्टमार्टम करने वाली मंजू देवी की कहानी
  • समस्तीपुर की मंजू देवी ने पिछले पच्चीस वर्षों में तीस से पैंतीस हजार से अधिक शवों का पोस्टमार्टम किया है.
  • पति के निधन के बाद 5 बच्चों की परवरिश और परिवार चलाने के लिए उन्होंने पोस्टमार्टम सहायक का कठिन पेशा अपनाया.
  • मंजू देवी ने अपने पहले पोस्टमार्टम में भय के बावजूद डरे हुए शव का सिर, छाती और पेट खोलकर काम पूरा किया.
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समस्तीपुर:

बिहार के समस्तीपुर की 50 वर्षीय मंजू देवी की कहानी दृढ़ता, त्याग और असाधारण साहस की मिसाल है. पिछले 25 सालों से वह बतौर सहायक 30 से 35 हज़ार से अधिक शवों का पोस्टमार्टम कर चुकी हैं. यह पेशा, जिसे अक्सर कठोर हृदय पुरुषों का माना जाता है, उसे उन्होंने अपनी मेहनत और हिम्मत से अपनाया और उसमें महारत हासिल की.

आम तौर पर, जहां महिलाओं को पालन-पोषण के कारण नर्म दिल माना जाता है, वहीं मंजू देवी ने साबित किया कि महिलाएं आज वो हर काम कर सकती हैं जो पुरुष करते हैं. 25 साल पहले, पति के निधन के बाद, पांच बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी उन पर आ गई. बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए, उन्होंने वही रास्ता चुना जो उनके ससुर और पति का था. यह कठिन काम उनकी रोजी-रोटी का जरिया बन गया, जिसके लिए उन्होंने शवों की चीर-फाड़ करने और उन्हें सिलने का काम सीखा.

'हिम्मत जुटाई, छेनी-हथौड़ी उठाई और मुर्दे का सिर...'

मंजू देवी बताती हैं कि उनका पहला पोस्टमार्टम 22 वर्षीय युवक का था, जिसकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई थी. वह डर से कांप रही थीं और रो भी रही थीं, लेकिन बच्चों का भविष्य आंखों के सामने था. डॉक्टर के निर्देश पर, उन्होंने हिम्मत जुटाई, छेनी-हथौड़ी उठाई और मुर्दे का सिर, छाती और पेट खोला. वह बताती हैं कि उस दिन तो वह घर आकर न खा पाईं, न सो पाईं, पर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी की.

वहीं, डरी हुई महिला आज एक पेशेवर पोस्टमार्टम सहायक बन चुकी हैं. उन्होंने जलने से मरे अपने एक युवा रिश्तेदार के शव का भी पोस्टमार्टम किया है. काम के दौरान उन्हें तनाव भरे हालात का भी सामना करना पड़ा है; एक बार स्थानीय बाहुबली नेता का शव आया था, जिसके साथियों के गुस्से के कारण माहौल बहुत तनावपूर्ण हो गया था.

मंजू देवी के संघर्ष की सफलता: बच्चों का उज्जवल भविष्य

मंजू देवी की जीवन-यात्रा का सार उनके बच्चों की सफलता में निहित है. उनके कठिन संघर्ष के दिनों में किए गए इस चुनौतीपूर्ण काम का फल आज दिखाई देता है. उनके सभी बच्चों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है. उनके दो बेटों ने संगीत में स्नातकोत्तर की डिग्री ली है और वे खुद का संगीत शिक्षण केंद्र चलाते हैं. उनकी दोनों बेटियाँ स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर सिविल सेवाओं की तैयारी कर रही हैं. बच्चों को अपनी माँ पर गर्व है, जिन्होंने उन्हें पालने और अच्छी शिक्षा देने के लिए इतने दुःख सहे. मंजू देवी ने यह साबित कर दिया है कि लगन और दृढ़ संकल्प हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता.

पोस्टमार्टम असिस्टेंट मंजू देवी का दर्द और मांगें

पोस्टमार्टम असिस्टेंट मंजू देवी ने अपनी परेशानियाँ साझा करते हुए पोस्टमार्टम रूम में मौजूद कई मूलभूत सुविधाओं की कमी को उजागर किया है. उन्होंने बताया कि रूम में एसी, पानी और पर्याप्त रोशनी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं होने से काम के दौरान दिक्कतें होती हैं.

सबसे बड़ी समस्या उनके मानदेय को लेकर है. उन्हें प्रति दिन के हिसाब से 380 रुपये मिलते हैं, लेकिन यह भुगतान केवल उसी दिन होता है, जिस दिन पोस्टमार्टम किया जाता है. जिस दिन कोई पोस्टमार्टम नहीं होता, उस दिन उन्हें कोई भुगतान नहीं मिलता. यहाँ तक कि अगर किसी दिन एक से अधिक पोस्टमार्टम करने पड़ें, तब भी केवल 380 रुपये ही मिलते हैं.

मंजू देवी लंबे समय से अपनी नौकरी को स्थायी (पर्मानेंट) करने की मांग कर रही हैं, लेकिन अब तक उनकी सेवाएँ स्थायी नहीं की गई हैं. उनका कहना है कि सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाकर पोस्टमार्टम असिस्टेंटों को बेहतर सुविधा और स्थायी सेवा का अधिकार देना चाहिए.

अविनाश कुमार की रिपोर्ट

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